मेरी ज़िन्दगी का शाहीनबाग़ भी कम नहीं था: अरूणा सिन्हा

लेखिका : अरूणा सिन्हा

टीवी देखने का टाइम कहां था मेरे पास। जब तक बच्चे और ‘ये’ स्कूल-ऑफिस के लिए निकल नहीं जाते तब तक एक टांग पर खड़े-खड़े भी क्या भागना-दौड़ना पड़ता था। कभी यह चाहिए तो कभी वो - मेरा रूमाल कहां है? मेरे मोजे कहां हैं? तो नाश्ता अभी तक तैयार नहीं हुआ? बस यही आवाजें कान में सुनाई देती थीं और वो भी इतनी कर्कश मानो कानों में सीसा घुल रहा हो। इस आवाज से बच्चे भी सहमे रहते थे। पापा के रहने तक तो ऐसा लगता था मानो उनके मुंह में जुबान ही न हो।



शादी को दस साल हो चुके थे। पहली रात ही इनका असली रूप सामने आ गया था।



मैं मन में सपने संजोए अपनी सुहागरात में अकेली कमरे में इनके आने का इंतजार कर रही थी। नींद की झपकी आने लगी तो लेट गयी। लगभग दो बजे दरवाजा खुलने की आहट सुन मेरी नींद भरी आंखें दरवाजे की ओर मुड़ गयीं। लड़खड़ाते कदमों से अंदर दाखिल होते ही पहला वाक्य एक तमाचे की तरह आया - ‘बड़ी नींद आ रही है?’ आवाज की कर्कशता की मैं उपेक्षा कर गयी। लगा बोलने का अंदाज ऐसा होगा। क्योंकि हमारा कोई प्रेम विवाह तो था नहीं। मां-बाप ने जिसके साथ बांध दिया बंधकर यहां पहुंच गयी थी। शादी के लिए मुझे देखने आये और पसंद कर लेने के बाद सब तय हो गया था।


कई दिनों की थकावट थी। शादी से पहले घर में जमा मेहमानों के बीच ‘दुल्हन’ को भी आराम कहां? शादी से दो दिन पहले हल्दी की रस्म के बाद ही तो घर के कामकाज से छुटकारा मिल पाया था। लेकिन सही तरीके से नींद नहीं हो पायी थी। कुछ मेहमानों से गपशप में, तो कुछ भविष्य के रंगीन सपने बुनते रहने की वजह से।


सोचा था कमरे में आकर कुछ मीठी, कुछ मधुर बातें करेंगे लेकिन वो तो भूखे भेड़िए की तरह यूं झपटे और जो शरीर-मर्दन किया, उसकी टीस कई दिनों तक शरीर झेलता रहा। मन तो इस झटके से उबर ही नहीं पाया, क्योंकि यह क्रिया तो रोज का काम बन गयी थी- उसमें मेरी मर्जी, मेरे शरीर की हालत पर विचार का कोई स्थान ही कहां था। मेरी तरफ से थोड़ी सी भी न-नुकुर की तो गुंजाइश हीं नही थी। एक-दो बार की भी तो शरीर पर जो मार लगी उसका क्या कहना, मन तो शादी की पहली रात से घायल था, जो ठीक होने की बजाय और जख्मी ही होता रहा।


मेरी शादीशुदा जिंदगी का बस एक ही मकसद रह गया था - उनका हुक्म बजाना। कभी मन में विचार उठा भी कि छोड़कर मायके चली जाऊं। कभी मां से इस बारे में बात भी कि तो जवाब में हमेशा मुझे ही समझाने की कोशिश - ‘बेटा, पति का घर छोड़कर आओगी तो लोग क्या कहेंगे?’ ‘ऐसी औरत की कोई इज्जत नहीं रहती।’ ‘और फिर पापा भी तो रिटायर हो चुके हैं, तुम्हारा और तुम्हारे बच्चों का खर्चा कैसे उठा पायेंगे।’ ‘मियां-बीबी के बीच तो यह सब होता रहता है। थोड़ा बर्दाश्त करने की आदत डालो। सुखी रहोगी।’ ’इतना तो सभी औरतों को सहना पड़ता है।’


जवाब तो बहुत सूझते थे - कि यहां जो मार-पिटाई सह रही हूं, बच्चों के सामने हर दिन इस तरह का व्यवहार कौन सी इज्जत दिला रहा है। इनके हाथों पिटना बेहतर है, लोगों की बातें सुनने से,  लोग मुझे कुछ क्यों कहेंगे, इस आदमी को कुछ क्यों नहीं कहेंगे। शादी से पहले भी तो पिताजी मेरा खर्च उठा रहे थे न? हां, बच्चे जरूर आप लोगों पर बोझ बन जायेंगे।“ - लेकिन कुछ कह न पाती थी। क्योंकि मेरा अपना कुछ था कहां- वो पिता का घर - यह पति का घर! ... औरत की जिंदगी में तो सहना ही लिखा है!


ये आते ही टीवी चलाकर बैठ जाते। बैठकर तो देखने का मुझे समय नहीं मिलता था। आते-जाते बस नजर डाल लेती। कानों में आवाजें पड़ती रहतीं। आज शाहीनबाग में महिलाओं के विरोध का 10 वां दिन है। 20वां दिन, 30वां दिन है। यह बात सुनकर मेरी उत्सुकता थोड़ी बढ़ गयी थी। अब 50 दिन तक विरोध? वो भी महिलाएं और ज्यादातर बुर्के वाली महिलाएं... यह घर से निकल प्रदर्शन कर रही हैं...कमाल है। मामला क्या है? जो आम तौर पर चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाएं इस तरह इतने दिनों से विरोध करने को घर से बाहर बैठी हैं। जबर्दस्त सर्दी में, अपने बच्चों के साथ।


दिन में जब कोई नहीं होता तो किसी तरह से थोड़ा वक्त निकालकर बस उन्हीं से जुड़े समाचार देखने लगी और सीएए, एनआरसी तथा एनपीआर के बारे में समझने का प्रयास करने लगी। सब कुछ बहुत गहराई से तो नहीं समझ पायी लेकिन हां इतना जरूर समझ गयी थी कि ये महिलाएं अपने अधिकार, अपने बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित हैं और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं। 


मन में सवाल उठता - इनमें इतना साहस कैसे आ गया? इनके पति इन्हें कुछ नहीं कहते? हमेशा से सुनती आयी हूं मुस्लिम महिलाओं के लिए तो घर में बड़ी पाबंदियां होती हैं। इस ख्याल के साथ मन में यह विचार भी उठ जाता - मैं कौन सी मुस्लिम हूं। लेकिन मुझ पर पाबंदियों की कौन सी कमी है। अपनी मर्जी का पहन नहीं सकती - साड़ी पहन काम करने में परेशानी होती तो पूछने पर भी सलवार-कमीज तक पहनने की ‘इजाजत’ नहीं मिली थी। बाहर निकलने पर भी तो पाबंदी थी। बस घर का सामान या बच्चों को स्कूल से लाने भर की इजाजत थी। घूमने-फिरने का तो सवाल ही नहीं उठता। न कभी घुमाने ले जाते थे। दस सालों में शायद तीन या चार बार बाहर गये होंगे।


लेकिन शाहीनबाग़ में बैठी यह महिलाएं तो गजब हैं। अब लगभग रोज ही कुछ देर के लिए शाहीनबाग़ से जुड़ी खबरें बड़ी दिलचस्पी से देख लेती। मुझे लगने लगा क्या मैं भी इनके जैसी बन सकती हूं। इतना साहस जुटा पाऊंगी कि अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकूं?


एक दिन बड़ी हिम्मत करके मैं जल्दी से तैयार हुई और पति के ऑफिस जाने के बाद शाहीनबाग़ पहुंच गयी। वहां जाकर इतनी बड़ी संख्या में औरतों को बैठा देखा तो पहले समझ नहीं पायी कि क्या करूं। लेकिन जब पहुंच ही गयी थी तो वहां बैठी एक बुजुर्ग महिला के पास जाकर बैठ गयी। उसने मेरी ओर देखा और प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा। उनका अपनापन देख मेरी हिम्मत बंधी। वो बीच-बीच में अपने आसपास की औरतों से बातें करती थीं और नारे भी लगा रही थीं। 


आखिर मैंने उनसे सवाल कर ही लिया - अम्मा, आप लोग यहां बैठी हैं आपके घर में कोई कुछ नहीं कहता? उस बुजुर्ग महिला ने उसे गौर से देखा फिर बोली- क्यों, क्यों कहेगा? हम अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। और हम अपने कदम बाहर निकाल चुके हैं, अब हमें कोई पीछे नहीं खींच सकता। उनकी आवाज की दृढ़ता और उनका साहस देख मुझे अपने आप पर गुस्सा आने लगा। मैं इतनी डरपोक क्यों हूं? क्यों इतने दिनों से अपना अस्तित्व तक भुलाये बैठी हूं। यह तो अपने बड़े हक की लड़ाई में जुटी हैं और मैं घर की चारदीवारी में भी अपने अधिकार के लिए नहीं लड़ पा रही? मुझे घर लौटने की जल्दी थी। सो, मैं वहां से उठ गयी। लेकिन दिमाग में बहुत से सवाल घूम रहे थे। पति के सामने बोलने की हिम्मत तो नहीं थी लेकिन दिमाग में उस बुजुर्ग महिला की बातें लगातार घूमती रहती थीं और अब यह भी महसूस करने लगी थी कि जब हम हिम्मत दिखाते हैं तो मदद करने वालों की कमी नहीं होती और जब तक खाई से निकलने की कोशिश स्वयं नहीं करेंगे खाई के अंदर धंसते ही जायेंगे।


देश में जगह-जगह शाहीनबाग़ उठ खड़े हुए थे। अब मेरे दिल-दिमाग में एक अपना शाहीनबाग़ पनपने लगा था। अब ठान लिया था कि अपने अधिकारों की लड़ाई लड़कर ही रहूंगी। अब रोज-रोज वैवाहिक बलात्कार, घरेलू हिंसा, अपमान नहीं सहूंगी। अब परिणाम जो भी हो!


मेरा मन मानो नारे लगाने लगा था...

शाहीनबाग़ जिन्दाबाद... मेरा शाहीनबाग़ जिन्दाबाद...


लेखिका परिचय...

कौन हैं अरूणा सिन्हा

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अरूणा सिन्हा ने लंबे समय तक एक प्रतिष्ठित  प्रकाशन गृह में संपादकीय विभाग में काम किया। कुछ वर्ष अध्यापन कार्य में लगी रहीं।

इसके बाद पिछले लगभग दो दशकों से जाने माने महिला संगठन एनएफआईडब्ल्यू (NFIW) की राष्ट्रीय सचिव होने के साथ साथ सामाजिक कार्यों में संलग्न। संगठन की हिंदी पत्रिका की कार्यकारी संपादक भी हैं। 

सामाजिक विषयों खासकर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कहानियां, कविताएं, लेख लिखती रहती हैं। इनके अलावा अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद कार्य में संलग्न।

हिन्दीवाणी तक अरूणा सिन्हा को लाने का श्रेय जानीमानी पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता ज़ुलैख़ा जबीं को जाता है।






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