यौमे आशूराः ऐ मुसलमां तू हुसैन बन, यज़ीदियत न रही है न रहेगी
-जुलैखा जबीं
ज़ुल्म और ज़ालिम से समझौता न करते हुए जान तक चली जाने के अंदेशे के बावजूद आवाज़े हक़ बुलंद करने का नाम ही कर्बला है...
शहादते हुसैन के 1442 बरस बाद ये बिचारने का वक़्त है कि मुसलमान आज किस ख़ेमे के बाहर खड़े हैं?
किसकी ड्योढ़ी के पहरेदार हैं? यज़ीद की...? या मक्कार, फ़रेबी कूफ़ियों
की...? जवाब चाहे जो आए लेकिन, हुसैन के ताबेदार तो नहीं ही बन पाए
हैं..!
अलबत्ता कूफ़ियों की मक्कारियों में सराबोर, आज के ज़्यादातर (भारतीय)
मुसलमान "मर्द" (तथाकथित मज़हबी) आज के यज़ीदी हाकीम की गोद में जा बैठे
हैं, ज़ाहिर है उनकी औरतें शौहर या कुनबापरस्ती से बाहर कैसे रह सकती
हैं...?
क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान है- "हम तुम्हें हर हालत में आजमाएंगे - ख़ौफ़ से, फ़क़्रो-फ़ाक़े (भूख-प्यास) से। हम तुम्हें जानी और माली नुकसान के ज़रिए भी आज़माएंगे और ऐ नबी बशारत दे दीजिए सब्र करने वालों को - जब कोई मुसीबत नाज़िल (पड़ जाए) हो जाए उन पर तो कहें, इन्नालिल्लाहे व इन्ना इलैही राजेऊन - हम अल्लाह ही के हैं और अल्लाह ही की तरफ़ हमें लौट जाना है... ये हैं वो लोग जिनकोे उनके रब की तरफ़ से सलाम है, दरूद है और रहमत है और यही लोग हिदायत याफ़्ता हैं।" इमाम हुसैन ने कर्बला में जो कुरबानियां पेश की हैं, वो सभी के सामने है। यानी हुसैन ने अल्लाह के उस फरमान को पूरा किया जो कुरआन में दर्ज है।
बंद करो तमाशा
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माहे मोहर्रम के चांद के साथ ही मुसलमानों के हर फ़िरक़े में आशिक़े इमामे हुसैन दिखने/दिखाने का ऐसा तमाशा शुरू हो जाता है कि पूछिए मत...!
क़ौम की ग़रीब मेहनतकश अवाम के ख़ून पसीने की कमाई से आए चंदे और धन्नासेठों के रुपयों से महंगे शामियानों, हेलोज़न-मरकरियों, कानफोडू साउंड सिस्टम/डीजे के साथ ही कारों मोटरसाइकिलों के पेट्रोल के लिए रक़मो की बंदरबांट ख़ून के आंसू रूलाती है (अल्लाह का शुक्राना कोरोना+लॉकडाउन की मेहरबानी से इस बार शोशेबाज़ियां ज़रा कम हैं)
यौमे आशूरा, दीने इस्लाम के लिए लड़ी जाने वाली एक ऐसी जंग का दिन है जो सुबह नमाज़े फज्र से शुरु होती है और दोपहर (नमाज़े ज़ोहर के वक़्त पर) आते-आते (8-10) घंटों में ख़त्म हो जाती है...! लाखों की तादाद में सशस्त्र लड़ाका फ़ौज एक ऐसे क़ाफ़िले (यात्रियों का छोटा दस्ता) को रोकने के लिए मुक़ाबिल (सामने) खड़ी कर दी जाती है- जिसमें हुसैन के हमराह दुधमुंहे बच्चों (6 माह से 13 बरस तक) के साथ उनकी माएं, ज़्यादातर बूढ़े मर्द, बीमार, दोस्त अहबाब, रिश्तेदार, औरतें और कुछ जवां मर्द "बग़ैर किसी तैयारी और समुचित युद्ध हथियारों के " शामिल हैं...! इस आधे दिन की लड़ाई में हुसैन के क़ाफ़िले के मुजाहिदीन जिसमें 6 महीने का एक मासूम बच्चा अली असग़र, 13 बरस के औन और ख़ुद हज़रते हुसैन के अलावा कुल 72 साथी, रिश्तेदार, जांनशीं दोस्त शहीद कर दिए जाते हैं...
10 अक्टूबर 680 हिजरी में चंद घंटो की बेहद छोटी सी ये जंग, लाखों की
सशस्त्र फ़ौज के मुक़ाबिल 72 मुजाहिदीन की शहादतों से ऐसा इंक़लाब छेड़
जाती है जो मिल्लते इंसानी के लिए हक़्क़ो बातिल (सच्चाई और मक्कारी) में
फ़र्क़ करने और इंसानियत की फ़लाह (कामियाबी) के लिए इंसाफ़ पसंद तहरीक के
लिए भी आज तक मील का पत्थर बनी हुई है...
क़ुरआन के नज़रिए से फ़लसफ़ए कर्बला, रहती दुनिया तक ये पैग़ाम देता रहेगा
कि "अल्लाह का दीन क़ाबिले अमल है। इसे दुनिया में न सिर्फ़ क़ायम किया जा
सकता है बल्कि इसके बेहतरीन समाजी निज़ाम ( सामाजिक व्यवस्था) पर अमल करते
हुए दुनियां में "सभी के" लोगों के साथ बराबरी से, इंसाफ़ के ज़रिए एक
बेहतरीन दुनिया क़ायम की जा सकती है...
पूरी दुनिया में गुज़रे 1442 बरसों में जहां-जहां भी "इस्लामिक" सल्तनतें
रहीं है, उसका अपनी रिआया (प्रजा) के साथ सोशियो, पोलिटिकल, इकॉनॉमिक
सिस्टम जैसा या उससे बेहतर कहीं, कोई, किसी भी निज़ाम (शासन व्यवस्था) में
इतने लंबे वक़्त तक चलता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है...
पैग़म्बरे इस्लाम (सअव) के चहेते नवासे इमाम हुसैन से ख़ास लगाव रखने का
दावा करने वाले, ख़ुद को उनका असली वारिस कहलवाने वाले, उनके लिए हर साल महफ़िलें सजाते हैं.... लेकिन क्या सचमुच वे हुसैन इब्ने
फ़ातमा ज़हरा के लख़्ते जिगर से सच्ची मोहब्बत करने वाले हैं...?
साल के
ग्यारह महीने आज के बर्बर यज़ीदो, हुर्मलाओ, शिम्रो के साथ गलबहियां डाले
आम ग़रीब, मज़लूम अवाम के साथ किए जा रहे ज़ुल्मों जबर पे आंखे बंद, ज़ुबान
सिले रखते हैं और अचानक चांद होते ही एक महीने के लिए मासूम अज़ादार का
रूप धर लेते हैं। न तो ये शेवए (परंपरा-चलन) रसूल (सअव) अली, और न ही शेवए
ज़ैनब, हुसैन या हसन है.... बल्कि ये शेवा और किरदार उन ग़द्दार कूफ़ियों
का है जिन्होंने ढेरों ख़त लिख लिखकर हुसैन को कूफ़ा आने की दावतें
दी थीं ताकि उनके साथ बैअत कर यज़ीद के ख़िलाफ़ हुसैन को अपना ख़लीफ़ा
तसलीम कर सकें.....!
यौमे आशूर की तहरीक हक़ और बातिल के बीच की सिर्फ़ आधे दिन के लिए लड़ी
जाने वाली छोटी सी जंग नहीं है। बल्कि हर मुसलमान के लिए, हर पल, हर दिन, हर
सांस से अल्लाह के निज़ाम में- मसावात (बराबरी), इंसाफ़, अमन, ईमानदार
किरदार (फ़ाइनेंशियल- फ़िज़िकल - हलाल कमाई) के ज़रिए दी जाने वाली किसी भी
तरह की क़ुर्बानी देने के लिए उसकी रज़ा पर "राज़ी" होना, रहती दुनिया तक
मुसलसल क़ायम रहने वाली अबदी जंग है जिसका हिसाब तमाम इंसानी मख़लूक़ से
यौमे हिसाब (हिसाब लिये जाने वाले दिन)... लिया ही जाएगा...
फ़र्शे अज़ा बिछाने वालों में आज ऐसे कितने हैं जो अपनी कमाई के हलाल होने
का दावा कर सकते हैं? ऐसे कितने हैं जो ख़ुद अपने घर/ ख़ानदान/समाज में
बजबजा रही ज़ात-पात की ग़ैर बराबरी में शरीक न होने का दावा कर सकते हैं?
कितने हैं जो किसी के भी साथ, किसी भी तरह से, किसी भी ताक़तवर- रसूख़दार
के ज़रिए किए जा रहे ज़ुल्म में मज़लूम के खेमें में खड़े हो सकते हैं..??
लेखिका जुलैखा जबीं
हमेशा याद रखिये आज़ादी और इंसाफ़ कभी भी ज़ालिम के ज़ुल्म के सामने सर
नहीं झुका सकते। ये क़ुदरत का क़ानून है.. (फ़िर वो ख़ुद उस या उसके परिवार
पे हो, पड़ोसी पे हो, मोहल्ले में कहीं हो, शहर, राज्य, देश, दुनिया कहीं
भी, किसी भी जानदार, पेड़ पौधों से लेकर कर परिंदों, चौपायों, दो पायों,
अमीर, ग़रीब, छोटे बड़े, कलमा गो हो-ग़ैर कलमा गो हो, नमाज़ी हो-बेनमाज़ी
हो, मुसलमां हो ग़ैर मुसलमां हो कोई भी हो, कहीँ भी हो....
क़ुरआने करीम के मुताबिक़ अल्लाह ने पड़ोसी का हक़ एक मुसलमान पे ये रख
दिया है के "अगर तुम अपनी विरासत अपनों में तक़सीम कर रहे हो और तुम्हारा
ग़रीब पड़ौसी उस वक़्त तुम्हारे घर पहुंच जाए तो तुम पर हक़ है- कुछ हिस्सा
उसे भी दे दो क्योंकि अल्लाह दयानतदारों, हमदर्दों को दोस्त रखता है..."
दीने इस्लाम में मुसलमान का ये भी फ़रीज़ा मुक़र्रर है के 40 घर दायें, 40घर बायें, 40घर आगे, 40घर पीछे तक अगर कोई एक भी तकलीफ़ में है, परेशान है, बे आराम, बे सुकून है, बीमार है भूखा है, क़र्ज़ में है, बेटी का रिश्ता नहीं कर पा रहा.....और आप सुकून में हैं तो फ़िर यौमे हिसाब (उन 160 घर वालों वालों की बदहाली के लिए) हम, आपसे हिसाब मांगा जाएगा...
कर्बला में जब हुसैन (अलैहि) का क़ाफ़िला यज़ीद के फ़ौज की छोटी टुकड़ी ने
घेर लिया। उन्हें बग़ैर बैअत के आगे न जाने देने की बात कहने लगे। तब से 6
मोहर्रम तक हजरत हुसैन की यजीदी फौज के जिम्मेदार अफसरों से हर दिन जो बातचीत हुई है, वो क़ाबिले ग़ौर है...
*पहली ये कि हुसैन उस वक़्त किसी भी तरह जंग नहीं चाहते थे क्योंकि वो जंग की तैयारी से निकले ही नहीं थे.
*दूसरी ये के उनके नाना के दौरे ख़िलाफ़त में जंग के भी रूल्स- रेगुलेशन और नॉर्म्स बनाए (मान्य) किए गए थे जिसे यज़ीदी उस वक़्त पूरा नहीं कर रहे थे...
*तीसरी ये कि जब फ़ौज रज़ामंदी के मोड में आ ही नहीं रही थी तब फ़ौज में
शामिल कूफ़ियों को नाम ले लेकर हुसैन साहब ने उनके ख़ुद से लिखे वे तमाम
ख़ुतूत (पत्र) जो वहां मौजूद कूफ़ियों ने हुसैन को लिख भेजे थे -और ये एक
दो ख़त नहीं थे बल्कि कई बोरों में भरकर मदीना से चले थे ताकि बैअत के लिए
कोई छूट न जाए...
*चौथी ये कि जब फ़ौजी अफ़सरान इस पर भी रज़ामंद नहीं हुए तब हुसैन ने कहा, ठीक है जब तुम मुझसे बैअत ही चाहते हो अपने ख़लीफ़ा के लिए तो मुझे
यज़ीद के दरबार में जाने दो जहां मैं ख़ुद उससे बात करके मामला सुलझा
लूंगा...
ये वो प्वाइंट था जहां फ़ौज ने वक़्त मांगा...लेकिन हुसैन की ये शर्त कूफ़ियों के मौत का सामान थी। कई बोरे ख़तूत लेकर अगर हुसैन यज़ीद के दरबार पहुंच गए तब तो यज़ीद का क़हर कूफ़ियों पे किस तरह टूटेगा ये सोच कर ही उनके होश फ़ाख़्ता हो गये होंगे.....ग़द्दार तो वे मशहूर थे ही- उस वक़्त उनके लिए कहा जाता था " कूफ़ी ला यूफ़ी"....(कूफ़ियों का एतबार ना करो)
और फ़िर ये तय पाया गया के चाहे जो हो जाए हुसैन ज़िन्दा वापस नहीं जाना
चाहिए.... और यहीं, यज़ीद की फ़ौज में बेईमान, लालची, बद्किरदार, ग़द्दार
कूफ़ियों का इंटरेस्ट (स्वार्थ) शामिल हो गया...
अगली सुबह जब हुसैन के क़ाफ़िले पर पानी बंद कर दिया गया तो यज़ीदी
फ़ौज से कई ओहदेदार मये अपने रिश्तेदारों, ख़ैरख़्वाहों के हुसैन (अलैहि)
की तरफ़ से जंग में शामिल हुए और कई बहादुरी से लड़ते हुए शहीद भी हुए....
ये भी तारीख़ (इतिहास) में दर्ज है...
ग़ौरतलब बात है कि क़त्ले हुसैन (अलैहि) के बाद जब यज़ीदी फ़ौज ने औरतों के
ख़ेमों की तरफ़ रूख़ किया तो उस वक़्त हज़रत ज़ैनब ने जिस सख़्ती
से ललकारते हुए फ़ौज को ललकारते हुए युद्ध बंदी क़ानून की याद दिलाई और
उन्हें ख़बरदार किया वो यज़ीदी फ़ौज के लिए शॉकिंग था। एक ग़लती वे पहले कर
ही चुके थे हुसैन और उनके क़ाफ़िले को भूखा प्यासा करके झुका लेने की सोच
कर..., शायद दूसरी बार ऐसी कोई ग़लती वे दोहराना नहीं चाहते थे, इसीलिए रात
के अंधेरे में उन्होंने ख़ेमों में आग लगा दी ताकि कूफ़ियों के लिखे
ख़ुतूत की बोरियां जलकर राख़ हो जाए और रसूल (सअव) के घराने से ग़द्दारी
करने वाले सुबूत वहीं ख़ाक दफ़्न हो जाए....मगर ऐसा हुआ नहीं...
आज क़रीब डेढ़ हज़ार बरस बाद हम उस ग़द्दारी की दास्तान लिख रहे हैं और उसे पढ़ कर आप भी हक़ीक़त से रोशनाश हो रहे हैं.....
आज मुसलमानों को यज़ीदियत से पिंड छुड़ाना ही होगा। फ़िर वो चाहें शिया हों, सुन्नी हों अहले हदीसों हों या कोई दीगर... अगर वे ख़ुद को कलमागो मानते हैं तो अब उन्हें कलमागो नज़र भी आना पड़ेगा... ड्रेस कोड से नहीं बल्कि किरदार से भी...... जिस तरह हमारे आसपास मज़लूमों पर ज़ुल्म का शिकंजा बेहद क़रीब से क़रीब तर होता जा रहा है उससे अब ज़रूरी हो गया है के ज़ालिमों का मुक़ाबला सर उठा के सीना तान के किया जाए अगर आशिक़ाने रसूल (सअव), अली, हुसैन हैं तो.... वर्ना सूरे अलक़ में अल्लाह ने ख़ताकार स्याह पेशानी और नेताओं के चापलूसों (मर्द औरत) के लिए बड़े कड़े लफ़्ज़ों में संबोधित किया है.....अल्लाह तआला हम सभी को हिदायत अता फ़रमाएं.... आमीन
(लेखिका जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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