मां, मुझे भी एक कहानी सुनाओ
क्या आप किसी ऐसे सरकारी अस्पताल को जानते हैं जहां दाखिल बीमार बच्चे को कोई कहानी सुनाने आता हो। आपका जवाब शायद नहीं में होगा। इसका मुझे यकीन है। क्योंकि कहानी सुनाने वाले सिर्फ महंगे या यूं कहें कि फाइव स्टार टाइप अस्पतालों (Five star hospitals) में जाते हैं। अपने देश यह चलन अभी हाल ही में शुरू हुआ है, विदेशों में पहले से है। बीमार बच्चों को अस्पताल में जाकर कहानी इसलिए सुनाई जाती है कि वे उस मानसिक स्थिति से उबर सकें जिसके वे शिकार हैं और उनके इर्द-गिर्द फैले अस्पताल के बोझिल वातावरण में वह थोड़ा सुकून महसूस कर सकें।
बचपन में मां, दादी, नानी के जिम्मे यह काम होता था या फिर उनके जिम्मे जो बच्चों को पालती थीं जिन्हें धाय मां कहा गया है और मौजूदा वक्त में उन्हें आया कहा जाने लगा है। मौजूदा वक्त की आयाएं पता नहीं बच्चों को कहानी सुनाती हैं या नहीं लेकिन तमाम मांओं, दादियों और नानियों को यह जिम्मेदारी पूरी करते हम लोगों ने देखा है। लेकिन दौर न्यूक्लियर परिवारों (Nuclear families ) का है तो ऐसे में किसी के पास कहानी सुनाने की फुरसत नहीं है। आईटी युग (IT era) में जब कदम-कदम पर हर कोई प्रोफेशनलिज्म की दुहाई देता नजर आता है तो कहानी सुनाना भी एक बिजनेस बन गया है। विदेशों में तो प्रोफेशनल कहानी सुनाने वालों (Professional storyteller) की सेवाएं भी ली जाती हैं। हो सकता है कि यहां भी कुछ एनजीओ वाले इसमें संभावनाएं देख रहे हों।
बहरहाल, एनजीओ उदय फाउंडेशन (NGO Uday Foundation) चलाने वालों ने विदेश की ही तर्ज पर दिल्ली में जिस अस्पताल को सबसे पहले चुना वह था – एस्कॉर्ट्स फोर्टिस अस्पताल। इस अस्पताल में शुक्रवार को दिल्ली पुलिस के एक हाई प्रोफाइल डीसीपी हरगोविंदर सिंह धालीवाल बीमार बच्चों को कहानी सुनाने पहुंचे। वह थोड़ा लेट थे, बच्चों ने उनसे पूछा, आप लेट क्यों आए, उन्होंने कहा भारत जैसे मुल्क में पुलिस हमेशा लेट आती है। (शायद अनजाने में या जानबूझकर वह सच बोल गए)। जिस अखबार में इस एक्सक्लूसिव खबर को छापा गया है, उसमें डीसीपी की महानता का भी उल्लेख था। बताया गया है कि कैसे इस महान डीसीपी ने पिछले दिनों बाइकर्स गैंग के सरगना को एक एनकाउंटर में ढेर कर दिया।
अब मुद्दे पर आते हैं। मैं या आप इस बात के खिलाफ नहीं होंगें कि अमीरों के लिए बने अस्पताल में दाखिल अमीर बच्चों को कहानी सुनने का हक नहीं है या यह कि एनजीओ कोई अच्छा काम नहीं कर रही। यह बहुत अच्छी कोशिश है, इससे कोई इनकार नहीं करेगा। एक तरफ तो ऐसे फाइव स्टार अस्पताल हैं और दूसरी तरफ देश और यहां तक दिल्ली के ही असंख्य अस्पताल है जहां बच्चों को कहानी सुनाना तो दूर दवाई तक नसीब नहीं है। मुझे देश के कई शहरों में रहने का मौका मिला है और इस दौरान तमाम सरकारी अस्पतालों और फाइव स्टार टाइप अस्पतालों में जाने का मौका मिला है, आप विश्वास नहीं करेंगे कि स्थितियां कितनी भयावह हैं। ज्यादा दूर नहीं, आप दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स AIIMS) चले जाइए जो किसी भी मायने में किसी फाइव स्टार से बेहतर अस्पताल है, वहां मरीजों को पूरी दवाएं नहीं मिल पातीं। बिहार के सीतामढ़ी से आए मांझी परिवार के जिस नवजात बच्चे के हार्ट का आपरेशन कर उसे वापस उसके सीने में फिट करने का जो कमाल यहां के डॉक्टरों ने दिखाया, उस बच्चे को एडॉप्ट करने और आगे उसके इलाज के लिए दिल्ली का एक भी एनजीओ नहीं आया। इसकी जानकारी जब सुलभ इंटरनैशनल (Sulabh International) के मालिक बिंदेश्वर पाठक को हुई तो उनके निर्देश पर उनकी संस्था ने इस बच्चे को एडॉप्ट किया। बिंदेश्वर पाठक का संबंध बिहार से है और हो सकता है कि शायद इस वजह से भी उनका दिल पसीजा हो लेकिन बहरहाल, उनकी संस्था ने अच्छा काम किया। लेकिन अगर बिंदेश्वर पाठक का हाथ उस बच्चे के लिए न बढ़ा होता तो... बच्चों को कहानी सुनाने के लिए पुलिस अफसर को लाने वाले उदय फाउंडेशन के लोगों ने ऐसा नहीं है कि बिहार के उस बच्चे की खबर अखबारों में न पढ़ी हो।
बच्चों को कहानी सुनाते दिल्ली पुलिस के डीसीपी हरगोविंदर सिंह धालीवाल
हो सकता है कि एनजीओ उदय फाउंडेशन चलाने वालों की नीयत साफ हो लेकिन कहीं न कहीं लगता है कि तमाम सोशलाइट (Socialite) लोग एनजीओ का जो धंधा चला रहे हैं उसके पीछे मकसद महज समाजसेवा (Social Work) का नहीं है। एक तो यह लोग चाहते हैं कि इनके काम को लोग सराहें, दूसरा सरकार इनको इनाम और सम्मान देती रहे। विदेशों से इन्हें जो आर्थिक मदद मिलती है, उसके बारे में तो इनकी बैलेंसशीट ही बता सकती है। दिल्ली में ऐसे ही एक सज्जन बच्चों को उनका बचपन लौटाने के लिए उन्हें चाय की दुकानों से, घरों से, विभिन्न उद्योग-धंधों में से मुक्त कराने का अभियान छेड़े हुए हैं। सरकारी कानून के मुताबिक बच्चों से काम लेना और कराना अपराध भी है। कानून की नजर में ये सज्जन बहुत अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन जिन गरीब बच्चों को यह सज्जन मुक्त कराते हैं वे गरीब परिवारों से हैं और अपने परिवार की रोटी का इंतजाम करने के लिए इन्हें यहां-वहां काम करना पड़ता है। उनकी संस्था को विदेशों से मोटा फंड मिलता है लेकिन मुक्त कराए गए बच्चों को वह कितना देते हैं या उनके पुनर्वास की क्या व्यवस्था करते हैं, कोई आज तक नहीं जान पाया है। हां, मीडिया में उनकी पर्सनैलिटी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाली खबरें जरूर दिखाई देती हैं। उनके दफ्तर में जाइए तो आपको वहां पूरा कॉरपोरेट कल्चर मिलेगा और कई विदेशी बालाएं भी वहां बैठी नजर आएंगी। जिनके सामने भारत की गरीबी को बयान करती तस्वीरों का ढेर लगा होगा।
तमाम एनजीओ की आलोचना करना मेरा मकसद नहीं है। कुछ लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी एनजीओ चलाने वालों को कहीं न कहीं आत्मविश्लेषण करना ही होगा कि क्यों हमारे-आप जैसे लोग इनके बारे में ऐसी धारणा बनाए हुए हैं।
बचपन में मां, दादी, नानी के जिम्मे यह काम होता था या फिर उनके जिम्मे जो बच्चों को पालती थीं जिन्हें धाय मां कहा गया है और मौजूदा वक्त में उन्हें आया कहा जाने लगा है। मौजूदा वक्त की आयाएं पता नहीं बच्चों को कहानी सुनाती हैं या नहीं लेकिन तमाम मांओं, दादियों और नानियों को यह जिम्मेदारी पूरी करते हम लोगों ने देखा है। लेकिन दौर न्यूक्लियर परिवारों (Nuclear families ) का है तो ऐसे में किसी के पास कहानी सुनाने की फुरसत नहीं है। आईटी युग (IT era) में जब कदम-कदम पर हर कोई प्रोफेशनलिज्म की दुहाई देता नजर आता है तो कहानी सुनाना भी एक बिजनेस बन गया है। विदेशों में तो प्रोफेशनल कहानी सुनाने वालों (Professional storyteller) की सेवाएं भी ली जाती हैं। हो सकता है कि यहां भी कुछ एनजीओ वाले इसमें संभावनाएं देख रहे हों।
बहरहाल, एनजीओ उदय फाउंडेशन (NGO Uday Foundation) चलाने वालों ने विदेश की ही तर्ज पर दिल्ली में जिस अस्पताल को सबसे पहले चुना वह था – एस्कॉर्ट्स फोर्टिस अस्पताल। इस अस्पताल में शुक्रवार को दिल्ली पुलिस के एक हाई प्रोफाइल डीसीपी हरगोविंदर सिंह धालीवाल बीमार बच्चों को कहानी सुनाने पहुंचे। वह थोड़ा लेट थे, बच्चों ने उनसे पूछा, आप लेट क्यों आए, उन्होंने कहा भारत जैसे मुल्क में पुलिस हमेशा लेट आती है। (शायद अनजाने में या जानबूझकर वह सच बोल गए)। जिस अखबार में इस एक्सक्लूसिव खबर को छापा गया है, उसमें डीसीपी की महानता का भी उल्लेख था। बताया गया है कि कैसे इस महान डीसीपी ने पिछले दिनों बाइकर्स गैंग के सरगना को एक एनकाउंटर में ढेर कर दिया।
अब मुद्दे पर आते हैं। मैं या आप इस बात के खिलाफ नहीं होंगें कि अमीरों के लिए बने अस्पताल में दाखिल अमीर बच्चों को कहानी सुनने का हक नहीं है या यह कि एनजीओ कोई अच्छा काम नहीं कर रही। यह बहुत अच्छी कोशिश है, इससे कोई इनकार नहीं करेगा। एक तरफ तो ऐसे फाइव स्टार अस्पताल हैं और दूसरी तरफ देश और यहां तक दिल्ली के ही असंख्य अस्पताल है जहां बच्चों को कहानी सुनाना तो दूर दवाई तक नसीब नहीं है। मुझे देश के कई शहरों में रहने का मौका मिला है और इस दौरान तमाम सरकारी अस्पतालों और फाइव स्टार टाइप अस्पतालों में जाने का मौका मिला है, आप विश्वास नहीं करेंगे कि स्थितियां कितनी भयावह हैं। ज्यादा दूर नहीं, आप दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स AIIMS) चले जाइए जो किसी भी मायने में किसी फाइव स्टार से बेहतर अस्पताल है, वहां मरीजों को पूरी दवाएं नहीं मिल पातीं। बिहार के सीतामढ़ी से आए मांझी परिवार के जिस नवजात बच्चे के हार्ट का आपरेशन कर उसे वापस उसके सीने में फिट करने का जो कमाल यहां के डॉक्टरों ने दिखाया, उस बच्चे को एडॉप्ट करने और आगे उसके इलाज के लिए दिल्ली का एक भी एनजीओ नहीं आया। इसकी जानकारी जब सुलभ इंटरनैशनल (Sulabh International) के मालिक बिंदेश्वर पाठक को हुई तो उनके निर्देश पर उनकी संस्था ने इस बच्चे को एडॉप्ट किया। बिंदेश्वर पाठक का संबंध बिहार से है और हो सकता है कि शायद इस वजह से भी उनका दिल पसीजा हो लेकिन बहरहाल, उनकी संस्था ने अच्छा काम किया। लेकिन अगर बिंदेश्वर पाठक का हाथ उस बच्चे के लिए न बढ़ा होता तो... बच्चों को कहानी सुनाने के लिए पुलिस अफसर को लाने वाले उदय फाउंडेशन के लोगों ने ऐसा नहीं है कि बिहार के उस बच्चे की खबर अखबारों में न पढ़ी हो।
बच्चों को कहानी सुनाते दिल्ली पुलिस के डीसीपी हरगोविंदर सिंह धालीवाल
हो सकता है कि एनजीओ उदय फाउंडेशन चलाने वालों की नीयत साफ हो लेकिन कहीं न कहीं लगता है कि तमाम सोशलाइट (Socialite) लोग एनजीओ का जो धंधा चला रहे हैं उसके पीछे मकसद महज समाजसेवा (Social Work) का नहीं है। एक तो यह लोग चाहते हैं कि इनके काम को लोग सराहें, दूसरा सरकार इनको इनाम और सम्मान देती रहे। विदेशों से इन्हें जो आर्थिक मदद मिलती है, उसके बारे में तो इनकी बैलेंसशीट ही बता सकती है। दिल्ली में ऐसे ही एक सज्जन बच्चों को उनका बचपन लौटाने के लिए उन्हें चाय की दुकानों से, घरों से, विभिन्न उद्योग-धंधों में से मुक्त कराने का अभियान छेड़े हुए हैं। सरकारी कानून के मुताबिक बच्चों से काम लेना और कराना अपराध भी है। कानून की नजर में ये सज्जन बहुत अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन जिन गरीब बच्चों को यह सज्जन मुक्त कराते हैं वे गरीब परिवारों से हैं और अपने परिवार की रोटी का इंतजाम करने के लिए इन्हें यहां-वहां काम करना पड़ता है। उनकी संस्था को विदेशों से मोटा फंड मिलता है लेकिन मुक्त कराए गए बच्चों को वह कितना देते हैं या उनके पुनर्वास की क्या व्यवस्था करते हैं, कोई आज तक नहीं जान पाया है। हां, मीडिया में उनकी पर्सनैलिटी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाली खबरें जरूर दिखाई देती हैं। उनके दफ्तर में जाइए तो आपको वहां पूरा कॉरपोरेट कल्चर मिलेगा और कई विदेशी बालाएं भी वहां बैठी नजर आएंगी। जिनके सामने भारत की गरीबी को बयान करती तस्वीरों का ढेर लगा होगा।
तमाम एनजीओ की आलोचना करना मेरा मकसद नहीं है। कुछ लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी एनजीओ चलाने वालों को कहीं न कहीं आत्मविश्लेषण करना ही होगा कि क्यों हमारे-आप जैसे लोग इनके बारे में ऐसी धारणा बनाए हुए हैं।
टिप्पणियाँ
i will crry it very long, trust me
i will carry it very long, trust me
कुछ सही है लेकिन लगभग नगण्य |
अच्छा विषय उठाया है | बहुत सुंदर | बधाई |