राहुल गांधी का “हिन्दू” मोदी के “हिन्दुत्व” को नहीं हरा सकता

जनता को आडंबर पसंद है, मोदी की छवि उसे मोहक लगती है...


तमाम प्रश्न अनुत्तरित हैं। यक्ष प्रश्न पूछने वाले नदारद हैं। नेपथ्य से आने वाली आवाज़ें खामोश हैं। कुछ जोकर हिन्दुत्व नाम की रस्सी को अपनी-अपनी तरफ़ खींचने में ज़ोर लगा रहे हैं। जनता धर्म की अफ़ीम चाटकर सारे कौतुक को निर्लज्जता से देख रही है। यह कम शब्दों में भारत के मौजूदा हालत की तस्वीर है। 

राहुल गांधी भारत के प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस के ज़िम्मेदार नेता हैं। उनकी पार्टी जयपुर में महंगाई विरोधी रैली करती है। रैली से बढ़ती महंगाई का सरोकार ग़ायब है। राहुल धर्म का मुद्दा छेड़ते हैं। पेट की आग से धर्म बड़ा हो जाता है। 




राहुल महंगाई विरोधी रैली में हिन्दू और हिन्दुत्व का फ़र्क़ समझाते हैं। वो गोडसे के हिन्दुत्व को विलेन बनाने की कोशिश करते हैं। राहुल गांधी के भाषण में कुछ भी नया नहीं था। वो पहले भी यही बातें कह चुके हैं। आरएसएस पर हमला कर चुके हैं। लेकिन दो दिन बाद उन्हें हिन्दुत्व के उन पैरोकारों की तरफ़ से जवाब मिलता है जो राहुल के मुताबिक़ गोडसे परंपरा के वाहक हैं।

राहुल गांधी के सलाहकार कौन हैं, मुझे नहीं पता। उन्हें कौन सलाह दे रहा है कि वो बार-बार हिन्दू और हिन्दुत्व के एजेंडे पर बात कर रहे हैं, उसे मुद्दा बना रहे हैं। लेकिन राहुल ने सोमवार 13 दिसम्बर  को बनारस की वह तस्वीर या वीडियो देखा, जिसमें देश का प्रधानमंत्री गंगा नदी में खड़ा होकर एक हाथ में माला पकड़े हुए हैं और उसके दूसरे हाथ में लोटा है। वो गंगा में डुबकी लगा रहा है। उस प्रधानमंत्री को देश की अर्थव्यवस्था के रसातल में जाने की चिन्ता नहीं है। वो इसलिए चिन्ता मुक्त है क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल का नेता भी हिन्दू-हिन्दू कार्ड खेल रहा है।

हिन्दुत्व पर आरएसएस के मुखौटे मोदी और कांग्रेस के मुखौटे राहुल की जंग अब नूरा कुश्ती जैसी हो गई है। आरएसएस का सनातनी प्रपंच कांग्रेस के हिन्दुत्व पर भारी है। मोदी या आरएसएस  के हिन्दुत्व को राहुल या कांग्रेस कभी पराजित नहीं कर पाएँगे। 




राहुल या कांग्रेस का हिन्दुत्व देश में तमाम वाजिब सवालों को कोई आकार नहीं लेने दे रहा है। माना कि साम्प्रदायिकता एक वाजिब मुद्दा है लेकिन सिर्फ़ साम्प्रदायिकता की क़ीमत पर तमाम जनपक्षीय मुद्दों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जिन्हें देश और समाज में अमनचैन चाहिए वे साम्प्रदायिकता के घोड़े पर लंबी सवारी नहीं कर सकते। सनातनी लोग लंबे समय तक दलितों, आदिवासियों, सिखों, ईसाइयों और मुसलमानों की क़रीब 40 फ़ीसदी आबादी के सवालों को अनदेखा कर भारत में शांति स्थापित नहीं कर सकते।

एक साल से किसान आंदोलन चल रहा था। राहुल आये दिन अन्नदाता- अन्नदाता कर रहे थे। किसान तथाकथित विजय के बाद लौट गए। राहुल के मुँह से अगले ही दिन अन्नदाता की जगह हिन्दुत्व निकला। क्या किसानों के विजयी होकर लौटने से उनके सवाल हल हो गए? लेकिन राहुल अन्नदाता को भूलकर हिन्दुत्व पर लौट आए। आरएसएस और मोदी भी तो यही चाहते हैं। 

कांग्रेस ने अजीबोग़रीब स्थिति कर दी है। आरएसएस, मोदी से बड़ा हिन्दू और हिन्दुत्व का झंडाबरदार इस देश की बहुसंख्यक जनता को पसंद नहीं है। बनारस नामक तीर्थ स्थल पर केरल का भी सनातनी पहुँचता है और बंगाल का भी। उसे मोदी के हाथ में माला लेकर जपना और गंगा में जलाभिषेक वाली मोहक छवि पसंद है। मोदी उसी छवि को केदारनाथ से लेकर अयोध्या और बनारस तक दोहराते फिरते हैं। जिस जनता को यही मोहक छवि पसंद है तो वो भला रोज़गार, ग़रीबी, किसानों के मुद्दों पर क्यों ध्यान देगी?

दरअसल, यह काम विपक्षी दलों का होता है कि वो जनता को ऐसी मोहक छवियों से निकाल कर उन्हें वास्तविक सवालों से रूबरू कराए। लेकिन हो ये रहा है कि विपक्ष खुद इन्हीं में ज़मीन तलाश रहा है। राहुल से लेकर अखिलेश, ममता, मायावती, ओवैसी सब के सब मोदी बनना चाहते हैं लेकिन मोदी और आरएसएस का आडंबर इन्हें कहीं आसपास भी फटकने नहीं देता।










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