जिहाद का गेटवे

नोट ः नवभारत टाइम्स, दिल्ली में  03 जून 2016 के अंक में प्रकाशित मेरा आलेख

अमेरिका के अरलैंडों, फ्लोरिडा से लेकर इस्तांबुल के अतातुर्क एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट का नाम सामने बार-बार आया है। अमेरिका में 9/11 के बाद वहां के बारे में दावा किया गया था कि अमेरिका ने अपनी सुरक्षा इतनी मजबूत कर ली है कि वहां अब कुछ भी होना नामुमकिन है। लेकिन हाल ही में हुई घटनाओं ने इस सुरक्षा कवच की धज्जियां उड़ा दीं। आखिर कैसे आईएस इतना मजबूत होता जा रहा है और दुनिया की सारी सुरक्षा एजेंसियां उसके सामने बौनी साबित हो रही हैं।   

अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी आफ ह्यूमन राइट्स के डायरेक्टर डेविड एल. फिलिप्स ने एक रिसर्च पेपर जारी किया है, जिसमें कुछ कड़ियों को जोड़ते हुए जवाब तलाशने की कोशिश की गई है। डेविड अमेरिकी विदेश मंत्रालय में बतौर विदेशी मामलों के विशेषज्ञ के रूप में नौकरी भी कर चुके हैं। वह कई थिंक टैंक से भी जुड़े हुए हैं।
उनके रिसर्च पेपर के मुताबिक तुर्की का बॉर्डर आईएस और दूसरे आतंकी संगठनों के बीच जिहाद का गेटवे के रूप में जाना जाता है। 

आतंकवादियों का यह कोर्ड वर्ड बताता है कि तुर्की के बॉर्डर का नियंत्रण किस तरह किया जा रहा है। जिहाद की आड़ लिए हुए आतंकी जब तुर्की का बॉर्डर पार करते हैं तो या तो तुर्की सेना के जवान अपनी नजरें फेर लेते हैं या फिर बॉर्डर गार्ड 10 यूएस डॉलर लेकर उन्हें सीमा पार करा देते हैं। ऐसा नहीं हो सकता है कि तुर्की सरकार की जानाकारी के बिना इतने बड़े पैमाने पर ये खेल खेला जा रहा है। 2011 में लीबिया में गद्दाफी की सरकार का खात्मा करने के बाद बड़े पैमाने लीबियाई सेना के हथियार लूट लिए लिए गए थे। यही हथियार तुर्की के रास्ते सीरिया पहुंचाए गए। यही गेटवे पूरी दुनिया में आईएस के आतंकवादियों के भेजने का रास्ता भी है। तुर्की जब चाहे इस गेटवे को बंद करके आईएस की कमर तोड़ सकता है लेकिन उसने अभी तक ऐसा नहीं किया। तुर्की एक नाटो देश है। यूरोपियन यूनियन में है। क्या नाटो देश जिनकी सेना अफगानिस्तान में आतंकवादियों को खत्म करने के लिए तैनात हैं, वो इस गेटवे से अनजान हैं। यह कोई बड़ी साजिश लगती है।

....और वो रैट लाइन
लीबिया में गद्दाफी के तख्ता पलट में सीआईए का हाथ रहा है। पुल्तिजर पुरस्कार से सम्मानित खोजी पत्रकार सैमूर हर्श ने भी लिखा है कि सीआईए के दस्तावेजों में इस गेटवे का जिक्र रैट लाइन के रूप में किया गया है। सीआईए ने जिस ट्रांसपोर्ट रूट का इस्तेमाल किया था वो यही रैट लाइन यानी जिहाद का गेटवे है। यानी एक ऐसा रास्ता जहां आतंकी चूहे की तरह रास्ता पार करते हैं।
तुर्की विश्व मीडिया की आलोचना से बचने के लिए जब-तब आतंकियों के छोटे-मोटे समूहों पर कार्रवाई करता नजर आता है। एक रोचक तथ्य जानिए। पिछले दिनों तुर्की ने कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के लोगों को आतंकवादी बताते हुए जबरदस्त बमबारी की। वही पीकेके जिनके बारे में यूएस राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि आईएस से जमीनी लड़ाई में पीकेके सबसे प्रभावशाली लड़ाकू फोर्स है, जिसकी मदद की जानी चाहिए।

कहां होता है आतंकियों का इलाज
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अच्छा ये बताइए कि आईएस के जो बड़े आतंकी घायल होते हैं, उनको बेहतरीन इलाज कहां और कैसे मिलता है। उसी गेटवे से उनको टर्की लाया जाता है और वहां उन्हें बेहतरीन मेडिसल सुविधा मिलती है। पिछले दिनों जब रूस के राष्ट्रपति ने जब आरोप लगाया था कि कैसे आईएस सीरिया और इराक के तेल ठिकानों पर कब्जा करके तेल का अंतरराष्ट्रीय धंधा कर रहा है...और कैसे कुछ देश इसमें शामिल हैं। पुतिन की उस सूची में सबसे पहले नाम तुर्की का था। हुआ यह था कि आईएस के ठिकानों पर बमबारी करते हुए रूसी लड़ाकू विमानों ने कुछ तेल टैंकर उसी रैट लाइन या गेटवे से तुर्की में दाखिल होते देखे तो सारा माजरा समझ में आ गया।
पुतिन के आरोप के बाद तुर्की ने रूस के एक लड़ाकू विमान को अपनी सीमा के उल्लंघन के आरोप में मार गिराया लेकिन तुर्की ने रैट लाइन के जरिए अपनी सीमा में दाखिल होने वाले आईएस के टैंकरों पर एक भी बम नहीं गिराया। इस वक्त आईएस को इस गेटवे के जरिए तेल की स्मगलिंग से हर महीने 50 मिलियन यूएस डॉलर की आमदनी होती है।

नाटो का स्टैंड
सीरिया में कई देशों की दिलचस्पी है। कुछ देश बशर अल असद की सरकार को हटाना चाहते हैं, कुछ उसे रखना चाहते हैं। कुल मिलाकर नाटो देश बशर के खिलाफ हैं। सीरिया में बशर के खिलाफ अकेले आईएस ही मैदान में नहीं है। वहां अल-शाम, अल-नुसरा, अल-कायदा सीरिया ब्रांच भी लड़ रहे हैं लेकिन इनका मकसद बशर को अपदस्थ करना है। लेकिन नाटो देश इन तीनों आतंकी संगठनों को आतंकी नहीं मानते। बता दें कि नाटों देशों में यूएस, यूके, फ्रांस, डेनमार्क, नार्वे सहित 28 देश हैं। नाटो के दो-चार देशों को छोड़कर कोई ऐसा देश नहीं बचा जहां आईएस का जाल नहीं फैला है। वजह यही है कि तुर्की के रास्ते आईएस आतंकियों का इन देशों में आना-जाना है। कुछ रिफ्यूजी कैंपों में शरण लेकर भी पहुंचे थे।     

पत्रकार की रहस्यमय मौत
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अमेरिकी पत्रकार सेरेना शिम की मौत रहस्यमय परिस्थितयों में 19 अक्टूबर 2014 को हुई थी। उन पर तुर्की ने जासूस होने का आरोप लगाया और उसके दो दिन बाद एक कथित कार हादसे में उनकी मौत हो गई। उनके चैनल और अखबार ने इस मौत पर तमाम तरह के शक जाहिर किए। वह वॉर रिपोर्टर थी और कोबान शहर पर जब आईएस ने कब्जा किया तो उस वक्त वो वहां मौजूद थीं। उन्होंने अपनी कई रिपोर्ट में लाइव दिखाया था कि कैसे जिहादी गेटवे या रैट लाइन से आईएस आतंकवादी तुर्की में बेरोकटोक आते हैं। उन्हें वहां हथियार मिलते हैं। इन रिपोर्टों के बाद सेरेना को तुर्की अधिकारियों ने कथित तौर पर धमकियां दी थीं। इसी साल मार्च में तुर्की के अति लोकप्रिय अखबार ज़मन को सरकार ने बंद करवा दिया। यह अखबार स्वतंत्र रिपोर्टिंग करता था। इसने भी गेटवे पर कई खबरें तस्वीरों के साथ छाप दी थीं।

सभी का घर झुलसेगा
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तुर्की खुद को एक लोकतांत्रिक, शांतिप्रिय देश बताता है। वहां की कला, संस्कृति इसके बारे में कुछ-कुछ पुष्टि भी करती नजर आती है लेकिन उसके जिस गेटवे से आतंकवादी निकलकर दुनिया के दूसरे देशों में फैल रहे हैं, अब उसकी आग में तुर्की भी झुलस रहा है। अता तुर्क एयरपोर्ट पर हुई घटना और इससे पहले की कुछ घटनाएं यही बता रही हैं कि अगर दूसरे का घर फूंकोगे तो अपने भी हाथ तो जरूर झुलसेंगे। लगता यही है कि आईएस के भीतर ही कोई गुट तुर्की की किसी बात या नीति से अचानक नाराज होकर तुर्की को भी झुलसाना चाहते हैं। अता तुर्क एयरपोर्ट पर आतंकी हमले के बाद वहां के राष्ट्रपति Recep Tayyip Erdogan ने भी हमले के पीछे आईएस का इशारा किया था लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि आईएस के किस गुट का ये काम था। अमेरिका और फ्रांस में आतंकियों ने अपनी पैठ बना ही ली है। तस्वीर यही उभर रही है कि जिन-जिन देशों ने किसी न किसी रूप में आतंकी संगठनों को खड़ा किया या मदद की, उनके हाथ भी इस आग में झुलसेंगे।  


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