अब पछताने से फायदा क्या...
भारतीय राजनीति का ग्रैंड तमाशा शुरू होने में कुछ घंटे बाकी हैं। बेशक आपने वोट डाला है या डालने जा रहे होंगे लेकिन आपको हक नहीं है कि आप तय करें कि किसकी सरकार केंद्र में बननी चाहिए। इसे तय करेंगे भारतीय राजनीति के कुछ उभरते तो कुछ खतरनाक किस्म की राजनीति करने वाले नेता। बस 13 मई को आखिरी दौर का मतदान और बाकी है। यानी शाम को या रात को जब टीवी पर किसी न्यूज चैनल को देख रहे होंगे तो इसकी आहट महसूस कर सकेंगे। हालांकि तमाशा कई दिन से शुरू हो चुका है लेकिन अब वह क्लाइमैक्स पर पहुंचने वाला है। इस बार टीवी चैनलों के जरिए माइंड गेम भी खेला जा रहा है।
चुनाव की घोषणा के फौरन बाद भारतीय मीडिया ने यह पहले दिन ही लोगों को बता दिया था कि इस बार किसी का भी भाग्य जग सकता है। भारत उदय हो या न हो नेता उदय जरूर हो जाएगा। चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा और बयानबाजी शुरू हुई तो यह माइंड गेम में बदल गई। कुछ नेता तो बयान ही इसलिए दे रहे थे कि देखते हैं सामने वाले पर क्या असर रहता है। माइंड गेम खेलने में कांग्रेस सबसे आगे रही और बीजेपी दूसरे नंबर पर।
आतंकवाद को बीजेपी मुद्दा न बना सके, कांग्रेस ने कंधार कांड को सबसे ज्यादा उछाला और बीजेपी बचाव की मुद्रा में नजर आई। उम्मीद तो यह थी कि सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाली जिस बीजेपी का मुद्दा आतंकवाद होना चाहिए था वह उससे पीछे हटती नजर आई। मंदिर की बात तो दूर बीजेपी ने देश में हुई आतंकवादी घटनाओं तक का जिक्र भूल गई। मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। बीजेपी ने ब्लैकमनी का मुद्दा उछालकर गांधी खानदान को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन पब्लिक में वह मुद्दा चला नहीं और देश के जो उद्योग घराने बीजेपी को चंदा देते हैं, उन्हें उसका उल्लेख पसंद नहीं आया। कई बिजनेस फोरम की मीटिंग में ये बाते कई बड़े उद्योगपतियों ने खुलकर कहीं और यह तक चुटकी ली कि फिर तो हर पार्टी के नेता की संपत्ति की जांच होनी चाहिए कि वह पहले क्या थी और बाद में क्या हुई। बहरहाल, इस मुद्दे पर हम सब को नजर रखनी है कि और ठीक एक महीने बाद हम लोग केंद्र की चुनी हुई सरकार से इस बारे में पूछेंगे कि वह क्या करने जा रही है।
यह तो हुई मुद्दे के माइंड गेमं की बात लेकिन कांग्रेस को इस बार साफ लगा कि बाजी उसके हाथ से फिसलने जा रही है तो उसने एक ऐसा तीर मारा जो एनडीए गठबंधन को लगा और बेचारे नीतीश कुमार को लंबी-चौड़ी सफाई देनी पड़ी। कांग्रेस के कई नेताओं से नीतिश की तारीफ कराकर कहलवाया गया कि नीतिश यूपीए में आ सकते हैं। नीतिश को सफाई देने के लिए एनडीए की लुधियाना रैली में आना पड़ा और विवादास्पद नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाना पड़ा। बस फिर क्या था, अब लालू प्रसाद यादव व राम विलास पासवान ने घेर लिया और नीतिश पूरे बिहार में मुसलमानों को समझा रहे हैं कि मोदी से उन्होंने हाथ तो शिष्टाचारवश मिलाया था लेकिन मुसलमानों के गले यह बात नहीं उतर रही। क्योंकि उसी नीतिश को उन्होंने मंच से कहते सुना था कि वह मोदी को बिहार में घुसने नहीं देंगे। अब उससे गलबहियां धोखा नहीं तो और क्या है। इस सारे प्रकरण में अगर किसी की भूमिका बहुत स्पष्ट रही है तो वह वामपंथी दल हैं।
जिन्होंने पहले दिन ही कह दिया कि या तो सरकार तीसरा मोर्चा बनाएगा या फिर उनकी मदद से कोई सेकुलर पार्टी। जाहिर है कि उनका इशारा कांग्रेस की तरफ है। लेकिन इस बार उनका समर्थन पाने के लिए कांग्रेस को थोड़ी मेहनत और कड़ी शर्तें माननी होंगी। ...तो अगर आपको पछतावा है कि वोट देकर मैंने ये क्या किया तो मित्रों भूल जाइए कि आप भविष्य में भी ऐसा कुछ तय कर पाएंगे। यह तल्ख सच्चाई है कि आपने और हम सभी ने वोट देते समय पहले यह देखा है कि प्रत्याशी किस जाति का है, उसका धर्म क्या है। भारत निर्माण और इंडिया शाइनिंग सब ढकोसला है। जब तक क्षेत्रीय पार्टियों का नासूर खत्म नहीं होता, यही सब चलता रहेगा। मिडिल क्लास स्वार्थी हो चला है, लेकिन उसको संरक्षण देने वाली दो पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी में इतना बूता नहीं है कि वे अपने दम पर सरकार बना सकें। इसीलिए जातिवाद और धर्म को हर चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियां भुनाएंगी।
चुनाव की घोषणा के फौरन बाद भारतीय मीडिया ने यह पहले दिन ही लोगों को बता दिया था कि इस बार किसी का भी भाग्य जग सकता है। भारत उदय हो या न हो नेता उदय जरूर हो जाएगा। चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा और बयानबाजी शुरू हुई तो यह माइंड गेम में बदल गई। कुछ नेता तो बयान ही इसलिए दे रहे थे कि देखते हैं सामने वाले पर क्या असर रहता है। माइंड गेम खेलने में कांग्रेस सबसे आगे रही और बीजेपी दूसरे नंबर पर।
आतंकवाद को बीजेपी मुद्दा न बना सके, कांग्रेस ने कंधार कांड को सबसे ज्यादा उछाला और बीजेपी बचाव की मुद्रा में नजर आई। उम्मीद तो यह थी कि सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाली जिस बीजेपी का मुद्दा आतंकवाद होना चाहिए था वह उससे पीछे हटती नजर आई। मंदिर की बात तो दूर बीजेपी ने देश में हुई आतंकवादी घटनाओं तक का जिक्र भूल गई। मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। बीजेपी ने ब्लैकमनी का मुद्दा उछालकर गांधी खानदान को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन पब्लिक में वह मुद्दा चला नहीं और देश के जो उद्योग घराने बीजेपी को चंदा देते हैं, उन्हें उसका उल्लेख पसंद नहीं आया। कई बिजनेस फोरम की मीटिंग में ये बाते कई बड़े उद्योगपतियों ने खुलकर कहीं और यह तक चुटकी ली कि फिर तो हर पार्टी के नेता की संपत्ति की जांच होनी चाहिए कि वह पहले क्या थी और बाद में क्या हुई। बहरहाल, इस मुद्दे पर हम सब को नजर रखनी है कि और ठीक एक महीने बाद हम लोग केंद्र की चुनी हुई सरकार से इस बारे में पूछेंगे कि वह क्या करने जा रही है।
यह तो हुई मुद्दे के माइंड गेमं की बात लेकिन कांग्रेस को इस बार साफ लगा कि बाजी उसके हाथ से फिसलने जा रही है तो उसने एक ऐसा तीर मारा जो एनडीए गठबंधन को लगा और बेचारे नीतीश कुमार को लंबी-चौड़ी सफाई देनी पड़ी। कांग्रेस के कई नेताओं से नीतिश की तारीफ कराकर कहलवाया गया कि नीतिश यूपीए में आ सकते हैं। नीतिश को सफाई देने के लिए एनडीए की लुधियाना रैली में आना पड़ा और विवादास्पद नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाना पड़ा। बस फिर क्या था, अब लालू प्रसाद यादव व राम विलास पासवान ने घेर लिया और नीतिश पूरे बिहार में मुसलमानों को समझा रहे हैं कि मोदी से उन्होंने हाथ तो शिष्टाचारवश मिलाया था लेकिन मुसलमानों के गले यह बात नहीं उतर रही। क्योंकि उसी नीतिश को उन्होंने मंच से कहते सुना था कि वह मोदी को बिहार में घुसने नहीं देंगे। अब उससे गलबहियां धोखा नहीं तो और क्या है। इस सारे प्रकरण में अगर किसी की भूमिका बहुत स्पष्ट रही है तो वह वामपंथी दल हैं।
जिन्होंने पहले दिन ही कह दिया कि या तो सरकार तीसरा मोर्चा बनाएगा या फिर उनकी मदद से कोई सेकुलर पार्टी। जाहिर है कि उनका इशारा कांग्रेस की तरफ है। लेकिन इस बार उनका समर्थन पाने के लिए कांग्रेस को थोड़ी मेहनत और कड़ी शर्तें माननी होंगी। ...तो अगर आपको पछतावा है कि वोट देकर मैंने ये क्या किया तो मित्रों भूल जाइए कि आप भविष्य में भी ऐसा कुछ तय कर पाएंगे। यह तल्ख सच्चाई है कि आपने और हम सभी ने वोट देते समय पहले यह देखा है कि प्रत्याशी किस जाति का है, उसका धर्म क्या है। भारत निर्माण और इंडिया शाइनिंग सब ढकोसला है। जब तक क्षेत्रीय पार्टियों का नासूर खत्म नहीं होता, यही सब चलता रहेगा। मिडिल क्लास स्वार्थी हो चला है, लेकिन उसको संरक्षण देने वाली दो पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी में इतना बूता नहीं है कि वे अपने दम पर सरकार बना सकें। इसीलिए जातिवाद और धर्म को हर चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियां भुनाएंगी।
टिप्पणियाँ
chalo ek baar phir se
ajnabi ban jaayen voter-neta