किसने उठाया भगत सिंह की शहादत का फायदा...जरा याद करो कुर्बानी
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज के चेयरपर्सन प्रोफेसर चमनलाल ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जीवन और विचारों को प्रस्तुत करने में अहम भूमिका निभाई है। वह भारत की आजादी में क्रांतिकारी आंदोलन की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव से जोड़कर देखते हैं। प्रो. चमनलाल से बातचीत
जब भी स्वाधीनता आंदोलन की बात होती है, इसके नेताओं के रूप में गांधी, नेहरू और पटेल को ज्यादा याद किया जाता है। भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति श्रद्धा के बावजूद उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों?
गांधी, नेहरू आदि नेताओं का जो भी योगदान रहा हो, लेकिन भगत सिंह के आंदोलन और बाद में उनके शहीद होने से ही आजादी को लेकर लोगों में जागृति फैली। इसका फायदा कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने उठा लिया। कुछ दक्षिणपंथी संगठन भी अपने आप को आजादी के आंदोलन में शामिल बताने लगे हैं। वे खुद को पटेल से जोडऩे की कोशिश में लगे हैं।
लेकिन कुछ इतिहासकार भगत सिंह के संघर्ष को असफल करार देते हैं। वे कहते हैं कि भारत के सामाजिक- आर्थिक हालात उनके पक्ष में नहीं थे...
यह सच है कि भगत सिंह ने जब आंदोलन छेड़ा था, उस वक्त भारत के राजनीतिक हालात उनके पक्ष में नहीं थे। लेकिन आजादी की लड़ाई में वह सबसे कामयाब शख्सियतों में से एक हैं। उन्होंने जो कुछ भी किया, उसके पीछे तर्क था, सोच थी। भगत सिंह का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति नहीं था, व्यवस्था परिवर्तन था। दूसरी तरफ नेहरू, जिन्ना जैसी शख्सियतों का मकसद सत्ता प्राप्ति ही था, जो बाद में साबित भी हुआ।
भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की धारा गदर आंदोलन से निकली है। आप उसे किस रूप में देखते हैं?
1913 में अमेरिका में गदर पार्टी बनी, जिसने कई भाषाओं में गदर नाम से अपना अखबार भी निकाला। फिर 1915 में इस पार्टी ने ही भारत में सशस्त्र आंदोलन चलाया। इस आंदोलन में शामिल युवकों को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। इन्हीं में थे- युवा शहीद करतार सिंह सराभा, जिनसे भगत सिंह बहुत प्रभावित थे। सराभा ही भगत सिंह के आदर्श थे। इस आंदोलन में दक्षिण भारत तक के लोग शामिल थे। सच कहा जाए तो 1857 और 20 वीं शताब्दी में छेड़े गए क्रांतिकारी आंदोलन दरअसल परिवर्तन के आंदोलन थे और परिवर्तन के आंदोलन कभी खत्म नहीं होने वाले हंै। ये आज भी भारत में किसी न किसी रूप में जारी हंै। परिवर्तन के आंदोलन की कई धाराएं रही हैं, किसी पर वामपंथी प्रभाव रहा, किसी पर दक्षिणपंथी प्रभाव तो किसी पर धार्मिक प्रभाव। लेकिन धार्मिक आधार पर छेड़े गए आंदोलनों का क्रांतिकारी आंदोलन से दूर-दूर का रिश्ता भी नहीं था।
यानी गदर आंदोलन के प्रभाव में ही भगत सिंह के भीतर एक विश्वदृष्टि विकसित हुई और उन्होंने अपने संघर्ष को एक बड़े और दीर्घकालीन मकसद से जोड़ा...
भगत सिंह के साथ जुड़ी घटनाओं की गहराई में जाएं तो इस बारे में काफी कुछ पता चलता है। सबसे पहले लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए सांडर्स को मारने का प्लान बना। असेंबली में बम फेंकने का प्लान भी जनसामान्य के जनतांत्रिक अधिकारों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बनाया गया। भगत सिंह ने अपने मुद्दे को पूरी दुनिया के सामने इसके जरिए रखा। वह जानते थे कि उनके किसी भी एक्शन की सजा मौत है। उन्होंने लिखा भी है कि उनकी शहादत के बाद भारत में आजादी के लिए लोग और भी उतावले हो उठेंगे। वह अपने मकसद में कामयाब रहे। अदालत में दिए गए उनके बयान भारत के लिए उनकी दूरदृष्टि का नायाब नमूना हंै। वह सिर्फ भारत की आजादी नहीं चाहते थे बल्कि देश का संचालन सामाजिक आधार पर करना चाहते थे। उन्होंने रूसी क्रांति को सामने रखकर भारत के बारे में सोचा था।
आम जनता महसूस कर रही है कि उसे अब भी वास्तविक आजादी नहीं मिल सकी है। रोज-रोज सिस्टम की नई विसंगतियां सामने आ रही हैं। कहीं स्वाधीनता की लड़ाई में ही कोई बुनियादी गड़बड़ी तो नहीं थी?
हां, बुनियादी गड़बड़ी कांग्रेस की सोच में थी। उसने अंग्रेजों के जाने के बाद देश के निर्माण की जो परिकल्पना की, वह गलत थी। जिस पार्टी में गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद, जैसी महत्वपूर्ण शख्सियतें थीं, उसे उस वक्त देश के चंद धनी वर्ग कंट्रोल कर रहे थे। नेहरू की सोच समाजवादी थी लेकिन वह एक बार भी इस बात का विरोध नहीं कर सके कि गांधी जी क्यों उस समय देश के एक सबसे बड़े औद्योगिक घराने के मेहमान बनते थे। इस धनिक वर्ग की सोच यह थी कि अंग्रेजों के जाते ही सत्ता पर उसका अप्रत्यक्ष कब्जा होगा और देश के आर्थिक व राजनीतिक हालात का फायदा दरअसल वही उठाएगा। ऐसा हुआ भी और नतीजा हमारे सामने है।
साभारः नवभारत टाइम्स, 14 अगस्त 2010
Courtesy: Nav Bharat Times, 14 August 2010
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