मदर आफ डेमोक्रेसी+टू मच डेमोक्रेसी=मोदीक्रेसी Mother of Democracy+Too Much Democracy=Modicracy
नीति आयोग के प्रमुख अमिताभकांत ने 8 दिसम्बर को कहा कि भारत में इतना ज्यादा लोकतंत्र (टू मच डेमोक्रेसी) है कि कोई ठीक काम हो ही नहीं सकता। इसके दो दिन बाद 10 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में नए संसद भवन का शिलान्यास करते हुए कहा कि पूरी दुनिया बहुत जल्द भारत को 'मदर आफ डेमोक्रेसी' (लोकतंत्र की जननी) कहेगी। उसके बाद मैं इन कल्पनाओं में खो गया कि आखिर दोनों महानुभावों की डेमोक्रेसी को कैसे शब्दों में अमली जामा पहनाया जाए।
अमिताभकांत उस नीति आयोग को चलाते हैं जो भारत सरकार का थिंक टैंक है। जहां योजनाएं सोची जाती हैं, फिर उन्हें लागू करने का तरीका खोजा जाता है। भारत की भावी तरक्की इसी नीति आयोग में तय होती है। नरेन्द्र मोदी भारत नामक उस देश के मुखिया हैं जो नीति आयोग को नियंत्रित करता है, और बदले में मोदी के विजन को नीति आयोग लागू करता है।
आइए जानते हैं कि दरअसल 'टू मच डेमोक्रेसी' और 'मदर आफ डेमोक्रेसी' के जरिए दोनों क्या कहना चाहते होंगे। शायद वो ये कहना चाहते होंगे कि देश की जीडीपी में भारी गिरावट के लिए टू मच डेमोक्रेसी जिम्मेदार है। मोदी भक्तों की नजर में मामूली से देश बांग्लादेश की जीडीपी भी भारत से बेहतर हो गई, उसके लिए भी हमारी टू मच डेमोक्रेसी जिम्मेदार है। नोटबंदी ब्लैकमनी वापस लाने और आतंकवाद खत्म करने के लिए हुई थी लेकिन टू मच डेमोक्रेसी की वजह से दोनों मोर्चों पर नाकामी मिली।
टू मच डेमोक्रेसी की वजह से मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक से उसका 'रिजर्व' ही छीन लिया। न जाने कितने छोटे-बड़े बैंक टू मच डेमोक्रेसी की वजह से डूब गए। महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक में लोगों का इतना पैसा डूबा कि टू मच डेमोक्रेसी की वजह से कई ग्राहकों ने खुदकुशी कर ली। इसी लोकतंत्र के चलते कई बैंकों का एक दूसरे में विलय करना पड़ा। टू मच डेमोक्रेसी की वजह से सिंडीकेट बैंक, देना बैंक, विजया बैंक समेत अनगिनत बैंक दूसरे बैंकों में विलय होकर देश के बैंकिंग सिस्टम को बचाया और डेमोक्रेसी को भी बचा लिया।
फिर टू मच डेमोक्रेसी के चलते ट्रंप 'नमस्ते' करने आया तो कोरोना ले आया। गायिका कनिका कपूर ने भाजपा नेताओं के साथ पार्टी की और एयरपोर्ट पर टू मच डेमोक्रेसी के चलते कोरोना अभिजात्य वर्ग तक पहुंच गए। निजामुद्दीन में जमाती जुटे तो कोरोना फैलाने का सेहरा उनके सिर बांधा गया लेकिन शीघ्र पता चल गया कि ये कोरोना भी टू मच डेमोक्रेसी के तहत ही फैल रहा है और कई मंत्री, विधायक, सांसद इसकी चपेट में आ गए।
टू मच डेमोक्रेसी का चरमोत्कर्ष कोरोना काल में दिखा। इतनी ज्यादा डेमोक्रेसी थी कि लॉकडाउन लगा। जनता ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। मजदूर तबका अपने घर जाने के लिए दिल्ली-एनसीआर में सड़कों पर आ गया। इसके लिए टू मच डेमोक्रेसी जिम्मेदार थी जब उनके जाने के लिए न कोई साधन था और न पेट भरने के लिए रोटी थी। टू मच डेमोक्रेसी के चलते कुछ ट्रेन की पटरियों पर कट गए। कुछ हादसों में मारे गए। जो घर पहुंचे वे बीमार पड़ गए। टू मच डेमोक्रेसी की वजह से उनके पास इलाज के पैसे तक न थे। भुखमरी इंडेक्स वाले 107 देशों में हमारा देश 94वें नम्बर पर आ गया और खुशहाली वाले देशों की सूची में हम 144वीं जगह पर टू मच डेमोक्रेसी की खुशहाली बांट रहे हैं।
टू मच डेमोक्रेसी में राष्ट्रवाद इतना सिर पर चढ़ा कि भारत माता की जगह गौ-माता ने ले ली और गौ-मौता की वजह से लिंचिंग होने लगी। और मदर आफ डेमोक्रेसी में तो इंसानों के जान की कीमत से ज्यादा बड़ी कीमत गौ-माता की हो गई। मदर आफ डेमोक्रेसी ने लिंच रिपब्लिक खड़ा कर दिया। टीवी ऐंकर इतना चिल्लाने लगे कि 'डेमोक्रेसी के फरिश्ते' शैतान नजर आने लगे और उनके मालिकान चरण वंदना में लीन होकर बिजनेसमैन और ठग गुरु का योग सीखने लगे। टू मच डेमोक्रेसी में प्रतीक चुनने की सुविधा है, जैसे सिख आंदोलनकारी खालिस्तानी है तो मुस्लिम आंदोलनकारी पाकिस्तानी है।
चलिए, टू मच डेमोक्रेसी के पुराने किस्सों यानी 2002 में गुजरात नरसंहार और अयोध्या में 1992 में बाबरी मस्जिद के गिराये जाने को याद नहीं करते हैं। लेकिन टू मच डेमोक्रेसी की वजह से जेलों में बंद कर दिए गए तेलगू कवि वरवरा राव, दलित विचारक आनंद तेल तुम्बड़े, मानवाधिकार कार्यकर्ता स्टैन स्वामी, पत्रकार गौतम नवलखा, आदिवासियों की आवाज वकील सुधा भारद्वाज, एक्टिविस्ट उमर
खालिद
और शारजील इमाम पर बात ही न हो। इतनी ज्यादा डेमोक्रेसी है कि गौतम नवलखा को पढ़ने के लिए चश्मा न दिया जाए और वरवरा राव का इलाज न कराया जाए। टू मच डेमोक्रेसी को लागू करने के लिए कश्मीर में राजनीतिक नेताओं को घरों में नजरबंद कर दिया जाए। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि टू मच डेमोक्रेसी की वजह से ही चीन हमारे इतने नजदीक आ गया कि हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया और बेरहमी से हमारे सैनिकों को मार डाला।
टू मच डेमोक्रेसी अब हरियाणा-दिल्ली सीमा पर दिख रही है। जहां हजारों किसानों को सड़कों पर खाई खोदकर, कंटीले तार लगाकर, सेना लगाकर रोक दिया गया है। किसान का अनाज पूरे देश में कहीं भी बेचा और भेजा जा सकता है लेकिन इस बहुत ज्यादा लोकतंत्र की वजह से वही किसान बॉर्डर पार नहीं कर सकते, रामलीला मैदान तक नहीं आ सकते। जंतर-मंतर तक नहीं आ सकते। उनकी आजादी टू मच डेमोक्रेसी की वजह से बॉर्डर पर कैद है।
लेकिन अगर पीएम मोदी की मदर आफ डेमोक्रेसी पर बात करें तो टू मच डेमोक्रेसी की वजह से भगत सिंह, आजाद, सुभाष का भारत अब सौतेले लोकतंत्र में बदल गया है। ये वो लोकंत्र नहीं है जो अंग्रेजों को भगाने के बाद गांधी-नेहरू ने हासिल किया था। वे टू मच डेमोक्रेसी लाये थे और 2014 में मोदी महान ने उसे सौतेले लोकतंत्र में बदल दिया। मोदी है तो मुमकिन है। कहने वाले मोदी के मदर आफ डेमोक्रेसी वाली बात को कभी-कभी 'मर्डर आफ डेमोक्रेसी' भी कहकर सम्मान बढ़ा देते हैं।
....लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, सूचना आयोग....और न जाने कितने आयोग और संस्थाएं टू मच डेमोक्रेसी को बढ़ा रही हैं तो ऐसे में मोदी अगर जुमले के तौर पर ही भारत को मदर आफ डेमोक्रेसी कहते हैं तो इसमें हर्ज क्या है। 'मोदी और लोकतंत्र'...कह कर मजाक उड़ाने वाले यह समझ लें कि मोदी प्रधानमंत्री हैं और आप जैसे सामान्य मानवी से ज्यादा सोच सकते हैं। वो कहां तक सोच सकते हैं, आप में से कितनों ने सोचा होगा। मसलन नाले की गैस से चाय बनाने की बात उन्होंने देश के सामने रखी। कई वैज्ञानिकों ने टू मच डेमोक्रेसी की वजह से उनका समर्थन किया। उन्होंने साइंस कांग्रेस में गणेश की प्लास्टिक सर्जरी की बात कहकर भारत के लोकतंत्र को इतना मजबूत किया कि उसका डंका विदेशों में बज उठा। पूरे विश्व में ऐसा लीडर नहीं हुआ होगा, जिसने आसमान में बादल छाने को अवसर में बदलने की बात कहकर रडार को फेल कर दिया और बालाकोट करा दिया। अब जब वह भारत को मदर आफ डेमोक्रेसी बता रहा है तो जाहिर है, उसने जरूर कुछ सोचा होगा। जैसे - दिल्ली बॉर्डर पर जब किसान आगे बढ़ेंगे तो मदर आफ डेमोक्रेसी की पुलिस के डंडे और बंदूक, सेना के टैंक, सड़क की खाई और कंटीले तार उसका स्वागत करने को तैयार मिलेंगे।
कभी आपने सोचा कि मदर आफ डेमोक्रेसी या टू मच डेमोक्रेसी को आरएसएस कैसे लेता है। मोदी, भाजपा पर बात तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक आरएसएस का जिक्र न आये। संघ की स्थापना 1925 में हुई। अंग्रेज उस समय सत्ता में थे। संघ ने भारत की आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया। क्योंकि तब तक भारत को टू मच तो क्या मामूली डेमोक्रेसी भी नहीं मिली थी। उस समय भगत सिंह, आजाद, राजगुरु, सुखदेव, बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान वगैरह ने टू मच डेमोक्रेसी के लिए खुद को बलिदान कर दिया। तब संघ ने इन्हें रास्ते से भटके हुए युवक बताया था। अंडमान जेल में बंद स्वयंभू वीर कहने वाले ने अंग्रेजों से माफी मांगी और जेल से आकर मुखबिर बन गया। गोडसे पैदा किया और जब भारत में टू मच डेमोक्रेसी आ गई तो गांधी की हत्या हो गई। अब आरएसएस के लिए वह सब टू मच डेमोक्रेसी है जो इन बातों को बताए। जो भगत सिंह और आंबेडकर की बात करे। जो सीएए-एनआरसी का विरोध करे, जो जेएनयू में आजादी के नारे लगाये।
संघ की नजर में उमर खालिद, शारजील इमाम, सफूरा जरगर, नताशा नरवाल, देवांगना कलिता, डॉ. कफील खान, खालिद सैफी, गुलफिशा फातिमा टू मच डेमोक्रेसी कर रहे हैं, क्योंकि वे भगत सिंह की विचारधारा के साथ हैं। संघ भगत सिंह के समर्थकों के खिलाफ है। टू मच डेमोक्रेसी उसे अब रास आने लगी है। नागपुरी विचारधारा का विस्तार इंसाफ के दरवाजे तक पहुंच गया है। संघ और उसके आज्ञाकारी मदर आफ डेमोक्रेसी के नए संदेश वाहक हैं। एक आज्ञाकारी कोरोना काल में मोर का नृत्य देख निहाल होता है तो दूसरा आज्ञाकारी गले में बंदर टांगकर मोहब्बत पर पहरे बैठाता है। बाकी आज्ञाकारी टू मच डेमोक्रेसी में बज रही ताली और थाली में मगन हैं।...
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