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चुप्पियों के दिन

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   लिखता हूँ, फिर जल्दी से मिटा देता हूँ  डर है, उनकी भावनाएँ आहत होने का। देखते हैं चुप्पियों के दिन कैसे कटते हैं? लेकिन चुप्पियों की पीड़ा असह्य है।  निन्दक निकट रखने के पुराने दिन गए चापलूस निन्दकों की जयजयकार है। बहुसंख्यक आहत भावनाओं के राष्ट्र में  अल्पसंख्यक चाहतों को स्थान कहाँ है? -यूसुफ किरमानी  दरअसल मेरी ये चंद लाइनें केदारनाथ सिंह की उन लाइनों को समर्पित हैं। 👆👆👆

आज़म खान के भरोसे मुसलमान !!!

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आज़म खान आज (20 मई 2022) जेल से छूट गए हैं। मुसलमान ख़ुशियाँ मना रहा है, यह जाने बिना की #आज़म_खान का अगला राजनीतिक कदम क्या होगा? देश नफरत की आग में जल रहा है। मुसलमान तय नहीं कर पा रहा है कि उसे क्या करना चाहिए। ऐसे में किसी आज़म खान में उम्मीद तलाशना खुद को धोखा देना है। हालाँकि आज़म खान से पूरी हमदर्दी है। किसी पर 89 केस बना दिए जाएँ तो उसके महत्व को समझा जा सकता है।  बाबरी मस्जिद आंदोलन के दौरान सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव की हरकतों, बयानों को भुलाया नहीं जा सकता। आज़म खान उस वक्त मुलायम के साथ थे। उस वक्त आज़म का क्या फ़र्ज़ बनता था? इसका इतिहास लिखा जाएगा। अयोध्या आंदोलन को चरम पर ले जाने के दाग से ये दोनों भी बच नहीं पाएंगे। जेल से बाहर आने के बाद अब ज़रा आज़म के बयानों पर नज़र रखने की ज़रूरत है। मुद्दा ये है कि हर नेता की दुकान है। वो धर्म, जाति, नफ़रत के कारोबार से मुसलमान हिन्दू दोनों को बेवकूफ बना रहा है। जिस देश में महंगाई, बेरोज़गारी चरम पर हो, इस देश के राजनीतिक दलों के लिए बड़ा जन आंदोलन खड़ा करने की तमन्ना ही न हो तो उस देश की जनता को किसी नेता विशेष से कोई उम्मी...

अभी बैराग लेकर क्या करेंगे......पौराणिक पृष्ठभूमि पर हिन्दी ग़ज़ल

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 पौराणिक पृष्ठभूमि पर ग़ज़ल  पौराणिक पृष्ठभूमि पर कविता, ग़ज़ल, नज़्म लिखना आसान नहीं होता। और उर्दू पृष्ठभूमि का कोई रचनाकार अगर हिन्दू पौराणिक कहानियों को अपनी ग़ज़ल के साँचे में ढालता है तो ऐसी कविता या ग़ज़ल और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हिन्दी कविता जगत तमाम खेमेबंदियों में उलझा हुआ है। उसे यह देखने, समेटने की फ़ुरसत ही नहीं है कि कवियों, ग़ज़लकारों की जो नई पीढ़ी आ रही है, उसके लेखन को कैसे तरतीब दी जाए या बढ़ाया जाए। हिन्दी की नामी गिरामी पत्रिकाएँ भी सही भूमिका नहीं निभा पा रही हैं।  फहमीना अली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की शोध छात्रा हैं। उनकी ग़ज़ल और कविताओं का आधार अक्सर हिन्दू पौराणिक कहानियाँ होती हैं। यह ग़ज़ल - अभी बैराग लेकर क्या करेंगे - फहमीना अली की ताज़ा रचना है। हिन्दीवाणी पर इसका प्रकाशन इस मक़सद से किया जा रहा है कि हिन्दी वालों को मुस्लिम पौराणिक कहानियों पर कविता, ग़ज़ल लिखने की प्रेरणा मिलेगी। उर्दू स्कॉलर होने के बावजूद फहमीना अली ने हिन्दू पौराणिक कथाओं को अपने साहित्य का हिस्सा बनाने की जो कोशिश की है, उसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस ग़ज...

हम क्यों उनको याद करें!

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आम्बेडकर को क्या करोगे याद करके देश आम्बेडकर के संविधान से नहीं, गोलवरकर की किताब से चलेगा गौर से चेहरे और नामों को पढ़िए  जो तलवारें लहरा रहे हैं उन्मादी नारे लगा रहे हैं। उसने अपने अनुयायियों को बौद्ध बनाया पर, वो न बौद्ध हो सके और न इंसान वो सब के सब बन गए हैं हिन्दू-स्तान। हिन्दू होना ज़रा भी बुरा नहीं है गोलवरकर बन जाना ख़तरनाक है सावरकर से गोडसे तक नाम ही नाम हैं हेडगेवार से पहले भी तो हिन्दू थे उनके हाथों में भगवा नहीं, तिरंगा था वे चंद्रशेखर आज़ाद थे, वे बिस्मिल थे वे हिन्दू थे, लेकिन भगवाधारी हिन्दू नहीं थे वे भगत सिंह थे, वे सुखदेव थे वे किसी सिख संगत के मेंबर नहीं थे। आम्बेडकर ने मनुस्मृति को कुचला मनुस्मृति कुचलने से हिन्दुत्व ख़त्म नहीं हुआ वो मनुस्मृति का नया संस्करण ले आए संविधान ही मनुस्मृति में बदल रहा है।  लेकिन अब्दुल को क्यों फ़र्क़ पड़े इन बातों से उसे तो पंक्चर ही लगाना है उसे दंगाई कहलाना है और घर पर बुलडोज़र बुलवाना है। बाबा के संविधान ने अब्दुल को क्या दिया हाँ, यूएपीए दिया, टाडा दिया, एनआईए दिया अब्दुल को उलझाने के अनगिनत हथियार दिए कथित धर्मनिरपेक्ष ...

राहुल गांधी का “हिन्दू” मोदी के “हिन्दुत्व” को नहीं हरा सकता

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जनता को आडंबर पसंद है, मोदी की छवि उसे मोहक लगती है... तमाम प्रश्न अनुत्तरित हैं। यक्ष प्रश्न पूछने वाले नदारद हैं। नेपथ्य से आने वाली आवाज़ें खामोश हैं। कुछ जोकर हिन्दुत्व नाम की रस्सी को अपनी-अपनी तरफ़ खींचने में ज़ोर लगा रहे हैं। जनता धर्म की अफ़ीम चाटकर सारे कौतुक को निर्लज्जता से देख रही है। यह कम शब्दों में भारत के मौजूदा हालत की तस्वीर है।  राहुल गांधी भारत के प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस के ज़िम्मेदार नेता हैं। उनकी पार्टी जयपुर में महंगाई विरोधी रैली करती है। रैली से बढ़ती महंगाई का सरोकार ग़ायब है। राहुल धर्म का मुद्दा छेड़ते हैं। पेट की आग से धर्म बड़ा हो जाता है।  राहुल महंगाई विरोधी रैली में हिन्दू और हिन्दुत्व का फ़र्क़ समझाते हैं। वो गोडसे के हिन्दुत्व को विलेन बनाने की कोशिश करते हैं। राहुल गांधी के भाषण में कुछ भी नया नहीं था। वो पहले भी यही बातें कह चुके हैं। आरएसएस पर हमला कर चुके हैं। लेकिन दो दिन बाद उन्हें हिन्दुत्व के उन पैरोकारों की तरफ़ से जवाब मिलता है जो राहुल के मुताबिक़ गोडसे परंपरा के वाहक हैं। राहुल गांधी के सलाहकार कौन हैं, मुझे नहीं पता। उन्हें ...

वर्क फ्रॉम होम के प्रस्तावित कानून में क्या होगा

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 Work from Home क़ानून में किसके मन की बात होगी ? -यूसुफ किरमानी तमाम कंपनियों में घर से काम (वर्क फ्रॉम होम  Work from Home ) करने का  सिलसिला  बढ़ने के बाद भारत सरकार अब इसके मद्देनजर कायदे-कानून बना रही है। इन नियमों के लागू होने के बाद कंपनी मालिकों पर अपने कर्मचारियों या स्टाफ की क्या जिम्मेदारियां होंगी, उसे कानून के जरिए परिभाषित कर दिया जाएगा।  अभी कोई नहीं जानता कि केंद्र सरकार की कानूनी परिभाषा का दायरा क्या होगा। वर्क फ्रॉम होम में स्टेकहोल्डर स्पष्ट तौर पर तो दो ही हैं  –  कंपनी और कर्मचारी। लेकिन कुछ और भी स्टेकहोल्डर हैं जो अप्रत्यक्ष हैं। जैसे कर्मचारी का परिवार। वर्क फ्रॉम होम की परिभाषा के दायरे में कर्मचारी का परिवार होगा या नहीं, इस पर श्रम मंत्रालय की कोई राय अभी तक सामने नहीं आई है। सरकार ने  तमाम मजदूर संगठन से भी इस संबंध में किसी तरह की सलाह नहीं मांगी है। कम से कम उसे सरकार समर्थित भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) से ही पूछ लेना चाहिए था। घर से काम ( Remotely Working ) पर  प्रस्तावित केंद्रीय  कानून  एक  नए मॉ...