जसवंत और रश्दी की किताब का फर्क
मोहम्मद अली जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब का बीजेपी पर इतना असर होगा, यह खुद जसवंत सिंह को नहीं मालूम था। बीजेपी के इस फैसले से यह तो साफ हो ही गया है कि बीजेपी में किसी तरह का आंतरिक लोकतंत्र (internal democracy) नहीं है। वरना जिस तथ्य को जसवंत ने अपनी किताब में कलमबंद किया, उन बातों को बतौर बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी कई साल पहले कह चुके थे। फिर अब क्या हुआ।
जाने-माने पत्रकार वीर संघवी ने आज हिंदुस्तान टाइम्स में इस विषय पर काफी विस्तार से लिखा है। यहां मैं अपनी बात न रखकर उनके हवाले से कुछ तथ्य रखना चाहता हूं। वीर संघवी ने लिखा है कि जसवंत सिंह ने जिन्ना से जुड़े चैप्टर आडवाणी के पास बहुत पहले देखने के लिए भेजे थे। आडवाणी ने उसे पढ़ा था और उस पर मुहर लगा दी थी। आडवाणी और पूरी बीजेपी को मालूम था कि जसवंत सिंह की किताब भारत-पाकिस्तान बंटवारे जैसे मुद्दे पर आ रही है। ऐसा नहीं है कि यह किताब अचानक आई और बीजेपी नेता हतप्रभ रह गए। शिमला में चल रही चिंतन बैठक से पहले जसवंत ने आडवाणी से पूछा भी था कि क्या वे शिमला बैठक (BJP Shimla Meet ) में शामिल हों या फिर किनारा कर जाएं। आडवाणी ने उन्हें शिमला न आने की सलाह दी लेकिन अगले दिन अखबारों में उन्हें बीजेपी से निकाले जाने की खबरें थीं। संघवी ने लिखा है कि खुद बीजेपी के कई बड़े नेताओं को इस तरह के फैसले की उम्मीद नहीं थी। यानी संघवी का विश्लेषण यह कहता है कि बीजेपी के चंद नेताओं ने शायद आरएसएस के निर्देश पर यह कदम उठाया। मतलब यह हुआ कि यह कदम या तो RSS के इशारे पर उठाया गया या फिर बीजेपी के कुछ नेताओं का अपना फैसला है, जिसमें आडवाणी की रजामंदी भी शामिल है।
1. बीजेपी की कार्रवाई के साथ-साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किताब पर प्रतिबंध लगाने का आदेश भी साथ-साथ आया। मतलब यह कि दोनों ही फैसले महज गुजरात के मद्देनजर लिए गए। मोदी गुजरात को आरएसएस की प्रयोगशाला बता ही चुके हैं। साफ है कि वल्लभ भाई पटेल के मुद्दे पर गुजरातियों को खुश करने के लिए जसवंत को पार्टी से निकाला गया और किताब पर बैन लगा दिया गया। जिन्ना पर यह कोई पहली किताब नहीं है। इससे पहले भी उनके व्यक्तित्व को शानदार तरीके से बयान करने वाली और गलत तरह से पेश करने वाली ढेर सारी किताबें आ चुकीं है। लेकिन उन पर तो आज तक बैन नहीं लगाया गया। ऐसा क्यों होता है कि अंग्रेजों की संस्कृति में पला-बढ़ा विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी (Salman Rushdie) जब सैटनिक वर्सेज (Satanic Verses) जैसी किताब लिखता है और भारत में उस पर बैन लगाया जाता है तो बीजेपी उसका विरोध करती नजर आती है लेकिन महज एक राज्य के लोगों को खुश करने के लिए किसी किताब पर बैन लगा दिया जाता है तो वह चुप रहती है। हालांकि उस किताब पर बैन लगाना भी गलत फैसला था। सैटनिक वर्सेज ने मुसलमानों की एक बड़ी आबादी की आस्था पर चोट की थी। लेकिन बीजेपी और संघ परिवार तभी बोलते हैं जब उनकी आस्था पर कोई चोट करता है, औरों की आस्था भाड़ में जाए।
मेरा मानना है कि जरूर संघ की दीक्षा और बीजेपी की ट्रेनिंग में कहीं कोई खोट है, जब वहां लोग एक लंबा समय बिताने के बाद वह कर बैठते हैं जो उन्हें अपनी पार्टी और संगठन के हिसाब से नहीं करना चाहिए। आडवाणी उन दिनों बीजेपी अध्यक्ष थे, पाकिस्तान गए तो वहां इतने अभिभूत हुए कि जिन्ना को महान बता बैठे। संघ बुरी तरह विफर गया। भारत लौटे, खूब लानतें भेजी गईं। पद से नहीं हटाए गए। इस्तीफा देने का नाटक किया। लेकिन बने रहे। कुछ दिन बाद पार्टी ने उठाकर किनारे लगा दिया। प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग वेट करते रहे।
जसवंत ने लंबे समय तक खाकी निकर पहना और आनंद मठ का गीत गाते रहे। लेकिन अपना बुढ़ापा सुधारने को उन्होंने एक किताब लिख दी और अब तक की गलतियों पर पछतावा किया। यानी इतने दिन संघ का जो चोला उन्होंने पहना, वह सब दिखावा था। उस चोले को उन्होंने एक झटके में तार-तार कर दिया। इसी तरह वे कई ऐसे चेहरों को लाए जिन्होंने समय रहते वहां से नमस्ते करना ठीक समझा।
मैं यह नहीं कह रहा कि बीजेपी के मुकाबले बाकी पार्टियां या कोई एक खास पार्टी बहुत अच्छी है लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वह कुछ इस तरह की भूमिका निभाएगी जैसे अमेरिका, इंग्लैंड या अन्य लोकतांत्रिक देशों की पार्टियां अपना रोल निभाती हैं। अब देखना है कि शिमला की ठंडी वादियों में चिंतन के बाद बीजेपी की चिंता कहां तक और किस हद तक पहुंचती है और संघ परिवार उसे दरअसल कितनी आजादी देता है।
जाने-माने पत्रकार वीर संघवी ने आज हिंदुस्तान टाइम्स में इस विषय पर काफी विस्तार से लिखा है। यहां मैं अपनी बात न रखकर उनके हवाले से कुछ तथ्य रखना चाहता हूं। वीर संघवी ने लिखा है कि जसवंत सिंह ने जिन्ना से जुड़े चैप्टर आडवाणी के पास बहुत पहले देखने के लिए भेजे थे। आडवाणी ने उसे पढ़ा था और उस पर मुहर लगा दी थी। आडवाणी और पूरी बीजेपी को मालूम था कि जसवंत सिंह की किताब भारत-पाकिस्तान बंटवारे जैसे मुद्दे पर आ रही है। ऐसा नहीं है कि यह किताब अचानक आई और बीजेपी नेता हतप्रभ रह गए। शिमला में चल रही चिंतन बैठक से पहले जसवंत ने आडवाणी से पूछा भी था कि क्या वे शिमला बैठक (BJP Shimla Meet ) में शामिल हों या फिर किनारा कर जाएं। आडवाणी ने उन्हें शिमला न आने की सलाह दी लेकिन अगले दिन अखबारों में उन्हें बीजेपी से निकाले जाने की खबरें थीं। संघवी ने लिखा है कि खुद बीजेपी के कई बड़े नेताओं को इस तरह के फैसले की उम्मीद नहीं थी। यानी संघवी का विश्लेषण यह कहता है कि बीजेपी के चंद नेताओं ने शायद आरएसएस के निर्देश पर यह कदम उठाया। मतलब यह हुआ कि यह कदम या तो RSS के इशारे पर उठाया गया या फिर बीजेपी के कुछ नेताओं का अपना फैसला है, जिसमें आडवाणी की रजामंदी भी शामिल है।
1. बीजेपी की कार्रवाई के साथ-साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किताब पर प्रतिबंध लगाने का आदेश भी साथ-साथ आया। मतलब यह कि दोनों ही फैसले महज गुजरात के मद्देनजर लिए गए। मोदी गुजरात को आरएसएस की प्रयोगशाला बता ही चुके हैं। साफ है कि वल्लभ भाई पटेल के मुद्दे पर गुजरातियों को खुश करने के लिए जसवंत को पार्टी से निकाला गया और किताब पर बैन लगा दिया गया। जिन्ना पर यह कोई पहली किताब नहीं है। इससे पहले भी उनके व्यक्तित्व को शानदार तरीके से बयान करने वाली और गलत तरह से पेश करने वाली ढेर सारी किताबें आ चुकीं है। लेकिन उन पर तो आज तक बैन नहीं लगाया गया। ऐसा क्यों होता है कि अंग्रेजों की संस्कृति में पला-बढ़ा विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी (Salman Rushdie) जब सैटनिक वर्सेज (Satanic Verses) जैसी किताब लिखता है और भारत में उस पर बैन लगाया जाता है तो बीजेपी उसका विरोध करती नजर आती है लेकिन महज एक राज्य के लोगों को खुश करने के लिए किसी किताब पर बैन लगा दिया जाता है तो वह चुप रहती है। हालांकि उस किताब पर बैन लगाना भी गलत फैसला था। सैटनिक वर्सेज ने मुसलमानों की एक बड़ी आबादी की आस्था पर चोट की थी। लेकिन बीजेपी और संघ परिवार तभी बोलते हैं जब उनकी आस्था पर कोई चोट करता है, औरों की आस्था भाड़ में जाए।
मेरा मानना है कि जरूर संघ की दीक्षा और बीजेपी की ट्रेनिंग में कहीं कोई खोट है, जब वहां लोग एक लंबा समय बिताने के बाद वह कर बैठते हैं जो उन्हें अपनी पार्टी और संगठन के हिसाब से नहीं करना चाहिए। आडवाणी उन दिनों बीजेपी अध्यक्ष थे, पाकिस्तान गए तो वहां इतने अभिभूत हुए कि जिन्ना को महान बता बैठे। संघ बुरी तरह विफर गया। भारत लौटे, खूब लानतें भेजी गईं। पद से नहीं हटाए गए। इस्तीफा देने का नाटक किया। लेकिन बने रहे। कुछ दिन बाद पार्टी ने उठाकर किनारे लगा दिया। प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग वेट करते रहे।
जसवंत ने लंबे समय तक खाकी निकर पहना और आनंद मठ का गीत गाते रहे। लेकिन अपना बुढ़ापा सुधारने को उन्होंने एक किताब लिख दी और अब तक की गलतियों पर पछतावा किया। यानी इतने दिन संघ का जो चोला उन्होंने पहना, वह सब दिखावा था। उस चोले को उन्होंने एक झटके में तार-तार कर दिया। इसी तरह वे कई ऐसे चेहरों को लाए जिन्होंने समय रहते वहां से नमस्ते करना ठीक समझा।
मैं यह नहीं कह रहा कि बीजेपी के मुकाबले बाकी पार्टियां या कोई एक खास पार्टी बहुत अच्छी है लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वह कुछ इस तरह की भूमिका निभाएगी जैसे अमेरिका, इंग्लैंड या अन्य लोकतांत्रिक देशों की पार्टियां अपना रोल निभाती हैं। अब देखना है कि शिमला की ठंडी वादियों में चिंतन के बाद बीजेपी की चिंता कहां तक और किस हद तक पहुंचती है और संघ परिवार उसे दरअसल कितनी आजादी देता है।
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