सुनों औरतों...हिन्दू राष्ट्र में शूद्र और मलेच्छ गठजोड़ पुराना हैः ज़ुलैख़ा जबीं
“हिन्दूराष्ट्र में औरतों की ज़िन्दगी के अंधेरों को शिक्षा के नूर से शूद्र और मलेच्छ (मुसलमान) ने मिलकर जगमग उजियारा बिखेरा है....."
तमाम (भारतीय) शिक्षित औरतों, आज के दिन एहतराम से याद करो, उन फ़रिश्ते सिफ़त दंपति जोड़ों (सावित्रीबाई-जोतिबा फुले, फ़ातिमा शेख़-
उस्मान शेख़) को जिनकी वजह से तुम सब पिछले डेढ़ सौ बरसों से देश और
दुनियां में कामयाबी और तरक़्क़ी के झंडे लहराने लायक़ बनी हो...
1 जनवरी 1848 में पुणे शहर के
गंजपेठ वर्तमान नाम फुलेवाड़ा में लड़कियों के लिए पहला
स्कूल उपरोक्त दोनों जोड़ों के प्रयासों से उस्मान-फ़ातिमा
शेख़ के घर में खोला गया था। ऐ औरतों, भारत के इतिहास में हमारे लिए - तुम्हारे लिए जनवरी खास महीना है। जिसमें फ़ातिमा शेख़ नो जोतिबा फुले के सपनों को परवान चढ़ाया।
हालांकि आप में से
बहुतों को ये बात आश्चर्यचकित करनेवाली लगेगी...आप में से ज़्यादातर लोग
सोचेंगे कि...."हमारी कही बात अगर सच होती तो आपके इतिहास में ज़रूर दर्ज होती, और आपको बताई भी जाती"...?
आपका ये सोचना सही
है कि आपको बताया नहीं गया..... लेकिन सवाल ये है के इतनी बड़ी, महत्वपूर्ण बात
आपको क्यों नहीं बताई गई....?
तो सुनिए इनमें
जो पहला जोड़ा है सावित्रीबाई और जोतिबा फुले (पति पत्नी) हैं वे आपके वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्र जाति में पैदा होने की वजह से अछूत माने जाते थे।
और जो दूसरा जोड़ा
है फ़ातिमा और उस्मान शेख़ हैं, वे बहन-भाई हैं जो आज से 173 बरस पहले आर्थिक
तौर पर संपन्न और सशक्त घराने से ताल्लुक़ रखते थे।
चूंकि उस दौर में
संविधान नहीं था, मनुस्मृति का विधान, नियम, क़ायदे, क़ानून चलाए जाते
थे। जहां औरतों के लिए अक्षर ज्ञान का सोचना भी महापाप माना जाता था और
शूद्रों के बहिष्कार किए जाने के कारण तो सदियों सदियों से आपको दूध मिली
घुट्टी के ज़रिए बताए जाते रहे हैं... ये तो आप समझ ही गये होंगे...
उस दौर में मनु विधान के मुताबिक़ शूद्र दंपति के कांधे से कांधा मिलाकर ये मुसलमान (मलेच्छ) बहन-भाई भी क़दमों से क़दम मिला कर शिक्षा रूपी क्रांति बीजों की बुआई कर रहे थे। इसीलिए कथित श्रेष्ठ वर्ग की दबंगई ने इन्हें भी अपने इतिहास लेखन से बाहर रखा। वो तो भला हो अमेरिकन छात्रा गेल आम्वेट का जिन्होंने अपनी किताब में जोतिबा फुले के काम को रेखांकित किया और वहीं से सावित्रीबाई और आगे चलकर सावित्रीबाई समग्र वाड़्गमय में उनके लिखे ख़तों के ज़रिए फ़ातिमा शेख़ का नाम, किरदार और काम का नन्हा सा झरोखा दिखलाई पड़ा ( जिस पर लेखिका का शोध कार्य जारी है)।
जोतिबा को बचपन से
पढ़ने का बड़ा शौक़ था। जोतिबा फुले भी अमीर, असरदार और रुसूख रखने वाले नामी बिल्डर पिता के इकलौते बेटे थे। किताबों से उनका प्रेम देखकर पेशवाई साम्राज्य थरथर कांपने लगा। मनुस्मृति के उपासकों से जोतिबा के पिता पर दबाव डलवाकर पहले तो जोतिबा को स्कूल से बाहर करवा कर खेत के कामों में लगवा दिया गया... लेकिन उनके ज्ञान की प्यास कम होने के बजाय और बढ़ गई। वे खेतों में काम के बाद पढ़ाई करते। घर आकर सावित्रीबाई को पढ़ाते।
इसी बीच इनके पिता पर वहां के धार्मिक दबंगों का विरोध/दबाव बढ़ने लगा। आख़िरकार दबंग ठेकेदारों की तरफ़ से ये फ़रमान निकलवा गया अगर जोतिबा हमारे धार्मिक आस्था का अपमान करना नहीं रोकते, पुस्तकों से दूरी नहीं बनाते तो उनके पिता को भी पुणे से बाहर कर दिया जाएगा।
आख़िरकार पिता ने
इकलौते बेटे को घर से बेदख़ल कर दिया। पति को जाता देख सावित्रीबाई भी ससुराल
का सुख आराम त्याग कर पति के साथ हो लीं।
ये बात जब उनके
दोस्त उस्मान शेख़ को मालूम पड़ी तो वे जोतिबा को अपने घर ले आए और जोतिबा
को जब तक वो चाहे वहां रहने, अपनी मर्ज़ी से पढ़ाई करने की इजाज़त दे दी।
दोस्त का खुला साथ
मिला तो एक दिन बातों बातों में जोतिबा ने दोस्त के सामने अपने दिल की
बात खोल दी के वे औरतों को शिक्षा के प्रकाश में लाना चाहते हैं जिससे
औरतों को भी सम्मान से जीने का हक़ मिले....इसके लिए वे औरतों/लड़कियों का
स्कूल खोलना चाहतें हैं।
उस्मान शेख़ ने भी बग़ैर किंतु परंतु किए अपने घर का एक हिस्सा जोतिबा के हवाले कर दिया। और इस तरह तथाकथित अखंड हिन्दू राष्ट्र में औरतों की ज़िन्दगी के अंधेरों को शिक्षा के नूर से जगमगाने वाले, एक शूद्र और दूसरे मलेच्छ (मुसलमान) ने मिलकर उजियारा बिखेरा है।
जिनके त्याग और
बलिदान की वजह से ही आप औरतें देश व दुनिया के हर
क्षेत्र में पूरे आत्म सम्मान के साथ, अपनी कामयाबी के
झंडे गाड़ रही हो।
क्या अब भी मुट्ठीभर
नशेड़ी चिंदुओं का दिया नफ़रती ज़हर पीकर तुम अपने ही उन शूद्रों और मलेच्छों (मुसलमानों) को देशद्रोही
कहोगी, जिन्होंने तुम्हें निरीह अबला भोग्या, ग़ुलामी के पिंजरे
से आज़ाद करके, एक सभ्य आज़ाद सशक्त नारी के तौर पर पूज्या के साथ इंसान भी बनाने, मनवाने में अपनी जान, माल ख़ुशी से न्यौछावर कर दिए हैं।
उन्हीं की संतानों
को विदेशी कहने वाले देश बेचू, ग़द्दारों के कहे पर उन्हीं के ख़िलाफ़ नफ़रत के तलवार,
त्रिशूल कब तक
चुभोती रहोगी...?
अब बस भी करो.... समझ से काम लो।
देश को गर्त में ढ़केलने वाले देशद्रोहियों की पहचान कर अपनी एकता की ताक़त से उनकी गर्दनें मरोड़ कर तोड़ दो।
जाग जाओ।
इससे पहले के तुम दोबारा से ग़ुलाम बना ली जाओ...!!!
(लेखिका ज़ुलैख़ा जबीं स्वतंत्र पत्रकार के अलावा तमाम जन आंदोलनों और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
टिप्पणियाँ
Aap ladies k liye ek misal hain .....