पाक के हालात पर खुश होने की जरूरत नहीं
भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान में जो हालात बन रहे हैं, उस पर हम सभी की नजर जाना स्वाभाविक है। एक प्रमुख पाक्षिक पत्रिका के पत्रकार अमलेन्दु उपाध्याय ने यह लेख खास तौर पर हिंदी वाणी के पाठकों के लिए भेजा है।
अभी खबर आई थी कि पाकिस्तान के कबायली इलाके की स्वात घाटी में तालिबान और पाक सरकार के बीच युद्ध विराम का समझौता हो गया है और पाक सरकार इस बात पर राजी हो गई है कि स्वात घाटी में तालिबान अब शरीयत का कानून लागू करेंगे। ठीक इसी समय पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का बयान आया कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
दोनों खबरें भारत को परेशान करने वाली हैं। स्वात में तालिबान के सामने पाक हुकूमत का घुटने टेकना और जरदारी की स्वीकारोक्ति यह बताती है कि पाकिस्तान विघटन के कगार पर खड़ा है। इस खबर पर भारत में तथाकथित राष्ट्रवादी खुशी में झूम रहे हैं कि अब ‘नक्षे में से पापी पाकिस्तान का नाम मिट जाएगा’। लेकिन ऐसी खुशियां मनाने वाले उन लोगों में हैं जो पड़ोसी का घर जलते देखकर खुशियां मनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर से उठी लपटें हमारा अपना घर भी स्वाहा कर देंगी।
मान लिया जाए कि पाकिस्तान के हालात और खराब होते हैं और वहां की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई जरदारी सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रहती है तब वहां हुकूमत पर कौन काबिज होंगे? जाहिर है ऐसी परिस्थिति में या तो फौज की हुकूमत में वापसी होगी या फिर तालिबान और कट्टरपंथी कठमुल्ले काबिज होंगे।
आजादी के बाद से भारत लगातार पाक प्रायोजित छद्म युद्ध का सामना इसलिए करता रहा है क्योंकि पाक में अधिकांश समय फौजी हुकूमत रही है और वहां की फौज को हुकूमत कायम रखने के लिए भारत से अदावत रखना लाजिमी था, ठीक उसी तरह से जैसे हमारे देष में कुछ सियासी जमातों को जिंदा रहने के लिए पाकिस्तान का नाम जपना जरूरी है।
काबिले गौर बात यह है कि स्वात घाटी समेत समूचे कबायली इलाकों में अनेक बार अमेरिकी फौजों ने पाक सीमा में घुसकर बमबारी की है और पाक फौज को मदद भी पहुंचाई है। यह वही इलाका है जहां ओसामा बिन लादेन के छिपे होने का संदेह है। उधर पाकिस्तान में अमेरिकी चरणपादुकाएं लेकर शासन कर रहे अमेरिकी दूत हामिद करजई भी तालिबानों से सहयोग की अपील कर रहे हैं। खबर तो यहां तक है कि अफगानिस्तान के कुछ हिस्सें में तालिबान समानांतर सरकार चला रहे हैं। इसका संदेश साफ है कि भारतीय उपमहाद्वीप समेत पूरे एशिया में अमेरिकी नीति बुरी तरह विफल रही है।
भारत के लिए सर्वाधिक चिंता का विशय यह है कि अगर जरदारी पाक में कमजोर पड़ते हैं तो तालिबान हावी होंगे जो भारत के लिए बड़ा खतरा है। अमेरिका को उसके घर में घुसकर न मार पाने की खुन्नस तालिबान अमेरिका के नए दोस्त भारत से ही निकालेंगे। मुशर्रफ की फौज हो या अययूब खां की, पाकिस्तान के रूप में एक संप्रभु राष्ट्र से लड़ना भारत के लिए आसान था, चूंकि जंग के बावजूद कहीं न कहीं अंतर्राष्ट्रीय दबावों के आगे पाकिस्तान को झुकना ही पड़ता था। आज भी अजमल आमिर कस्साब के मसले पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव में ही सही पाकिस्तान यह मानने को तैयार तो हुआ कि मुंबई हमले की साजिश में उसकी जमीन का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन अगर तालिबान पाकिस्तान में हुकूमत करेंगे तो क्या वे अंतर्राष्ट्रीय कानून और दबाव को मानेंगे? जिन तालिबानों से अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटों सेनाएं पार नहीं पा रही हैं क्या उनसे भारत पार पा लेगा?
सवाल यह है कि क्या हमने अपनी अतीत की गल्तियों और पड़ोसियों के तजुर्बे से कुछ सबक लिया है? वे जुल्फिकार अली भुट्टो जो जियाउलहक की फौजों के बल पर फूलकर हुंकार भर रहे थे कि ‘भारत से एक हजार साल तक लड़ेंगे’, उसी जिया के हाथों फांसी के फंदे तक पहुंचाए गए। अमेरिका ने ओसामा को पाला बदले में 9/11 पाया। श्रीलंकाई छापामारों लिट्टे को भारत ने संरक्षण दिया नतीजे में क्या मिला? हमने राजीव गांधी को खोया! भिंडरवाला को कांग्रेस ने पैदा किया फलस्वरूप इंदिरा गांधी की शहादत हुई! अतिवादी ताकतें चाहे कोई हों, मुल्ला उमर हो या प्रमोद मुतालिक, नागफनी की फसल की तरह हैं। इसलिए जो तथाकथित राष्ट्रवादी पाकिस्तान की तबाही पर जश्न मना रहे हैं वे आने वाले दिनों में अपने घर की तबाही से बेखबर हैं। बेहतर है कि पाकिस्तान में हमारी दुश्मनी के बावजूद लोकतंत्र की शमां जलती रहे।
-अमलेन्दु उपाध्याय
संपर्क - amalendu.upadhyay@gmail.com
अभी खबर आई थी कि पाकिस्तान के कबायली इलाके की स्वात घाटी में तालिबान और पाक सरकार के बीच युद्ध विराम का समझौता हो गया है और पाक सरकार इस बात पर राजी हो गई है कि स्वात घाटी में तालिबान अब शरीयत का कानून लागू करेंगे। ठीक इसी समय पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का बयान आया कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
दोनों खबरें भारत को परेशान करने वाली हैं। स्वात में तालिबान के सामने पाक हुकूमत का घुटने टेकना और जरदारी की स्वीकारोक्ति यह बताती है कि पाकिस्तान विघटन के कगार पर खड़ा है। इस खबर पर भारत में तथाकथित राष्ट्रवादी खुशी में झूम रहे हैं कि अब ‘नक्षे में से पापी पाकिस्तान का नाम मिट जाएगा’। लेकिन ऐसी खुशियां मनाने वाले उन लोगों में हैं जो पड़ोसी का घर जलते देखकर खुशियां मनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर से उठी लपटें हमारा अपना घर भी स्वाहा कर देंगी।
मान लिया जाए कि पाकिस्तान के हालात और खराब होते हैं और वहां की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई जरदारी सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रहती है तब वहां हुकूमत पर कौन काबिज होंगे? जाहिर है ऐसी परिस्थिति में या तो फौज की हुकूमत में वापसी होगी या फिर तालिबान और कट्टरपंथी कठमुल्ले काबिज होंगे।
आजादी के बाद से भारत लगातार पाक प्रायोजित छद्म युद्ध का सामना इसलिए करता रहा है क्योंकि पाक में अधिकांश समय फौजी हुकूमत रही है और वहां की फौज को हुकूमत कायम रखने के लिए भारत से अदावत रखना लाजिमी था, ठीक उसी तरह से जैसे हमारे देष में कुछ सियासी जमातों को जिंदा रहने के लिए पाकिस्तान का नाम जपना जरूरी है।
काबिले गौर बात यह है कि स्वात घाटी समेत समूचे कबायली इलाकों में अनेक बार अमेरिकी फौजों ने पाक सीमा में घुसकर बमबारी की है और पाक फौज को मदद भी पहुंचाई है। यह वही इलाका है जहां ओसामा बिन लादेन के छिपे होने का संदेह है। उधर पाकिस्तान में अमेरिकी चरणपादुकाएं लेकर शासन कर रहे अमेरिकी दूत हामिद करजई भी तालिबानों से सहयोग की अपील कर रहे हैं। खबर तो यहां तक है कि अफगानिस्तान के कुछ हिस्सें में तालिबान समानांतर सरकार चला रहे हैं। इसका संदेश साफ है कि भारतीय उपमहाद्वीप समेत पूरे एशिया में अमेरिकी नीति बुरी तरह विफल रही है।
भारत के लिए सर्वाधिक चिंता का विशय यह है कि अगर जरदारी पाक में कमजोर पड़ते हैं तो तालिबान हावी होंगे जो भारत के लिए बड़ा खतरा है। अमेरिका को उसके घर में घुसकर न मार पाने की खुन्नस तालिबान अमेरिका के नए दोस्त भारत से ही निकालेंगे। मुशर्रफ की फौज हो या अययूब खां की, पाकिस्तान के रूप में एक संप्रभु राष्ट्र से लड़ना भारत के लिए आसान था, चूंकि जंग के बावजूद कहीं न कहीं अंतर्राष्ट्रीय दबावों के आगे पाकिस्तान को झुकना ही पड़ता था। आज भी अजमल आमिर कस्साब के मसले पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव में ही सही पाकिस्तान यह मानने को तैयार तो हुआ कि मुंबई हमले की साजिश में उसकी जमीन का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन अगर तालिबान पाकिस्तान में हुकूमत करेंगे तो क्या वे अंतर्राष्ट्रीय कानून और दबाव को मानेंगे? जिन तालिबानों से अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटों सेनाएं पार नहीं पा रही हैं क्या उनसे भारत पार पा लेगा?
सवाल यह है कि क्या हमने अपनी अतीत की गल्तियों और पड़ोसियों के तजुर्बे से कुछ सबक लिया है? वे जुल्फिकार अली भुट्टो जो जियाउलहक की फौजों के बल पर फूलकर हुंकार भर रहे थे कि ‘भारत से एक हजार साल तक लड़ेंगे’, उसी जिया के हाथों फांसी के फंदे तक पहुंचाए गए। अमेरिका ने ओसामा को पाला बदले में 9/11 पाया। श्रीलंकाई छापामारों लिट्टे को भारत ने संरक्षण दिया नतीजे में क्या मिला? हमने राजीव गांधी को खोया! भिंडरवाला को कांग्रेस ने पैदा किया फलस्वरूप इंदिरा गांधी की शहादत हुई! अतिवादी ताकतें चाहे कोई हों, मुल्ला उमर हो या प्रमोद मुतालिक, नागफनी की फसल की तरह हैं। इसलिए जो तथाकथित राष्ट्रवादी पाकिस्तान की तबाही पर जश्न मना रहे हैं वे आने वाले दिनों में अपने घर की तबाही से बेखबर हैं। बेहतर है कि पाकिस्तान में हमारी दुश्मनी के बावजूद लोकतंत्र की शमां जलती रहे।
-अमलेन्दु उपाध्याय
संपर्क - amalendu.upadhyay@gmail.com
टिप्पणियाँ
नही नही दिल पे मत लेना.. बस यू ही मुझे लगा तो कह दिया..
वैसे अंकल पाकिस्तान में जो लोग हिन्दुस्तान के हालत पर खुश होते है.. कभी उनके लिए भी लिखो ना.. लिखो ना अंकल