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बहुत डरावना और उन्मादी है भारत का बहुसंख्यकवाद : यूसुफ किरमानी

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  भारत में अभिव्यक्ति की आजादी बहुत जल्द बीते हुए दिनों की बातें हो जाएंगी। भारत में दो चीजों के मायने बदल गए हैं। अभिव्यक्ति की आजादी कट्टरपंथियों की आजादी से तय हो रही है और प्रेस यानी मीडिया की आजादी सरकारी मीडिया की हदों से तय की जा रही है। लेकिन दोनों की आजादी को नियंत्रित करने वाली ताकत एक है, जिस पर हमारा ध्यान जाता ही नहीं है। भारत बहुसंख्यकवाद के दंभ की गिरफ्त में है। सरकारी संरक्षण में पला-बढ़ा बहुसंख्यकवाद भारत को उस दौर में ले जा रहा है, जहां से बहुत जल्द वापसी की उम्मीद क्षीण है। मान लीजिए कल को सत्ता परिवर्तन या व्यवस्था परिवर्तन हो जाए तो भी बहुसंख्यकवाद ने जो फर्जी गौरव हासिल कर लिया है, उसका मिट पाना जरा मुश्किल है। क्योंकि सत्ता परिवर्तन के बाद जो राजनीतिक दल सत्ता संभालेगा, वह भी कमोबेश उसी बहुसंख्यकवाद को संरक्षित करने वाली पार्टी का प्रतिरूप है।       देश में 'तांडव' के नाम पर बहुसंख्यकवाद कृत्रिम तांडव कर रहा है और उसने मध्य प्रदेश में एक कॉमेडियन को बेवजह जेल में बंद करा दिया है। तांडव के नाम पर तांडव करने वाले और कॉमेडियन मुनव्वर फारुकी को जेल में बं

मध्य वर्ग को कपिल गूर्जर में जो एडवेंचर दिखता है वो बिल्कीस दादी में नहीं

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भारत का मध्यम वर्ग भारत का दुर्भाग्य बनता जा रहा है... -यूसुफ किरमानी भारत का मध्यम वर्ग दिवालिया होने के कगार पर पहुंचने के बावजूद हसीन सपने देख रहा है। उसकी याददाश्त कमजोर हो चुकी है लेकिन देशभक्ति का टॉनिक उसकी मर्दाना कमजोरी को दूर किए हुए है। साल 2020 के खत्म होते-होते पूरी दुनिया में भारत के फोटो जर्नलिस्टों के कैमरों से निकले दो फोटो की चर्चा हो गई लेकिन मध्यम वर्ग इसके बावजूद नींद से जागने को तैयार नहीं है। शाहीनबाग में सरेआम गोली चलाने वाले कपिल गूर्जर को जिस दिन बीजेपी में शामिल करने के लिए इस फर्जी राष्ट्रवादी पार्टी की थू-थू हो रही थी, ठीक उसी वक्त अमेरिका की वंडर वुमन बिल्कीस दादी का फोटो जारी कर उन्हें सबसे प्रेरणादायक महिलाओं में शुमार कर रही थी।  हालांकि बीजेपी ने छह घंटे बाद कपिल गूर्जर को पार्टी से बाहर निकालकर आरोपों से अपना पीछा छुड़ाया। लेकिन दुनियाभर में तब तक शाहीनबाग में फायरिंग करते हुए कपिल गूर्जर की पुरानी फोटो एक बार फिर से वायरल हो चुकी थी लेकिन तब उसके साथ वंडर वुमन की वो सोशल मीडिया पोस्ट भी वायरल हो चुकी थी, जिसमें उसने दादी का फोटो लगाया था।

अटल बिहारी वाजपेयी को ज़बरन स्वतंत्रता सेनानी बनाने की कोशिश

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  यूसुफ किरमानी मोदी सरकार ने 25 दिसम्बर 2020 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन मनाते हुए उन्हें फिर से स्वतंत्रता सेनानी स्थापित करने की कोशिश की। भाजपा शासित राज्यों में अटल के नाम पर सुशासन दिवस मनाया गया। इसलिए इस मौक़े पर पुराने तथ्यों को फिर से कुरेदना ज़रूरी है। भाजपा के पास अटल ही एकमात्र ब्रह्मास्त्र है जिसके ज़रिए वो लोग अपना नाता स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ते रहते हैं।  यह तो सबको पता ही है कि भाजपा का जन्म आरएसएस से हुआ। भाजपा में आये तमाम लोग सबसे पहले संघ के स्वयंसेवक या प्रचारक रहे। 1925 में नागपुर में अपनी पैदाइश के समय से ही संघ ने अपना राजनीतिक विंग हमेशा अलग रखा। पहले वह हिन्दू महासभा था, फिर जनसंघ हुआ और फिर भारतीय जनता पार्टी यानी मौजूदा दौर की भाजपा में बदल गया। कुछ ऐतिहासिक तथ्य और प्रमाणित दस्तावेज हैं जिन्हें आरएसएस, जनसंघ के बलराज मधोक, भाजपा के अटल और आडवाणी कभी झुठला नहीं सके।  आरएसएस  संस्थापक गोलवरकर ने भारत में अंग्रेज़ों के शासन की हिमायत की। सावरकर अंडमान जेल में अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने के बाद बाहर आये। सावरकर के चेले नाथूराम गोडसे ने

बात ज़रा सिक्का उछाल कर...

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मुग़ल काल के दौरान अकबर ने भारत में 50 साल तक शासन किया। उसने उस समय चाँदी के जो सिक्के जारी किए उन पर राम सीता की तस्वीर है। (फोटो नीचे देखें) ... इतिहास टटोल डालिए उस वक़्त किसी मौलवी या मुफ़्ती ने अकबर के खिलाफ फ़तवा जारी नहीं किया।  अकबर से पहले बाबर और हुमायूँ ने जो सिक्के जारी किए थे, उन पर इस्लाम के चार ख़लीफ़ाओं के नाम होते थे।  ज़ाहिर है कि अल्पसंख्यक अकबर ने बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं की क़द्र करते हुए राम सीता वाले सिक्के जारी किए होंगे।   सत्ता मिलने पर किसी शासक को जैसा बौराया हुआ अब देख रहे हैं वैसा कभी नहीं हुआ।  औरंगज़ेब काल में ज़ुल्म किए जाने की बात जहाँ तहाँ लिखी गई है लेकिन इतिहासकारों ने उसके द्वारा मंदिर बनवाने और मंदिरों को चंदा देने की बात भी दर्ज की गई है।   लेकिन जो अब हो रहा है, वैसा कभी नहीं हुआ। सांप्रदायिक सल्तनत में बदलते इस देश में अलग विचार रखना, बोलना, लिखना गुनाह होता जा रहा है।  फ़िल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप, अदाकारा अपर्णा सेन, इतिहासकार रामचंद्र गुहा समेत कई जानी मानी हस्तियों ने कल प्रधानमंत्री को बढ़ती मॉब लिंच

मुस्लिम ब्रदरहुड से बड़ी चुनौती है आरएसएस की

-विकास नारायण राय, पूर्व आईपीएस राहुल गाँधी की आरएसएस की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना सटीक होते हुए भी ऐतिहासिक सतहीपन का शिकार नजर आती है| सबसे पहले, उन्होंने वैश्विक शांति के नजरिये से आकलन में वही गलती की है जो 2013 में मिश्र में मोहम्मद मोरसी की सरकार का तख्ता पलट होने देने में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने की थी| पॉलिटिकल इस्लाम को अरब समाज के लोकतान्त्रिक परिदृश्य से ओझल नहीं किया जा सकता; न पॉलिटिकल हिंदुत्व को भारतीय समाज के! दूसरे, भारतीय समाज को आरएसएस के खतरे से चेताने के लिए उन्हें देशी जमीन का इस्तेमाल करना चाहिये था क्योंकि आरएसएस विश्व शांति को नहीं भारतीय समाज की शांति को खतरा है| आज मिश्र में ब्रदरहुड के साठ हजार लोग जेलों में हैं जबकि भारत में आरएसएस अपने आप में कानून बना हुआ है; इस लिहाज से आरएसएस कई गुना बड़ी चुनौती कहा जाएगा| अमेरिका में इसी महीने मिश्र में ब्रदरहुड सत्ता पलट पर न्यूयॉर्क टाइम्स के कैरो में ब्यूरो प्रमुख रहे डेविड किर्कपैट्रिक की किताब ‘इनटू द हैंड्स ऑफ़ द सोल्जर्स’ का प्रकाशन हुआ है| उनकी थीसिस के अनुसार, ब्रदरहुड शासन में अंततः लोकतान्त्रिक

मैं उस देश का वासी हूँ...

जी हाँ, मैं उस देश का वासी हूँ... जिस देश में इंसाफ़ सुप्रीम कोर्ट के कॉरिडोर में रौंदा जा रहा हो... जिस देश का चीफ़ जस्टिस तिरंगे पर बार बार फ़ैसला पलटता हो... जिस देश में मीडिया सत्ता की कदमबोसी कर रहा हो... जिस देश का मीडिया मसले जाने से पहले सरेंडर कर रहा हो... जिस देश में मुख्यमंत्री को अपने ही मुक़दमे वापस लेने की छूट हो... जिस देश में मुख्यमंत्री को जासूसी और नरसंहार  की छूट हो... जिस देश में सेना के जनरलों को राजनीतिक बयानों की छूट हो... जिस देश में सेना के जनरलों को राजनीति में आने की छूट हो... जिस देश में जंतरमंतर पर प्रदर्शन की आज़ादी छीन ली गई हो... जिस देश में किसी विकलांग का जनविरोध देशद्रोह होता हो ... जिस देश में भात न मिलने पर कोई बच्ची दम तोड़ देती हो... जिस देश में ग़रीब को बच्चे की लाश ख़ुद ढोना पड़ती हो... जिस देश में दलित और आदिवासी शहरी नक्सली कहलाते हों... जिस देश में किसान क़र्ज़ न चुकाने पर आत्महत्या करते हों... जिस देश में बैंकों और जनता का पैसा लेकर भागने की छूट हो... जिस देश में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने

मुस्लिम वोट बैंक किसे डराने के लिए खड़ा किया गया ?

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मेरा यह लेख आज (16 मार्च 2017)  नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है। अखबार में आपको इस लेख का संपादित अंश मिलेगा, लेकिन सिर्फ हिंदीवाणी पाठकों के लिए उस लेख का असंपादित अंश यहां पेश किया जा रहा है...वही लेख नवभारत टाइम्स की अॉनलाइन साइट एनबीटी डॉट इन पर भी उपलब्ध है। कृपया तीनों जगह में से कहीं भी पढ़ें और मुमकिन हो तो अन्य लोगों को भी पढ़ाएं... यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों ने जिस तरह मुस्लिम राजनीति को हाशिए पर खड़ा कर दिया है, उसने कई सवालों को जन्म दिया है। इन सवालों पर गंभीरता से विचार के बाद संबंधित स्टेकहोल्डर्स को तुरंत एक्टिव मोड में आना होगा, अन्यथा अगर इलाज न किया गया तो उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए मुस्लिम राजनीति पर चंद बातें करना जरूरी हो गया है। एक लंबे वक्त से लोकसभा, राज्यसभा और तमाम राज्यों की विधानसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व लगातार गिरता जा रहा है। तमाम राष्ट्रीय और रीजनल पार्टियों में फैले बहुसंख्यक नेतृत्वकर्ताओं ने आजम खान, शाहनवाज खान तो पैदा किए और ओवैसी जैसों को पैदा कराया लेकिन एक साजिश के तहत कानून बनाने वाली संस्थाओं में मुस्लिम प्रतिनिधि

आजतक बहुत घटिया चैनल है...क्या सचमुच

यह कैसे तय होगा कि कौन सा न्यूज चैनल सबसे अच्छा है और फलां सबसे खराब...यह कैसे तय होगा कि कौन से खबरिया चैनल का पत्रकार सबसे अच्छा है और फलां सबसे खराब...क्या किसी खबरिया चैनल को घटिया कह देने से आप मेरी बात मान लेंगे... केंद्रीय मानव संसाधन (एचआरडी) मंत्री स्मृति इरानी को लेकर आजतक चैनल ने इसी सोमवार को एक शो दिखाया जिसका शीर्षक था – स्मृति की परीक्षा। इस शो में रिपोर्टर के सवाल औऱ बीजेपी समर्थकों द्वारा रिपोर्टर के खिलाफ नारेबाजी ने इस बहस को फिर जन्म दे दिया है कि क्या टीवी न्यूज के पत्रकारों को अपने गिरेबान में झांकने का वक्त आ गया है। उस शो में आजतक के रिपोर्टर अशोक सिंघल ने स्मृति से ऐसा सवाल पूछा जो महिलाओं की गरिमा के खिलाफ था औऱ सीधे-सीधे स्मृति के चरित्र पर चोट करता था। उनका सवाल था – नरेंद्र मोदी ने सबसे कम उम्र की मंत्री बनाया आपको, एचआरडी जैसा बड़ा पोर्टफोलियो दिया और डिग्री का भी विवाद है, आप ग्रैजुएट हैं या अंडर ग्रैजुएट...लेकिन क्या खूबी लगी आपमें...क्या वजह थी... बात इससे पहले आगे बढ़ाई जाए, उससे पहले साफ कर दूं कि मैं किसी पार्टी या नेता विशेष का समर्थक नही

सलीम की दाढ़ी का एक पक्ष यह भी है...

मध्य प्रदेश के एक ईसाई स्कूल में पढ़ने वाले मुस्लिम छात्र की दाढ़ी पर मेनस्ट्रीम मीडिया में भी बहस शुरू हो चुकी है। हिंदी वाणी ब्लॉग पर इस मुद्दे को सबसे पहले अलीका द्वारा लिखे गए एक लेख के माध्यम से सबसे पहले उठाया गया था। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमें कोर्ट ने ईसाई स्कूल के फैसले से सहमति जताई है। पूरा संदर्भ समझने के लिए पहले नीचे का लेख पढ़ें और फिर प्रदीप कुमार के इस लेख पर आएं। प्रदीप कुमार नवभारत टाइम्स में कोआर्डिनेटर एडीटर थे और हाल ही में रिटायर हुए हैं लेकिन विभिन्न विषयों पर उनके लिखने का सिलसिला जारी है। उनका यह लेख सलीम की दाढ़ी के मुद्दे को नए ढंग से देख रहा है। अपने नजरिए को दरकिनार करते हुए पेश है प्रदीप कुमार का लेख, जिसे नवभारत टाइम्स से साभार सहित लिया गया है। - यूसुफ किरमानी आखिर दाढ़ी क्यों रखना चाहता है सलीम -प्रदीप कुमार भोपाल के निर्मला कान्वंट हायर सेकंडरी स्कूल के एक छात्र मोहम्मद सलीम की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी और उस पर बड़ी बेंच का प्रस्तावित फैसला संवैधानिक एवं सांप्रदायिक संबंधों के इतिहास में लंबे समय तक

मुल्ला जी की दाढ़ी पर सवाल

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-अलीका मध्य प्रदेश के एक मुस्लिम स्टूडेंट को उसकी दाढ़ी कटाने का आदेश देकर एक स्कूल ने फिर से इस बहस को जन्म दे दिया कि आखिर इस देश में किसी अल्पसंख्यक के मूलभूत अधिकार की व्याख्या क्या फिर से करनी चाहिएय़ क्योंकि इस मामले में जिस तरह हाई कोर्ट ने भी स्कूल का साथ दिया है, उससे इस तरह के सवाल तो खड़े ही किए जाएंगे। पहले जानिए कि पूरा मामला क्या है। मध्य प्रदेश में विदिशा जिले के निर्मला कॉन्वेंट हायर सेकेंडरी स्कूल स्कूल में 10 वीं कक्षा के छात्र मोहम्मद सलीम ने धार्मिक कारणों से दाढ़ी रखी और जब वह स्कूल में आया तो स्कूल की ईसाई प्रिंसिपल ने उसे नोटिस जारी करते हुए कहा कि या तो वह अपनी दाढ़ी कटाकर स्कूल में आए या फिर इस स्कूल से अपना नाम कटाकर कहीं और चला जाए। इस नोटिस का छात्र पर गहरा असर हुआ। उसने अदालत की शरण ली। हाई कोर्ट तक मामला पहुंचने के बाद हाई कोर्ट ने भी स्कूल का ही साथ दिया औऱ कहा कि अल्पसंख्यकों को अपने स्कूल के नियम खुद बनाने का अधिकार है। इसलिए इस बारे में कोर्ट उस स्कूल को कोई नोटिस जारी नहीं कर सकता। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया है और 30 मार्च को इस मामले की अगली

अम्मा तेरा मुंडा बिगड़ा जाए

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देश को कुनबा परस्तों की राजनीति से कब छुटकारा मिलेगा, यह तो नहीं मालूम लेकिन राजनीति में आई नई पौध से उनसे एक पीढ़ी पीछे मुझ जैसों को ही नहीं देश को भी उम्मीदें थीं लेकिन अब तो सभी लोगों का मोहभंग हो रहा है। कल तक हम लोग इस बात का रोना रोते थे कि भारत को नेहरू-गांधी (इंदिरा गांधी) परिवार के राज से कब मुक्ति मिलेगी। लेकिन इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी...राहुल गांधी के नाम लेकर दिन रात कोसने वालों ने जब देखा कि यही हाल बीजेपी में है और यही हाल समाजवादी पार्टी से लेकर शिव सेना, शरद पवार की राष्ट्रवादी पार्टी में है तो लोगों ने मुंह बंद कर लिए। एक तरह से लोगों ने धीरे-धीरे कुनबापरस्ती की राजनीति को स्वीकार करना शुरू कर दिया। लेकिन तमाम बड़े नेताओं के लाडलों ने राजनीति में अब तक कोई बहुत अच्छी मिसाल कायम करने की कोशिश नहीं की। गांधी खानदान के दो लाडलों -राहुल गांधी और वरूण गांधी को लेकर पीआर-गीरी करने वाले पत्रकारों ने तरह-तरह से प्रोजेक्ट करने की कोशिश की। राहुल को कभी यूथ ऑइकन बताया गया, कभी बताया गया कि वह ग्रामीण भारत के लिए कुछ करना चाहते हैं और इसी सिलसिले में पिछले दिनों उनक