यह चुनावी व्यवस्था भ्रष्ट है...इसे उखाड़ फेंकिये

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों पर टीका टिप्पणी की मनाही है लेकिन इधर जिस तरह से तमाम मुद्दों पर उसका रूख सामने आया है, वो कहीं न कहीं आम नागरिक को बेचैन कर रहा है।...

विपक्ष ने ईवीएम (EVM) से निकलने वाली 50 फ़ीसदी पर्चियों का वीवीपैट (VVPAT) से मिलान करने की माँग करते हुए पुनर्विचार की माँग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने अभी थोड़ी देर पहले उस माँग को ख़ारिज कर दिया। हद यह है कि सुप्रीम कोर्ट 25 फ़ीसदी पर्चियों के मिलान पर भी राज़ी नहीं हुआ...

देखने में यह आ रहा है कि चुनाव आयोग नामक संस्था ने इस पूरे चुनाव में सत्ता पक्ष के साथ बगलगीरी कर ली है। ...और सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को ठीक से निर्देशित तक नहीं कर पा रहा है। कितनी दयनीय स्थिति है देश की दो सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्थाओं की।

इससे पहले सुनाई पड़ता था कि किसी एक सीट या दो सीटों पर धाँधली पर चुनाव आयोग आँख मूँद लेता था। उसने मोदी के खिलाफ की गई हर शिकायत को नजरन्दाज करके क्लीन चिट दी। जिस बोफ़ोर्स मामले में फ़ाइनल फ़ैसला तक आ चुका हो, उसे लेकर एक मृत शख़्स को भला बुरा कहा। चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया। महान चुनाव आयुक्त स्व. टी. एन. शेषन द्वारा जिस संस्था की विश्वसनीयता बनाई गई हो, उसको इस तरह तार तार किया जाएगा, इसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी।

भारत में फ़िलहाल ऐसे जनआंदोलन का अभाव है, जिसमें सत्ता की ताक़त और धृतराष्ट्र बन चुकी संस्थाओं से टकराने का माद्दा हो। विपक्षी दल आज सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका ख़ारिज होने के बाद दुम दबाकर चले आये। यह उचित समय है ऐसे तमाम मुद्दों पर जनआंदोलन खड़ा करने का लेकिन कम्युनिस्ट अभी कॉर्ल मार्क्स का अध्ययन कर रहे हैं और गांधीवादी सोशलिस्ट संघियों की गोद में बैठे हुए हैं। इतना बुरा दौर भारतीय इतिहास में नहीं आया था।

पिछले आंदोलन की कटु यादें अभी तक ज़िंदा हैं। अन्ना संघ का एजेंट निकला और वैकल्पिक राजनीति करने आया शख़्स दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगा। सपने देखना बुरी बात नहीं थी लेकिन बिना अखिल भारतीय संगठन खड़ा किये इधर उधर राज्यों में फुदक फुदक कर चुनाव लड़ने ने सब गुड़गोबर कर दिया। 

वैकल्पिक राजनीति का लक्ष्य बिना सशक्त संगठन हासिल नहीं होता। लेकिन इन महाशय ने इसी को नजरन्दाज कर दिया। देश के लाखों बेरोज़गारों, किसानों, मज़दूरों  को एक मंच पर लाकर वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाला कोई दल या संगठन दूर दूर  तक नज़र नहीं आ रहा है।

23 मई को इस चुनाव का नतीजा आएगा। आप देखेंगे कि कितने ही राजनीतिक दल भाजपा या कांग्रेस के साथ सारे आदर्श को ताक पर रखकर खड़े नज़र आयेंगे। सत्ता के लिए येन केन प्रकारेण का खेल खेलेंगे। युद्ध और चुनाव में सब जायज़ जैसे मुहावरे बोले जायेंगे। यानी मौजूदा चुनाव का सिस्टम और उसके ज़रिए सत्ता तक पहुँचने का तरीक़ा भारत में सबसे बड़ा करप्शन है। कॉरपोरेट के पैसे से चुनाव लड़ने वाले दल चूँकि भ्रष्ट तरीक़े से पैसा लेकर सत्ता में आते हैं तो वह वही व्यवस्था बनायेंगे या निर्माण करेंगे जो उस भ्रष्टाचार को और संरक्षित करेगा। भारत में कॉरपोरेट से चंदा लेकर चुनाव लड़ने की पूरी व्यवस्था ही खुला भ्रष्टाचार है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया लेकिन इस व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का कोई आदेश अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने पारित नहीं किया है। 2014 के चुनाव में सबसे ज़्यादा चुनावी चंदा भाजपा को मिला था, उसमें भारत के सभी उद्योग घरानों के नाम थे। उसमें अंबानी और अडानी का नाम सबसे प्रमुख था। उसके बाद भाजपा सत्ता में आई। पिछले पाँच साल के केंद्र सरकार सरकार के कारनामे बताने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा नहीं कि यह करप्शन सिर्फ 2014 के चुनाव में ही हुआ था। उसके पहले हुए कुछ चुनाव भी कॉरपोरेट के पैसे से कांग्रेस लड़ती रही है। फ़र्क़ सिर्फ यह है कि पहले धीरू भाई अंबानी चंदा देते थे और अब उनके बेटे चुनावी चंदा देते हैं। पार्टियाँ बदल गई हैं लेकिन कॉरपोरेट घराने और उनके दलाल वही हैं। किसी पर फ़िल्म बना देने और उसे गुरू बता देने भर से उसके पाप नहीं धुल जाते। बेशक डायरेक्शन मणि रत्नम का रहा हो या किसी बच्चन ने उसमें उसकी भूमिका निभाई हो।
बहरहाल,  इस करप्शन या इस नासूर को ठीक करने के लिए लंबे और बड़े संघर्ष की रूपरेखा तय करने की ज़रूरत ग़ैर राजनीतिक संगठनों को है। देखना है वो कब हो पाता है। 

(अपडेट 1:30 pm : अभी खबर मिली है कि सुप्रीम कोर्ट के बाहर चीफ़ जस्टिस के खिलाफ  हो रहे प्रदर्शन को कवर करने वाले पत्रकारों को पुलिस ने धमकाकर भगाने की कोशिश की।)


कुछ बात वकीलों पर भी
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सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों में ऐसे वकीलों का क़ब्ज़ा है जो एक दिन अपने नेता के लिए कोर्ट में एड़ियाँ रगड़ता है तो अगले दिन किसी कॉरपोरेट का वकालतनामा जमाकरा कर किसी अंबानी की ज़मानत के लिए बेक़रार नज़र आता है। जज भी इन हालात से वाक़िफ़ हैं। उनका रूख भी जैसा होता है वह तटस्थता के दायरे में कम से कम नहीं होता।

मैं ऐसे तमाम वकीलों को नज़दीक से जानता हूँ जो वैसे तो तमाम बड़े छोटे पत्रकारों के दोस्त बने फिरते हैं और तमाम सार्वजनिक मंचों पर स्वतंत्र पत्रकारिता की दुहाई देते हैं लेकिन कोर्ट में जब किसी मीडिया मालिक के खिलाफ कोई केस होता है तो मीडिया मालिक की तरफ़ से खड़े हो जाते हैं। यह ठीक है कि वह उनका पेशा है लेकिन तब उन्हें स्वतंत्र पत्रकारिता की दुहाई नहीं देनी चाहिए न टीवी चैनलों पर बैठकर लफ्फाजी करनी चाहिए। 

एक लफ़्फ़ाज़ वक़ील ऐसा है कि आज तक कोई चुनाव नहीं जीत सका लेकिन डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को भी चुनौती दे देता है।...ऐसे लोगों से आप भला लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?  हालाँकि इन्हीं में प्रशांत भूषण और ऐसे असंख्य वक़ील हैं जो हमें उम्मीद भी बँधाते हैं। कुछ वकीलों के नाम सामने नहीं आते और वे बेहतरीन काम कर जाते हैं।


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