भारत में निष्पक्ष चुनाव नामुमकिनः व्यक्तिवादी तानाशाही में बदलता देश
Fair elections are impossible in India: The country is turning into an individualistic dictatorship an article by Yusuf Kirmani, published in Samyantar Janauary 2024 issue.
भारत में निष्पक्ष चुनाव और व्यक्तिवादी तानाशाही पर यूसुफ किरमानी का यह लेख समयांतर जनवरी 2024 में प्रकाशित हुआ था। इसे अब मुफ्त कंटेंट के तौर पर हिन्दीवाणी के पाठकों के लिए प्रकाशित किया जा रहा है।
भारत में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए एकमात्र संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग है। 12 दिसंबर को राज्यसभा में और 21 दिसंबर 2023 को लोकसभा के शीतकालीन अधिवेशन में मोदी सरकार एक विधेयक लाई और उसके जरिए केंद्रीय चुनाव आयोग में केंद्रीय चुनाव आयुक्त (सीईसी) और आयुक्तों के चयन का अधिकार प्रधानमंत्री, सरकार का कोई मंत्री और नेता विपक्ष को मिल गया। इतना ही नहीं चुनाव आयुक्तों का दर्जा और वेतन सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर कर दिया गया। नियमों में एक और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ कि अगर कोई मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्त अपने कार्यकाल में जो भी फैसले लेगा, उसके खिलाफ न तो कोई एफआईआर दर्ज होगी और न ही उसे किसी अदालत द्वारा उसके पूर्व के फैसलों के लिए दोषी ठहराया जाएगा। इस अकेले विधेयक ने पूरी भारतीय चुनावी राजनीति को भ्रष्ट तरीके से बदलने, एकल पार्टी व्यवस्था लाने और व्यक्तिवादी तानाशाही के सारे रास्ते खोल दिए। हालांकि दूरसंचार विधेयक, तीन आपराधिक संहिता विधेयक के दूरगामी नतीजे तो अलग ही आने वाले हैं। हमारा विषय निष्पक्ष चुनाव और व्यक्तिवादी तानाशही के खतरों से आगाह करने पर है।
चुनाव आयोग से संबंधित विधेयक जल्द ही कानून बन जाएगा। इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर जो व्यवस्था थी, उसमें चयन समिति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी सदस्य होते थे। लेकिन अब चीफ जस्टिस को चयन समिति से हटा दिया गया है। सारा फैसला प्रधानमंत्री, उनकी कैबिनेट का कोई नामित मंत्री और नेता विपक्ष करेंगे। अब कल्पना कीजिए कि चयन समिति के सामने सीईसी के रूप में कोई ऐसा नाम आता है, जिस पर नेता विपक्ष को आपत्ति है और प्रधानमंत्री और उनका नामित मंत्री अगर उस नाम पर राजी हैं तो उस सीईसी का चयन आसानी से हो जाएगा। क्योंकि नेता विपक्ष के एकमात्र वोट का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यानी सत्ता पक्ष जिस भी कठपुतली को चाहेगा, उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बना देगा। हालांकि पिछले दस वर्षों में चुनाव आयुक्त मनमाने तरीके से ही नियुक्त किए जा रहे थे। लेकिन अब वही काम नियम बनाकर होगा।
चयन समिति में सरकार की मनमानी चलाने की एक और भी वजह है। चुनाव आयोग में आयुक्त अनूप चंद्र पांडे, फरवरी 2024 में चुनाव आयोग से रिटायर होने वाले हैं। यह विधेयक तब तक कानून बनकर लागू हो जाता है तो अनूप चंद्र पांडे को आयोग में फिर से नामित करने में सरकार को कोई परेशानी नहीं होगी। फरवरी 2025 में जब मौजूदा सीईसी राजीव कुमार का कार्यकाल खत्म हो जाएगा तो उसके बाद पांडे को अगला सीईसी बनाने में भी कोई विवाद खड़ा नहीं होगा। इस तरह केंद्र सरकार ने तमाम दूरगामी नतीजों पर विचार करके पूरी चयन प्रक्रिया ही बदल दी।
इसी तरह एक अन्य बदलाव जो चुनाव आयुक्तों को बचाने के लिए किया गया है, वो है फैसलों की कोई जवाबदेही न होना। यह बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, उसी में भविष्य के चुनाव निष्पक्ष न होने की तहरीर भी छिपी है। अभी तक मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त की जवाबदेही होती थी और उसे बाद में भी उसके गलत नतीजों की वजह से जवाब देना पड़ता था।
अभी तक चुनाव आयोग में सारे फैसले इस तरह होते रहे हैं कि उन्हें बाद में अदालत में न चुनौती दी जा सके और न ही किसी सीईसी या चुनाव आयुक्त को जिम्मेदार ठहराया जा सके। कल्पना कीजिए कि सत्ता पक्ष चुनाव को प्रभावित करने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करे और चुनाव आयोग उस पर कोई कार्रवाई न करे। या चुनाव आयोग चुनाव के दौरान विपक्ष को हराने की रणनीति को लागू करने में सत्ता पक्ष की मदद करे। क्योंकि चुनाव के बाद ऐसे मामलों की एफआईआर हो सकती है, तो आयुक्तों को बचाने के लिए यह नियम बदला गया है। मोदी राज में एक देश एक चुनाव की मांग भाजपा नेताओं की ओर से की जा रही है, उसके लागू होने पर उसमें चुनाव आयोग की सबसे बड़ी भूमिका होने वाली है। एक चुनाव की स्थिति में वो और भी शक्तिशाली हो जाएगा। एक तरह से केंद्र की सत्ता के बाद चुनाव आयोग सबसे बड़ा शक्ति का केंद्र होगा, चूंकि चयन समिति के जरिए सीईसी से लेकर सारे आयुक्त कठपुतली होंगे तो कुल मिलाकर सत्ता पक्ष ही अप्रत्यक्ष ढंग से चुनाव आयोग को संचालित करेगा।
चुनाव आयोग को लेकर किए गए .ये सारे फैसले चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी होने में बाधा डालेंगे। लेकिन और भी कई वजहें हैं, जिसकी वजह से निष्पक्ष चुनाव अब दूर की कौड़ी होने वाले हैं। इन वजहों में ईवीएम, चुनावी बॉन्ड के भ्रष्ट तरीके के जरिए होने वाली फंडिंग।
ईवीएम का सवाल बाकी, भाजपा अब खामोश क्यों
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भारत के पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए। तीन दिसंबर को नतीजे आए। नतीजे आने के दो-चार दिन बाद ही ये सूचनाएं आने लगीं कि तीन राज्यों में ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की गई है। लेकिन भाजपा ने यह कहते हुए इस आरोप को खारिज कर दिया कि फिर तेलंगाना में कांग्रेस कैसे जीत गई। भाजपा ने यह भी कहा कि कांग्रेस जब भी चुनाव हारती है तो ईवीएम का रोना लेकर बैठ जाती है। लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है। ईवीएम का सबसे पहला विरोध 2009 में भाजपा के धुरंधर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। उस साल भाजपा कई राज्यों में चुनाव हार गई थी और आडवाणी ने ईवीएम को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया था। भाजपा के मौजूदा राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने उसी साल ईवीएम किताब लिखी, जिसका शीर्षक था- डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन। 2014 में जब भाजपा की जबरदस्त जीत हुई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो ईवीएम पर सवाल उठाने वाली भाजपा ने एकदम से चुप्पी साध ली। जीवीएल नरसिम्हा राव से अब जब सवाल किया जाता है तो वो कन्नी काट जाते हैं। लेकिन ईवीएम का जो सवाल उठा था, वो खत्म नहीं हुआ। हर चुनाव के बाद वो सवाल जिन्दा हो जाता है।
ईवीएम को आग कौन लगा रहा, कौन गायब कर रहा है
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देश में ईवीएम को लेकर सवाल पर सवाल हो रहे हैं। चुनाव आयोग के नियमों की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं लेकिन इसी बीच 20 दिसंबर 2023 को यूपी के फरुर्खाबाद से खबर आई है कि वहां एक गोदाम में रखी 800 ईवीएम जल गईं यानी उसमें जो रेकॉर्ड होगा, सब नष्ट हो गया। जिला प्रशासन के अधिकारियों ने पुष्टि की है कि जिस गोदाम में ईवीएम जलीं हैं, वहां बिजली का कनेक्शन नहीं था यानी वहां शॉर्ट सर्किट का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता। सारे घटनाक्रम से साफ है कि किन्ही रेकॉर्ड को नष्ट करने के लिए उन्हें जलाया गया है। 2024 लोकसभा चुनाव की तैयारी भाजपा युद्धस्तर पर कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा का शासन है। ऐसे में संदेह नहीं होगा तो क्या होगा।
19 लाख ईवीएम गायब हैं और आज तक चुनाव आयोग अपनी सफाई ठीक से नहीं दे पाया है। मई 2019 में यह खबर आरटीआई के जरिए सामने आई थी कि करीब 19 लाख ईवीएम गायब हैं। इन ईवीएम का निर्माण दो सरकारी कंपनियों बीईएल और ईसीआईएल ने किया था। जब इस मामले को विपक्षी दलों ने उठाया तो केंद्रीय चुनाव आयोग ने अपनी सफाई में कहा कि एक भी ईवीएम गायब नहीं हुई लेकिन राज्यों के चुनाव दफ्तरों पर उसका नियंत्रण नहीं है। यानी अगर वहां गायब हुई हों तो इस बारे में केंद्रीय चुनाव आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग को फ्रंटलाइन पत्रिका के रिपोर्टर ने चुनौती देते हुए कहा था कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने ईवीएम का ऑर्डर दोनों सरकारी कंपनियों को दिया था। चुनाव आयोग के ऑर्डर और उन कंपनियों की सप्लाई में अंतर है। यानी जितनी मशीनें आयोग को मिलनी थीं, वो कहीं और पहुंच गईं। यह बहुत बड़ा मामला था और फ्रंटलाइन ने बताया कि 2016-2018 के बीच ये ईवीएम गायब हुई थीं। कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद इस मामले को हल्का-फुल्का उठाया लेकिन बाद में सारा मामला रफा-दफा हो गया। लेकिन वो सवाल रह-रहकर सामने आता है कि आखिर 19 लाख ईवीएम कहां गईं और 2019 के लोकसभा चुनाव से उसका क्या संबंध था। अब यूपी में 800 ईवीएम के जलने की सूचना आई है। विपक्ष फिर इसको हल्केफुल्के ढंग से उठाएगा और बाद में सब शांत हो जाएगा।
बीबीसी की रिपोर्ट देखिए
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भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में 2009 में चुनाव आयोग को ज्ञापन देकर ईवीएम पर सवाल उठाए। 2010 में बीबीसी की एक रिपोर्ट आई, जिस पर अब भाजपा चर्चा नहीं करना चाहती। भारतीय गोदी मीडिया भी बीबीसी की 2010 की रिपोर्ट पर बात नहीं करती। बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मिशीगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने भारतीय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को हैक करने की एक तकनीक विकसित की है। एक घरेलू उपकरण को मशीन से जोड़ने के बाद, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मोबाइल से टेक्स्ट संदेश भेजकर परिणाम बदलने में कामयाब हुए।हालांकि, भारतीय चुनाव अधिकारियों का कहना है कि उनकी मशीनें अचूक हैं और उनके साथ छेड़छाड़ करने वाली मशीन को पकड़ना भी बहुत मुश्किल होगा।बहरहाल, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा इंटरनेट पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में कथित तौर पर उन्हें घर में बने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को भारत में इस्तेमाल होने वाली वोटिंग मशीनों में से एक से जोड़ते हुए दिखाया गया है।
प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर जे एलेक्स हैल्डरमैन ने कहा कि डिवाइस ने उन्हें मोबाइल फोन से संदेश भेजकर मशीन पर परिणाम बदलने की अनुमति दी।उन्होंने बीबीसी को बताया, "हमने एक नकली डिस्प्ले बोर्ड बनाया जो बिल्कुल मशीनों में लगे असली डिस्प्ले जैसा दिखता है। बोर्ड के कुछ कंपोनेंट के नीचे, हमने एक माइक्रोप्रोसेसर और एक ब्लूटूथ रेडियो छिपा दिया है। हमारा हमशक्ल डिस्प्ले बोर्ड उन वोट जोड़ को पकड़ लेता है जिन्हें मशीन दिखाने की कोशिश कर रही है और उन्हें गलत योग (टोटल) से बदल देता है।"इसके अलावा, उन्होंने एक छोटा माइक्रोप्रोसेसर जोड़ा जिसके बारे में उनका कहना है कि यह चुनाव और मतगणना सत्र के बीच मशीन में संग्रहीत वोटों को बदल सकता है।बीबीसी की यह रिपोर्ट अपनी जगह है। लेकिन इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 के बाद कांग्रेस नेता और पूर्व सीएम कमलनाथ से लेकर दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि कई बूथों पर कांग्रेस को एक वोट मिला, जबकि सारे वोट भाजपा को चले गए। यह कैसे संभव है। इसी तरह की शिकायतें तमाम विधानसभा क्षेत्रों से मिलीं।ईवीएम को लेकर ये आरोप अपनी जगह हैं। लेकिन बहुत सारे लोगों ने समय-समय पर ईवीएम को लेकर अपनी आपबीती की जानकारी चुनाव आयोग को दी है। लेकिन आयोग ने शिकायतों का संज्ञान ही नहीं लिया।
मुस्लिम मतदाताओं को रोका जाना
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निष्पक्ष चुनाव में एक नई बाधा ये भी आ गई है कि हर चुनाव में पुलिस, प्रशासन साम्प्रदायिक होती जा रही है। वो जानते हैं कि मुस्लिम वोट कहां जाएंगे, इसलिए मुस्लिम मतदाताओं को अब वोट डालने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। अगर एक उदाहरण हो तो इस सवाल को पूर्वाग्रह माना जाएगा लेकिन अब यह पैटर्न बन गया है तो इस मुद्दे पर बात करना जरूरी है। इसकी शुरुआत मतदाता सूचियों में मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने से होती है। सितंबर 2023 में घोसी उपचुनाव हुआ था। न्यूज क्लिक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि सैकड़ों मुस्लिम मतदाता अपना आधार और मतदाता पहचान पत्र लेकर वोट डालने पहुंचे लेकिन उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे। जिनके नाम मतदाता सूची में थे, उनके वोट पहले ही डाले जा चुके थे। न्यूज क्लिक ने कई मतदाताओं से इंटरव्यू करके रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसी रिपोर्ट में पुलिस के एक सीईओ विनीत का नाम आया था, जिन्होंने कई मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से अजीबोगरीब कारण बताकर रोका और मतदान केंद्र से वापस कर दिया। चूंकि मुस्लिम महिलाएं अपने घर के पुरुषों के साथ वोट डालने आई थीं तो काफी लोगों को भीड़ जमा करने के नाम पर भगा दिया गया।
दिसंबर 2022 में रामपुर उपचुनाव हुआ। उस समय की टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि रामपुर में हजारों मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोका गया। उस रिपोर्ट में तमाम वीडियो के हवाले से बताया गया कि मुस्लिम मतदाताओं को मतदान केंद्रों के बाहर पुलिस द्वारा पीटे जाने के भी आरोप लगे। यहां पर उसी सीईओ विनीत की ड्यूटी चर्चा के केंद्र में रही, जिनकी सेवाएं बाद में घोसी उपचुनाव में भी ली गई थीं। समाजवादी पार्टी ने रामपुर उपचुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोके जाने के मामले को चुनाव आयोग में ज्ञापन देकर उठाया। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
2018 में कर्नाटक और तमिलनाडु में लाखों मुस्लिम मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब होने की खबरें अखबारों में सुर्खियां बनीं। तमिलनाडु में 12 लाख और कर्नाटक में 8 लाख मुस्लिम नाम मतदाता सूची से गायब मिले। विपक्षी दल इन मामलों को ठीक ढंग से उठा ही नहीं पाए। कर्नाटक में अब कांग्रेस की सरकार है, वो 2018 में 8 लाख मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने की जांच अब क्यों नहीं कराती। उसे कौन रोक रहा है। यही हाल तमिलनाडु में डीएमके का है। वो भी 12 लाख मतदाताओं के नाम गायब होने पर चुप होकर बैठ गई। नवंबर 2023 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान तमाम शहरों में मुस्लिम मतदाताओं को रोकने की सूचनाएं आईं। लेकिन कांग्रेस ने इस मामले को उठाया ही नहीं। एमपी में कांग्रेस के सॉफ्ट हिन्दुत्व को डर था कि मतदान वाले दिन अगर वो लोग उस पर बोले तो हिन्दू मतदाता संगठित होकर भाजपा को वोट दे देंगे। लेकिन कांग्रेस के सॉप्ट हिन्दुत्व वाले कमलनाथ को यह नहीं मालूम था कि हिन्दुत्व के नाम पर जिन लोगों का वोट भाजपा को जाना है, वो जाएगा ही, मुसलमानों को रोके जाने का मुद्दा उठाने पर मतदाता प्रभावित होने वाले नहीं थे। बहरहाल, सॉफ्ट हिन्दुत्व खेलने वाली कांग्रेस अब शायद इस पर विचार करे।
चुनावी बॉन्डः चुनावी भ्रष्टाचार का खुला खेल
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चुनावी बॉन्ड योजना शुरू होने के बाद पिछले पांच वर्षों में बॉन्ड के जरिए आधे से अधिक यानी करीब 57 फीसदी पैसा भाजपा के खाते में गया है। भाजपा ने खुद चुनाव आयोग को जानकारी दी है कि 2017-2022 के बीच बॉन्ड के जरिए भाजपा को 5,271.97 करोड़ रुपये मिले। इसी अवधि में कांग्रेस को चुनावी बॉन्ड से सिर्फ 952.29 करोड़ रुपये मिले। यानी भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े पांच सौ फीसदी ज्यादा चंदा मिला। जिन्हें नहीं पता, उन्हें बता दें कि चुनावी बॉन्ड एक तरह से चुनावी चन्दा है जो किसी भी व्यक्ति या संस्था के किसी भी पार्टी को देने पर नाम गुप्त रहता है। पहले क्या होता था कि पार्टियों को बताना पड़ता था कि किस उद्योग घराने से या संस्था से कितना पैसा उन्हें मिला है। भाजपा जब 2014 में सत्ता में आई तो उसने इस पर बाकायदा काम किया और 2018 नया कानून लेकर आई कि कोई भी व्यक्ति या संस्था गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को दान कर सकता है। लेकिन यह आजाद भारत में सबसे बड़ी राजनीतिक रिश्वत बनकर रह गई है। साल दर साल आंकड़े बता रहे हैं कि कॉरपोरेट जमकर भाजपा को चुनावी बॉन्ड के जरिए पैसा पहुंचा रहा है। कांग्रेस 70 साल सत्ता में रही लेकिन ऐसी अनोखी रिश्वत की योजना पेश नहीं कर पाई, जबकि सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी पार्टी का तमगा उसे भाजपा ने दे रखा है। वही भाजपा जो इस देश की सबसे बड़ी और अमीर पार्टी कॉरपोरेट रिश्वतखोरी से बन गई है। आपको ताजा आंकड़े की जानकारी दे दें, उसी से आपको सारा खेल समझ आ जाएगा। अगला पैराग्राफ पढ़िए।
पांच राज्यों में नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव हुए। ये राज्य हैं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम। 3 दिसंबर को नतीजे आए। 7 दिसंबर 2023 को भारतीय स्टेट बैंक के चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सामने आए। आरटीआई के जरिए आए इन आंकड़ों में एसबीआई को बताना पड़ा कि चुनाव के दौरान 6 नवंबर से 20 नवंबर तक सबसे ज्यादा चुनावी बॉन्ड मिजोरम को छोड़कर चार राज्यों में खरीदे गए। एसबीआई के मुताबिक इस अवधि में 1006.03 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बेचे गए। 2018 के मुकाबले इन चार राज्यों में 400 गुणा ज्यादा रकम राजनीतिक दलों के पास पहुंची। 2018 में चुनावी बॉन्ड इसी अवधि में 184.20 करोड़ के बेचे गए थे। 2018 में इन्हीं पांच राज्यों में चुनाव हुए थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि मिजोरम में किसी भी राजनीतिक दल को एक धेला भी चुनावी बॉन्ड के जरिए नहीं पहुंचा।
इन चुनावी बॉन्डों को सभी राजनीतिक दलों को भुनाना पड़ता है। यानी पैसा आपके खाते में तभी आएगा, जब आप इसे भुनाएंगे। एसबीआई ने बताया कि नवंबर में राजनीतिक दलों ने लगभग सारे बॉन्ड दिल्ली और हैदराबाद में भुनाए। जाहिर है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में हैं तो बॉन्डों को दिल्ली में भुनाया गया। दूसरे नंबर पर हैदराबाद इसलिए रहा कि वहां के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) का दफ्तर है, उसने वहां बॉन्ड भुनाए। यहां सुप्रीम कोर्ट की एक हरकत का जिक्र भी जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती दी गई है। मोदी सरकार इसके पक्ष में एड़ी से चोटी तक जोर लगा रही है। सरकार ने 2 नवंबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और सरकार ने 4 नवंबर को चुनावी बॉन्ड की 29वीं किस्त जारी कर दी। नवंबर में ही पांच राज्यों के चुनाव हो रहे थे। पढ़ने वाले समझ गए होंगे कि इन तथ्यों का आपस में क्या तालमेल है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की हरकत शब्द का इस्तेमाल यहां किया गया है। बहरहाल 2018 से अब तक कुल 29 किस्तें चुनावी बॉन्ड की जारी की गई हैं। जिनमें कॉरपोरेट ने 15,922.42 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों के खाते में पहुंचा दिए हैं। इसमें भाजपा नंबर 1 पर और ममता बनर्जी की टीएमसी दूसरे नंबर पर है। उसके बाद कांग्रेस का नंबर है। यह गुप्त रिश्वत है। सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ तमाम दलीलें दी जा चुकी हैं और पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की मांग की गई है। लेकिन व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कहां सुनवाई होनी है। सारी संवैधानिक संस्थाएं एक जगह गिरवी हैं।
कांग्रेस ने 18 दिसंबर 2023 को जनता से चंदा लेने के लिए एक सार्वजनिक योजना डोनेट फॉर देश यानी देश के लिए दान की घोषणा की। जनता से कांग्रेस पार्टी ने अपील की है कि वो कम से कम 138 रुपये का दान कांग्रेस को दे। यह एक तरह से कांग्रेस का चुनावी बॉन्ड योजना और कॉरपोरेट को जवाब है। अगर योजना सफल हुई तो कॉरपोरेट के हाथों के तोते उड़ जाएंगे, क्योंकि जनता का पैसा कांग्रेस के खाते में बड़े पैमाने पर पहुंचा तो कांग्रेस को फिर जनता के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा। कॉरपोरेट उसे वैसे भी चंदा नहीं दे रहा है। अडानी समूह पर जब से राहुल गांधी ने हमला शुरू किया, तब से उद्योगपतियों से कांग्रेस को मिलने वाला चंदा लगातार कम होता जा रहा है। क्राउड फंडिंग की यह योजना अगर सफल रही तो कांग्रेस देश की राजनीति को बदल सकती है, बशर्ते की जनता के प्रति उसकी जवाबदेही और ईमानदारी उसके बाद भी बनी रहे। जब मैं यह रिपोर्ट समयांतर के लिए लिख रहा हूं तो करीब तीन करोड़ रुपये का जनता दान कांग्रेस के पास पहुंच चुका था।
निष्कर्ष और समाधान
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कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि जनता अगर नहीं जागी तो भारत में निष्पक्ष चुनाव नामुमकिन है, भारत के लोकतंत्र को गंभीर खतरा है। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि केंद्रीय चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश को शामिल किया जाए। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि ईवीएम की जगह कागज के मतपत्र वाला जमाना वापस लाया जाए। यह मुमकिन नहीं है तो ईवीएम से निकलने वाली वीपीपैट पर्ची की गणना की जाए। इसके लिए सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग बेवकूफी वाले तर्क पेश कर रहा है। सभी विपक्षी दल मिलकर ईवीएम के मुद्दे पर जनता को सड़कों पर आने के लिए कहें, निष्पक्ष चुनाव के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कांग्रेस से यह वादा लिया जाए कि अगर वो जब भी सत्ता में आएगी तो ईवीएम से चुनाव पर रोक लगा देगी या फिर वीवीपैट पर्चियों की सौ फीसदी गिनती कराएगी। इंडिया गठबंधन ने वैसे भी अब सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग की है। विपक्ष के राजनीतिक दलों का ही काम जनता को जागरूक करना है। उन्हें जनता को जगाने के लिए नए तरीके खोजने होंगे। एक सुझाव यह भी है कि अगर चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और सरकार सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग को स्वीकार नहीं करते हैं तो विपक्ष 2024 के चुनाव का पूरी तरह बहिष्कार कर दे। वैसे भी व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष चुनाव कराने में नाकाम साबित होने वाली हैं। राजनीतिक दलों के पूरी तरह बहिष्कार करने पर जनता को कम से कम ये तो पता चलेगा कि जो पार्टी सत्ता में आने वाली है, वो किस तरह बनी है, जिसमें विपक्ष कहीं नहीं है। अगर 2024 के चुनाव में भाजपा की फिर से सरकार बनती है तो निश्चित रूप से भाजपा एक देश एक चुनाव का कानून लाएगी और पास भी करा लेगी, क्योंकि व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कुछ भी संभव है। जनता और राजनीतिक दलों के पास शांतिपूर्ण संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
व्यक्तिवादी तानाशाही का अर्थ
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इस रिपोर्ट में कई जगह व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। उसको स्ष्ट करना जरूरी है। अपनी पुस्तक "डिक्टेटर्स एंड डिक्टेटरशिप्स: अंडरस्टैंडिंग ऑथरिटेरियन रेजीम्स एंड देयर लीडर्स" में लेखिका नताशा एम. एज्रो और एरिका फ्रांत्ज़ ने पांच प्रकार की तानाशाही बताई हैं: 1. सैन्य तानाशाही, 2. राजशाही, 3. व्यक्तिवादी तानाशाही, 4. एकदलीय तानाशाही और 5. हाइब्रिड तानाशाही।
लेखिका नताशा और एरिका ने व्यक्तिवादी तानाशाही को परिभाषित करते हुए लिखा है- ऐसे नेता को किसी पार्टी द्वारा समर्थित किया जा सकता है। सत्ता का भारी बहुमत ऐसे नेता के पास रहता है। विशेष रूप से किसे किस सरकारी भूमिका में रखना है यह व्यक्तिवादी तानाशह तय करता है। सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए अपने स्वयं के करिश्मे पर बहुत अधिक निर्भर रहता है। इस तरह की तानाशाही के नेता अक्सर अपने प्रति वफादार लोगों को सत्ता में ऊंचे पदों पर रखते हैं, चाहे वो योग्य हों या नहीं। जनता की राय को अपने पक्ष में करने के लिए व्यक्तित्ववादी तानाशाह आकर्षक और लुभावने नारे, कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हैं। अधिकांश तानाशाहों की तरह, व्यक्तिवादी तानाशाह भी आलोचकों को चुप कराने के लिए अक्सर गुप्त पुलिस (खुफिया और जांच एजेंसी) और हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। यहां पर भारतीय संदर्भ में व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। अगर हम अन्य चार तानाशाही का जिक्र इस रिपोर्ट में करेंगे तो यह लेख ज्यादा लंबा हो जाएगा। इसलिए उसे किसी और मौके पर पेश करने के लिए रोक लेते हैं।
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