बंदर है मुद्दा


मथुरा-वृंदावन में बंदरों की बहुत समस्या है। 


वो माँस नहीं खाने वाले मथुरा की अध्यात्मिक जनता को बहुत परेशान करते हैं। 


योगी मथुरा आए। उन्हें यह समस्या बताई गई। उन्होंने कहा कि हनुमान चालीसा पढ़िए बंदर परेशान नहीं करेंगे।


लेकिन मथुरा का मेयर मुकेश आर्यबंधु कह रहा है कि बंदर बहुत ज़ालिम कौम होती है। उसने कुछ बंदर पकड़वाए लेकिन योगी के बयान के बाद अभियान बंद कर दिया। अब पूरा मथुरा हनुमान चालीसा पढ़ रहा है लेकिन बंदर अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहे हैं। वो मथुरा में महिलाओं की साड़ी तक खींच ले रहे हैं। 



यानी मथुरा वृंदावन में बंदर नए गुंडे बन गए हैं। कुछ साधू महात्मा कह रहे हैं कि बंदरों की सक्रियता रामराज्य आने का संकेत है। तो कृपया जो लोग बंदर विरोधी सोच रखते हैं वे उसका परित्याग कर दें। 


लेकिन मुद्दे पर आते हैं।


मथुरा का मेयर बंदर की जाति बता रहा है। देश ओबीसी जनगणना की माँग कर रहा है और मेयर बंदर की जाति बता रहा है। उन्हें ज़ालिम कौम कह रहा है।


तो क्यों न योगी/मोदी/मोहन भागवत भारत में सारे पक्षियों, पशुओं की जाति की जनगणना भी करा दें। 


उदाहरण के लिए राष्ट्र माता गाय को ब्राह्मण घोषित किया जा सकता है। क्योंकि ब्राह्मणों ने ही दुनिया को गाय के महत्व के बारे में बताया। 


उदाहरण के लिए भैंस को यादव घोषित किया जा सकता है। सबसे ज़्यादा भैंस के दूध का बिज़नेस यादव लोग करते हैं।


उदाहरण के लिए बकरी या बकरे को मुसलमान घोषित किया जा सकता है। क्योंकि बकरी बेचारी सीधी साधी अहिंसक होती है। बकरी-बकरे को कटना ही है। और बकरी-बकरे को मुसलमान घोषित करने पर मुल्ले टाइट भी रहेंगे। 


उदाहरण के लिए गधे, कुत्ते, लोमड़ी, सियार (जैकाल) को नेता घोषित किया जा सकता है। वो किसी भी पार्टी का नेता हो सकता है। लेकिन ओवैसी के लिए मैं बगुलाभगत का चुनाव करूँगा। 


उदाहरण के लिए तोते को पुजारी, मौलवी जाति का घोषित कर दें। तोता पालने में आसान भी होता है। 


उदाहरण के लिए गिरगिटों या गिरगिटान को मीडिया या मीडियाकर्मी जाति का घोषित कर दिया जाए। रंग बदलने वाली प्रजाति है।


मीडिया पर याद आया। पुरानी बात है। तब दिल्ली में आईटीओ पर टाइम्स आफ इंडिया भवन में आग नहीं लगी थी। मैं नवभारत टाइम्स वाले फ़्लोर पर था। तमाम और साथी भी थे। देर रात एक बंदर खुली खिड़की से अंदर आ गया। वो सहमे पत्रकारों को टुकुर-टुकुर देखने लगा। इतने में एक साथी ने पेपरवेट उठाकर मारा तो वो उसी खिड़की से भाग गया। इतने में कोई चिल्लाया कि ऐसे नहीं मारते, क्या पता किसी रीढ़ विहीन ज़िन्दा या “मुर्दा पत्रकार” की भटकती आत्मा बंदर के रूप में आई हो। एनबीटी दफ़्तर में बंदर घुसपैठ की काफ़ी दिनों तक चर्चा रही। 


बहरहाल, बंदर तो संसद भवन, शास्त्री भवन के पास भी उत्पात मचाए रहते हैं। कई बार एजेंसियों के ज़रिए वहाँ से बंदरों को भगाने का अभियान चला। ताकि वे किसी सांसद या मंत्री को ना काट खाएँ। मुझे लगता है कि सेंट्रल विस्टा में जो सुरंग बनाई जा रही है, वो बंदरों के मद्देनज़र बनाई जा रही है। ताकि कहीं कोई सिरफिरा बंदर किसी प्रधानमंत्री को काटने न दौड़ पाए।


मेरा सुझाव तो ये है कि सारी पार्टियाँ क्यों न कुछ बंदर संसद में नामित करके भेज दें। ताकि बंदरों को मथुरा से लेकर दिल्ली, अयोध्या, काशी और प्रयाग तक शांत किया जा सके। नहीं तो फिर कोई सिरफिरा मेयर बेचारे बंदरों को ज़ालिम कौम न घोषित कर दे।


आप लोगों की बंदर की तमाम प्रस्तावित जातियों पर क्या राय है? 


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