आतंकवादी की मां
ब्रेकिंग न्यूज...वह आतंकवादी की मां है, उसकी लड़की लश्कर-ए-तैबा से जुड़ी हुई थी। उसका भाई भी लश्कर से ही जुड़ा मालूम होता है। इन लोगों ने लश्कर का एक स्लीपर सेल बना रखा था। इनके इरादे खतरनाक थे। ये लोग भारत को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते थे। यह लोग आतंकवाद को कुचलने वाले मसीहा नरेंद्र मोदी की हत्या करने निकले थे लेकिन इससे पहले गुजरात पुलिस ने इनका काम तमाम कर दिया।
कुछ इस तरह की खबरें काफी अर्से बाद हमें मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। अर्से बाद पता चलता है कि सरकारी एजेंसियों ने मीडिया का किस तरह इस्तेमाल किया था। आम लोग जब कहते हैं कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है तो हमारे जैसे लोग जो इस पेशे का हिस्सा हैं, उन्हें तिलमिलाहट होती है। लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए। अगर आज मीडिया की जवाबदेही (Accountability of Media ) पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो यह ठीक हैं और इसका सामना किया जाना चाहिए। मीडिया की जो नई पीढ़ी इस पेशे में एक शेप ले रही है और आने वाले वक्त में काफी बड़ी जमात आने वाली है, उन्हें शायद ऐसे सवालों का जवाब कुछ ज्यादा देना पड़ेगा।
गुजरात में हुए फर्जी एनकाउंटर (Fake Encounter) की खबरें आज हमें मुंह चिढ़ा रही हैं। विश्व भर में तमाम फोरमों पर, अखबारों में और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में इन सवालों को उठा कर सवाल पूछे जा रहे हैं। इशरतजहां और कुछ अन्य युवकों का गुजरात में 2004 में किया गया एनकाउंटर इस समय बहस के केंद्र में है। इस एनकाउंटर को अंजाम देने वाले पुलिस अफसर डी. जी. बंजारा पहले से ही जेल में हैं और उन्हें एक फर्जी एनकाउंटर (सोहराबुद्दीन केस) में दो साल की सजा सुनाई जा चुकी है। वर्ष 2004 का ऐसा समय था जब गुजरात में फर्जी एनकाउंटरों की बाढ़ लग गई थी और बंजारा नामक इस अधिकारी को गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी तरक्की पर तरक्की देते जा रहे थे। लेकिन उन एनकाउंटरों की खबरें छापने वाले अखबार और टीवी न्यूज चैनल आज कहां खड़े हैं। मीडिया ने इन खबरों की सत्यता जांचे बिना खूब हवा दी और इसने समाज के ताने-बाने पर भी जबर्दस्त असर डाला।
आज के अखबारों और न्यूज चैनलों पर नजर डालें तो सब के सब गुजरात पुलिस को विलेन बनाते नजर आएंगे। सारे के सारे अखबारों में अगर संपादकीय पर नजर डालें तो वे मोदी और गुजरात पुलिस को कटघरे में खड़े करते नजर आएंगे। इनमें से कोई यह लिखने या कहने को तैयार नहीं है कि जब उसने इस फर्जी एनकाउंटर को ब्रेकिंग न्यूज बताकर पूरे देश को झकझोर दिया था और देश में हर मुसलमान पर आतंकवादी होने का शक जताया जा रहा था तब उसने गलती की थी और अब उसे माफी मांगनी चाहिए। हद तो यह है कि इशरतजहां के मामले में केंद्रीय गृहमंत्रालय (MHA) तक ने कोर्ट में शपथपत्र दिया कि एनकाउंटर में मारे गए युवक-युवतियों के संबंध लश्कर-ए-तैबा से थे।
आतंकवादी की मां होने पर जो बयान इशरतजहां की मां शमीमा कौसर ने दिया है, वह बताता है कि कैसे ऐसी घटनाएं हमारे सामाजिक ढांचे को झकझोर देती हैं। शमीमा कौसर ने कहा कि जब उनकी बेटी को आतंकवादी बताकर मार डाला गया तो मुंबई के ठाणे इलाके में जहां वह रहती हैं, वह उनका सामाजिक बहिष्कार (Social Boycott) कर दिया गया। उनके अन्य बेटे-बेटी जो स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे थे, उनका नाम वहां से काट दिया गया और वे आगे पढ़ाई नहीं कर सके। वे जहां जाते लोग उनके बारे में यही कहते थे कि देखो आतंकवादी की मां जा रही है, देखो आतंकवादी की बहन जा रही है, देखो आतंकवादी का भाई जा रहा है। किसी एक कंपनी में इशरतजहां की बहन को रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली हुई है लेकिन वहां भी उसे अपनी पहचान छिपानी पड़ी। अहमदाबाद हाई कोर्ट ने जिस जज एस. पी. तमांग से इसकी जांच कराई, उसकी जांच रिपोर्ट सामने आने के बाद ही यह परिवार सामने आने की हिम्मत जुटा सका।
यह कोई एक केस नहीं है। गोधरा दंगों (Godhara Riot) के दौरान नरौदा पाटिया में जो कुछ हुआ, उस पर फिल्म बन चुकी है। गुलबर्गा सोसायटी में सांसद एहसान जाफरी के परिवार और अन्य लोगों को जिस तरह जिंदा जला दिया गया, उसकी कहानी हर कोई जानता है। कुछ गवाहों को गुजरात सरकार द्वारा रिश्वत की पेशकश का मामला स्टिंग आपरेशन से सामना आ चुका है। लेकिन मीडिया की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह इन केसों के खिलाफ उठकर खड़ा हो। अहमदाबाद में टाइम्स आफ इंडिया (The Times of India) के पत्रकारों ने जब थोड़ी सी हिम्मत दिखाकर मोदी के खिलाफ लिखा तो लोकतंत्र की पक्षधर वहां की बीजेपी सरकार ने टाइम्स आफ इंडिया के उन पत्रकारों के खिलाफ केस दर्ज करा दिया।
ये सारी घटनाएं हमें 1984 की याद दिलाते हैं। जहां इस देश में खालिस्तान आंदोलन (Khalistan Separatist Agitation ) चरम पर था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जा चुकी थी। उस समय इसी तरह हर सिख को आतंकवादी समझा जा रहा था। मैं ऐसी तमाम घटनाओं का गवाह हूं। हरियाणा होकर दिल्ली आने वाली पंजाब रोडवेज की बसों को रोक लिया जाता था और हरियाणा पुलिस सिखों की पगड़ियां उतरवाकर यह देखती थी कि कहीं उनमें हथियार तो नहीं ले जाए जा रहे हैं। इन हरकतों का नतीजा क्या निकला...पंजाब में उस समय हिंदू-सिखों के बीच खाई बढ़ती चली गई। सारे सामाजिक ढांचे (Social Setup) पर करारी चोट पड़ी, जो सिख देशभक्त थे, उन्हें मजबूर किया गया कि वे आतंकवादियों के हमदर्द बनें या उन्हें अपने घरों में पनाह दें। पंजाब में जो कुछ हुआ, वह कांग्रेस की देन थी और वह आज तक माफी मांग रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस दिन देश की बागडोर संभाली, उसी दिन उन्होंने सबसे पहले सिखों से माफी मांगी।
सिख एक मेहनतकश कौम है और उसने दिखा दिया कि वे आतंकवादी नहीं हैं। विदेशों से जब खालिस्तान आंदोलन को मदद मिलना बंद हो गई तो यह किस्सा भी अपनेआप खत्म हो गया। जो लोग समझते हैं कि किसी के. पी. एस. गिल नामक पुलिस अफसर ने पंजाब में आतंकवाद खत्म किया, यह उनकी भूल है। जिन्होंने पंजाब को नजदीक से देखा है, वे इस बात को समझ सकते हैं।
इशरतजहां की मां और उसकी बहन मुशरतजहां ने भी यही कहा कि हम भारतीय हैं। हमें इस देश से उतना ही प्यार है जितना बीजेपी वालों को है। फिर भी हमें शक से देखा जाना, अफसोस की बात है।
आतंकवाद एक ऐसी समस्या के रूप में सामने आया है जिसने विशेषकर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों को कुछ ज्यादा ही परेशान कर रखा है। जिस पाकिस्तान पर भारत में आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया जाता है (जो सबूतों के आधार पर ठीक भी है), वह खुद आज सबसे बड़ा आतंकवाद का शिकार है। वहां की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या को ज्यादा दिन अभी नहीं बीते हैं। हम लोगों को और खासकर मीडिया को आतंकवाद को किसी मजहब या जाति से जोड़ना छोड़कर इसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष को देखना होगा। इसमें उन कोनों को तलाशना होगा कि आखिर क्यों अमेरिका पहले ओसामा बिन लादेन (Osama bin laden) को पालता है, क्यों इंदिरा गांधी ने जनरैल सिंह भिंडरावाले को खड़ा किया, क्यों बजरंग दल ने दारा सिंह को उड़ीसा में ईसाई मिशनरियों के खिलाफ विष वमन करने भेजा, क्यों गांधी जी की हत्या में अभी तक नाथूराम गोडसे की आड़ में किसी संगठन विशेष का नाम लिया जाता है, क्यों राजीव गांधी ने पहले लिट्टे की मदद की...क्यों प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू यूएन के सामने कश्मीर में जनमत संग्रह कराने के लिए राजी हुए...ये सुलगते सवाल हैं। इतिहास में यह सब दर्ज है। गहन छानबीन से आतंकवाद की जड़ों तक पहुंचा जा सकता है।
टिप्पणियाँ
तमांग का कहना है कि सरकारी कर्मचारी मोदी से वाहवाही के लिये इन्काउन्टर कर रहे थे, तमांग भी तो सरकारी कर्मचारी है, क्या वह केन्द्र में बैठी कांग्रेसी सरकार को महाराष्ट्र चुनावों में फायदा पहुचाने के लिये ये सब नहीं कर रहा होगा?
हर बार इलेक्शन से पहले ही मोदी के खिलाफ इस तरह के सरकारी खुलासे क्यों होते हैं?
अच्छा लिखने की कोशिश की है
मिरज में जिस तरह एक संप्रदाय के लोगों ने गणेश की मूर्तिया उखाड़ी और पाकिस्तानी झंड़े लहराये उन पर कब लिख रहे हैं
जिस तरह विदेशों से मिल रही मदद के खात्मे में खालिस्तानी आदोलन बंद हो गया उसी तरह विदेशों से इस्लामी आतंकवाद फैलाने के लिये अकूत पैसे फैंकना जिस दिन बंद हो जायेगा उसी दिन यहआज़मगढ छाप इस्लामी आतंकवाद भी खत्म हो जायेगा
कब लिख रहे हो इस आतंकवाद के पोषण के लिये विदेशी पैसे के आगमन का?
पत्रकारों का क्या है, ये तो जो भी न्यूज मिल जाती है, लपक कर चिल्लाने लगते हो, आप भी तो पत्रकार हो, आपसे क्या छिपा है
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अब निश्चित तौर पर मोदी ने तो इन्हें इन चारों के पते देकर मुठभेड़ करने के निर्देश दिए नहीं होंगे। लेकिन मुठभेड़ हो गया और खबर राष्ट्रीय मीडिया में आ गई, तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को मोदी को तो बताना ही था कि क्या हुआ? तो क्या यह संभव नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी के रवैये का फ़ायदा उठाने के लिए इन अफसरों ने एक ऐसी कहानी गढ़ी हो, जिससे मोदी तुरंत इनके साथ खड़े हो जाएं और इनके बचाव को राज्य का दायित्व मान लें?
क्या देश का कोई ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश है, जो यह दावा कर सके कि उसकी पुलिस कभी फर्ज़ी मुठभेड़ नहीं करती है या उसके यहां पुलिस थाने में हत्याएं नहीं होती हैं। अगर बाकी राज्यों में पुलिस की ऐसी कारस्तानियों के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो गुजरात में इसके लिए नरेंद्र मोदी को फांसी पर क्यों लटकाया जाना चाहिए?
ये तो हुई एक बात। दूसरी बात मजिस्ट्रेट जांच की है। जब केन्द्र सरकार भी अपने हलफनामे में मारे गए लोगों को लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी बता चुकी है, तब यह अपने आप में जांच का विषय बनता है कि मजिस्ट्रेट साहब को पूरा मामला फर्ज़ी क्यों लगा? मैं इस रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट साहब की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता, लेकिन मेरा यह कहना है कि इसे अंतिम शब्द कैसे माना जा सकता है। लोअर कोर्ट्स से साबका रखने वाले किसी भी किसान या मज़दूर तक को वहां की हालत का पता है। जब ऊंची अदालतों तक में वित्तीय या राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले आम हो चुके हैं, तो किसी एक मजिस्ट्रेट की ऐसी रिपोर्ट, जिससे साफ है कि देश के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री की जिंदगी दुश्वार हो जाएगी, पर आंख बंद कर भरोसा क्यों किया जाना चाहिए?
आखिरी बात। माननीय उच्चतम न्यायालय तक से ग़लतियां हो सकती हैं। अगर नहीं, तो गुजरात सरकार को खलनायक मानते हुए ज़ाहिरा शेख का मामला राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के बारे में क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? बाद में जब यह साफ हो गया कि भ्रष्ट वामपंथी 'मानवाधिकारवादी' तीस्ता शीतलवाड़ ने रिश्वत देकर मोदी सरकार के खिलाफ उसे अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था, तब इस पूरे मामले पर क्या किया गया? कानून की दलाली करने वाले शीतलवाड़ जैसे लोगों को क्या कोई सज़ा नहीं होनी चाहिए थी?
पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि चाहे इशरत जहां का मामला हो या कोई और, मामले को तथ्यों के नज़रिए से देखा जाए। केवल मोदी का समर्थन और विरोध के चश्मे से देखने पर तो हम किसी निष्कर्ष पर कभी पहुंच ही नहीं सकते। हां, यह जरूर है कि अगर इशरत और उसके बाकी साथी एक प्रामाणिक भारतीय नागरिक थे, तो फिर उनकी हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं।
तो क्या उचित है, क्या आतंकवादियों को अफज़ल गुरू की तरह मौत की सज़ा पाने के बाद भी संभाल कर रखा जाय? क्या कसाब की तरह सालों सिर्फ मुकदमा शुरू होने के लिये प्रतीक्षा कराई जाय?
और फिर अफज़ल गुरू के नाम पर तो अल्पसंख्यंक भावनायें भड़क उठती है, मुम्बई थाने इलाके में गणेश झांकी में अफज़ल गुरू को हथकड़ी में दिखाया गया तो इस पर कांग्रेसी सरकार ने आयोजकों को अल्पसंख्यकों की भावना भड़काने का नोटिस दे डाला...
युसुफ किरमानी, क्या अफज़ल गुरू के नाम पर आपकी भी भावना भड़क उठती है?
यह बात तो थी उन अनाम लोगों के लिए, जिन्होंने अपना बिना लिंक छोड़े फर्जी नामों से यहां टिप्पणी की। क्योंकि ऐसे ही लोग फर्जी चीजों की पैरोकारी करते हैं।
बहरहाल, मैं भी कुछ कहना चाहता हूं। पहली टिप्पणी इंडियन ब्वॉय81 की है। जिन्होंने पूछा है कि इशरतजहां का फोटो लश्कर की साइट पर क्यों मौजूद था जब वह लश्कर की मेंबर नहीं थी।
-अब आप लोग ही बताएं कि क्या कोई आतंकवादी संगठन यह बताता फिरेगा कि हमारे ये-ये लोग भारत में मेंबर हैं और उनकी फोटो और पता भी साइट पर दे देगा। यह तो सामान्य ज्ञान की बात है कि आतंकवादी संगठन और जासूस लोग किस तरह काम करते हैं। अगर इनके कहे के मुताबिक आतंकवादी संगठन अपनी साइटों पर इस तरह की सूचनाएं देंगे तो पुलिस, सीबीआई और आईबी का काम बहुत आसान हो जाएगा। इन भाई साहब ने शायद यह खबर नहीं पढ़ी कि अभी गुजरात में कुछ लोग पकड़े गए हैं जो भारत सरकार के कृषि मंत्रालय की बाकायदा सरकारी साइट की नकल करके साइट चला रहे थे और उसके जरिए लोगों से पैसा ऐंठ कर नौकरियां बांट रहे थे। ऐसे और भी मामले हैं, तथ्यों के साथ। यहां ज्यादा जगह घेरेगी।
इनका यह भी कहना है कि चुनाव से ठीक पहले इस तरह के खुलासे मोदी को नुकसान पहुंचाने के लिए होते हैं लेकिन पिछले दो चुनाव गवाह हैं कि मोदी को इसका फायदा पहुंचा है। इस बार राजनीतिक विश्लेषक भी यही बता रहे हैं।
इन्होंने मेरे इस लेख पर पर पूछा है कि मैं अगला धर्मनिरपेक्ष लेख रहा हूं। बेहतर होगा कि महोदय मेरे 90 लेख जो इस ब्लॉग पर हैं और इससे मिलते हुए विषयों पर हैं, उनको पढ़े तो मैं इनकी अगली इच्छा का सम्मान जरूर करूंगा।
भदेस भारत ने भी कुछ सवाल उठाए हैं। लेकिन मेरे सवालों का जवाब उन्होंने नहीं दिया है। मैंने इस लेख में मोदी के खिलाफ कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सत्ता के नशे में चूर इस व्यक्ति की आलोचना बहुत ही आसान है।
अगर किसी को इस देश की न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है तो उसके लिए क्या किया जा सकता है। ऐसे लोगों की टिप्पणी के हिसाब से तो पूरी न्यायपालिका को मुसलमान ही संचालित कर रहे हैं और सारे जज उनके रिश्तेदार हैं। एक लोकतांत्रिक देश के लोगों को अगर न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है तो उसका भगवान ही मालिक है। जस्टिट तमांग पर भी एक टिप्पणी की गई है, अगर आप फर्जी नाम से उन पर टिप्पणी न करते तो शायद आपको अदालत में खड़ा होना पड़ता। आपने कहा कि अदालत से भी गलतियां होती हैं, मेरी नजर में अभी तक कोई गलती नहीं आई है। आप को एक बड़ी और राष्ट्रभक्त राजनीतिक पार्टी में अध्यक्ष का सरेआम रिश्वत लेना नहीं दिखाई देता लेकिन न्यायपालिका में आप सुराख तलाश रहे हैं। ऐसी पार्टी जो जिन्ना को महान बनाने पर तुली है, उसमें आपको अच्छाई नजर आती है। आप धन्य हैं। आप ही स्वयंभू राष्ट्रभक्त हैं मेरे प्रभु।
और अफजल गुरू की फांसी की बात आपने उठाई है। अदालत का फैसला है, भारत का मुसलमान उस फैसले के खिलाफ न तो है और न रहेगा। यह फैसला लेना सरकार का काम है कि वह उसे फांसी कब देगी। अगर आपकी विचारधारा वाले दल को लोग बहुमत देते और वह सत्ता में होती तो आप उससे यह सवाल जरूर पूछते। मैं जल्लाद की नौकरी नहीं करता कि अफजल को फांसी पर लटका दूं।
कसाब को सभी ने मुंबई के रेलवे स्टेशन पर गोलियां चलाते सभी ने देखा। उस पर भारतीय संविधान के तहत मुकदमा चल रहा है। अदालत उस पर अपना फैसला सुनाएगी, एक पाकिस्तानी नागरिक से भला यहां के मुसलमानों को क्यों हमदर्दी होने लगी। मुंबई के मुसलमानों ने तो उन आतंकवादियों को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से ही इनकार कर दिया जिन्होंने मुंबई में बेगुनाहों का कत्ल बहाया।
माफ कीजिएगा कि अगर आप यह सोचते हैं कि मैं एक मुसलमान होने के नाते यह सब लिखता हूं तो यह आपकी गलतफहमी है। इस देश में असंख्य लोग इस मुद्दे को उठा रहे हैं। भड़ास4मीडिया वेबसाइट पर आप वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह का लेख पढ़ सकते हैं। आज के अखबारों के संपादकीय भी पढ़ सकते हैं। आप सभी जुनून में आए बिना 1984 के हालात को याद कीजिए, जवाब जरूर मिलेगा।
देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिए
-पुण्य प्रसून वाजपेयी
सत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया ।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों।
हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं।
घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये।
--यह लेख पूरा नहीं है क्योंकि गूगल ने यहां शब्दों की सीमा 4096 तय की हुई है। इसलिए इस लेख को आप सीधे उनके ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं। लिंक है-
http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2009/09/blog-post_09.html
सबसे पहले मैं भदेस जी का साधुवाद करना चाहता हूँ उनके इन अंतिम शब्दों के लिए "हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं"
बहुत ही बेहतरीन शब्दों में उन्होनें वोह कह दिया जो मेरे और तमाम मुसलमानों के दिल की बात है.
मैं भी एक मीडिया कर्मी हूँ और सारी दुनिया घूम चूका हूँ, हर बार विदेश जा के अहसास होता है अपनी जन्म भूमि, अपनी ज़मीन से लगाव का. यह देश मेरा है और मैं मर के इसी की मिटटी में दफन होना चाहता हूँ.
इस देश को प्यार करने के लिए मुझे किसी राजनितिक पार्टी की मेम्बरशिप या नरेन्द्र मोदी की हिमायत नहीं चाहिए.
बार जो बात दिल को दुख जाती है वोह यह की जब किसी भी घटना के बाद हम मुसलमानों को अपने देश प्रेम का सबूत देना पड़ता है. मुझे याद है वह दुर्व्यवहार जो जेट airways की एक मुसलमान एयर होस्टेस के साथ एक पैसेंजर ने २६ नवम्बर २००८ को यह कह कर किया था की "तुम मुस्लमान हमारे देश के साथ ऐसा क्यों कर रहे हो?" यह खबर सभी मुख्य समाचार पत्रों में छपी पर किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की.
१० में से ९ मेरे मित्र या तो सिख हैं या हिन्दू और मुझे उनसे इतनी ही मुहब्बत है जितनी मेरे बड़े भाईसाहब से ...फिर भी हर बार किसी भी हादसे के होने पर मुझे मेरी देशभक्ति फेसबुक और ऑरकुट पर कमेंट्स लिख कर साबित करनी पड़ती है.
क्या इस नफरत, शक और गन्दी राजनीती का कोई अंत है???
बहरहाल, परिस्थितियां इंसान को सिखा देती हैं कि वह कैसे इन हालात का सामना करे। वह विचलित न हों। समय इसका जवाब देगा।
क्या कभी आपने सोचा है की आपको अपनी देशभक्ति का सुबूत क्यों देना पड़ता है?
यह अविश्वास कोई एक दिन में नहीं पैदा हुआ. विभाजन की टीस, पाकिस्तान के साथ चार युद्ध, आये दिन होने वाले दंगे (जिनकी शुरूआत अक्सर एक कौम की छुई-मुई सी धार्मिक भावनाओं के आहत होने या फिर अकारण भी होती है), साथ ही आतंकवादी घटनाओं में भारतीय मुसलामानों की संलिप्तता, भारतीय राष्ट्रीय प्रतीकों का निरादर और देश से ज्यादा अपने धर्म को महत्व देने की प्रवृति ने इस अविश्वास को पैदा किया है.
लेकिन इनसे ऊपर एक कारण है जो सारे मुस्लिम समाज को शक के दायरे में खडा करता है वह है- देशविरोधी गतिविधियों पर अपने कौम के लोगों की संलिप्तता साबित होने पर भी खामोश रहना और कमोबेश उनके बचाव का प्रयास करना. देश की संसद पर हमले की साजिश रचने वाले अफजल को सुप्रीम कोर्ट फांसी की सजा सुना चुकी है. इसी मुद्दे पर इस हमले में शहीद हो चुके जवानों के परिजन सरकार द्वारा दिए गए मैडल राष्ट्रपति को लौटा चुके हैं. क्या कभी किसी मुस्लिम हस्ती या मुस्लिम संगठन ने उसे सजा देने की मांग की?
जब कभी, कहीं पर कोई आतंकवादी घटना होती है या फिर कोई दंगा होता है जिसमें मुस्लिम समाज की भागीदारी होती है तो सारा मुस्लिम समाज चुप्पी साध जाता है और उसे छुपाने या सही साबित करने की कोशिश करता है. यदि आपके समाज में कुछ दागी लोग है और अधिकांश देशभक्त हैं तो फिर क्यों नहीं वे बहुसंख्यक लोग स्वयं उन्हें चिन्हित कर कानून के हवाले कर देते हैं? जब कानून अपना काम करता है तो क्यों मुस्लिम मोहल्लों की गलियों से पथराव, बमबाजी और गोलियां चलती हैं? इस सब का क्या अर्थ लगाया जाये?
जब तक आप इस तरह खामोश रहेंगे शक की नजर आप पर उठती ही रहेगी...........
एक मिनट ...मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है |
एक आदमी ने उनसे पूछा कि सारी रचना तो उसी की है कोई कहाँ जाए ? फ़कीर ने कहा गुनाह ऐसी जगह किया जाए जहाँ वह देख न सके |दूसरे आदमी ने कहा यह नामुमकिन है , वह सबके दिलों से वाकिफ है |
तब उन्होंने अर्ज़ किया कि मृत्यु के फ़रिश्ते जब लेने आयें तब कहना कि ठहर पहले तौबा तो कर लूँ |
...यह भी मुमकिन नहीं , वह नहीं रुकेंगे |
तब गुनाह करते ही क्यूँ हो ?
मौत से पहले तौबा क्यूँ नहीं कर लेते ?
मुझे नहीं पता कि गुनाह किसने किया है पर जिसने भी किया है अच्छा होगा कि वह आगे के लिए तौबा कर ले |
इस वाक्यात का पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि इतने गिले शिकवे, इतनी नफरतें , इतनी तल्खियाँ हमारे दिलों में कब भर गयीं हमें पता ही न चला |
कहाँ गए वो जिंदादिल लोग ? रह गए हैं सिर्फ मुर्दा दिल ,गाफिल दिल या बीमार दिल | दिल गर हो तो दरिया सा उदार दिल या दरिया दिल , जमीन जैसी आजिजी करता दिल और आफ़ताब सा शफकत करता दिल |
हिन्दू और मुसलमान फूल और पत्तों कि तरह हैं मेरे भाई | दोनों को कुछ देर साथ रख दो तो पत्तों में से भी फूलों सी खुशबू आने लगती है |
अब आप पूछेंगे कि कौन फूल है और कौन पत्ता ?
कभी कोई हिन्दू गुल बनकर खुशबू फैलता है तो कभी कोई मुसलमान लेकिन पत्ते तो उनका साथ देते हैं न ?
उसकी दी हुई ज़िन्दगी बेशकीमती है , व्यर्थ गवां कर बे-अदबी न करें |
अक्सर ऐसा होता है कि हम यह भूल जाते हैं कि सबसे पहले हम एक इंसान हैं और इंसानियत ही हमारा सबसे बड़ा मज़हब है | इसलिए बंदगी करें तो इंसानियत की , लौ जलाएं तो सिर्फ और सिर्फ इंसानियत की |
शुक्रिया अपूर्व !
मीनू भागिया जी आपने बहुत अच्छे लफ्जों में अपनी बात कही है, इसके लिए हालांकि शायदा ने शुक्रिया अदा किया है लेकिन मैं भी आपका शुक्रिया अदा करना चाहूंगा।
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हिन्दू और मुसलमान फूल और पत्तों कि तरह हैं मेरे भाई | दोनों को कुछ देर साथ रख दो तो पत्तों में से भी फूलों सी खुशबू आने लगती है |
अब आप पूछेंगे कि कौन फूल है और कौन पत्ता ?
कभी कोई हिन्दू गुल बनकर खुशबू फैलता है तो कभी कोई मुसलमान लेकिन पत्ते तो उनका साथ देते हैं न ?
उसकी दी हुई ज़िन्दगी बेशकीमती है , व्यर्थ गवां कर बे-अदबी न करें |
अगर हमारे आप जैसे लोग इस बहस को चला रहे हैं तो हमारा मकसद सिर्फ यही है कि ऐसे भारत का निर्माण जिसके केंद्र में मानवता और एकजुटता सब कुछ हो। हम लोग खुद को इस देश का जिम्मेदार नागरिक मानते हैं, तभी तो यहां शांति चाहते हैं। पर उस शांति के लिए माहौल चाहिए। कौन बनाएगा वह माहौल...मैंने कुछ दंगों की कवरेज की है पुलिस किन मोहल्लों से किस तरह के हथियार बरामद करती है, यह भी जानता हूं। दरअसल, जो चीजें हमारे सामने पुलिस या मीडिया जिस रूप में पेश करता है, हकीकत उससे जुदा होती है।
वी.पी. सिंह के समय अचानक आरक्षण विरोधी आंदोलन इतना जोर पकड़ गया कि युवक खुदकुशी करने लगे। मीडिया में भी यही छप रहा था लेकिन हमारे जैसे कुछ उत्साही लोगों ने एक-एक केस की छानबीन की तो पता चला कि कहानी कुछ और है। मैं यहां आरक्षण की वकालत नहीं कर रहा हूं। उस दौरान अगर किसी लड़की ने घर में जान दे दी और सुसाइड नोट भी छोड़ गई तो भी उसके घर वालों ने यही बताया कि उसने आरक्षण आंदोलन के चलते खुदकुशी की है। किसी ने प्रेमिका के चलते जान दी तो भी यही बताया गया।
वह एक रिसर्च वर्क था जो अब भी मौजूद है और आप उसका अध्ययन कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि जिस तरह का माहौल कुछ लोग बनाना चाहते हैं, वह बना ही लेते हैं, किसी भी माध्यम से।
सांप्रदायिकता और आतंकवाद की समस्या हर देश में किसी न किसी रूप में मौजूद है। हर देश अपने ढंग से मौजूद है। अमेरिका में ट्विन टॉवर को आतंकवादियों ने उड़ा दिया था, अमेरिका ने उसके साजिशकर्ताओं को पकड़ा तो तुरंत उन्हें फांसी पर नहीं लटकाया। मुकदमा चला, छानबीन हुई, तथ्य पेश किए गए। आतंकवादियों ने खुद भी बयान दिया। भारत में भी संविधान लागू है। हमने कानून बनाए हैं, आखिर उसका पालन तो करना पड़ेगा न। अगर भारत सरकार अफजल गुरु को फांसी पर नहीं लटका रही तो उससे भारत के मुसलमानों का क्या लेना-देना, उसे आप क्यों बार चिढ़ाते हैं। क्योंकि आप अफजल गुरु को एक ऐसी चीज का प्रतीक बनाना चाहते हैं जिससे आम भारतीय मुसलमान को भी उससे जोड़ दिया जाए।
भारतीय मुसलमान जिन्ना को तो अपना नेता नहीं मानती लेकिन आप जबरन थोप रहे हैं कि जब मैं हिंदू होकर मान रहा हूं तो आप क्यों नहीं मान लेते। आप भी मान लो और जब वह मान लेगा तो आप फिर कहेंगे कि देखो कितने नमक हराम निकले, नेहरू जी को मानने की बजाय जिन्ना को मान रहे हैं।
कहां तक लिखें डॉक्टर साहब...थोड़ा संकीर्णता से ऊपर उठकर सोचना होगा। तभी कुछ बात बनेगी। शुचिता और समरसता की परिभाषाएं किसी खास संगठन या पार्टी की गढ़ी हुई नहीं चलेगी, उसे बदलना पड़ेगा। वरना वक्त बदल देगा।
इतिहास गवाह है।
आपका ये लेख बहुत ही अच्छा है और वास्तविका से रूबरू करवाने वाला है।
धन्यवाद