बोलो, अंकल सैम, पूंजीवाद जिंदाबाद या मुर्दाबाद


एक कम्युनिस्ट देश (communist countries) के रूप में जब रूस टूट रहा था तो उस वक्त अति उत्साही लोगों ने लहगभग घोषणा कर दी थी कि पूंजीवादी देश (capitalist countries) ही लोगों को तरक्की के रास्ते पर ले जा सकते हैं। अमेरिका को इस पूंजीवादी व्यवस्था (capitalism) का सबसे बड़ा रोल मॉडल बताया गया। रूस से टूटकर जो देश अलग हुए और उन्होंने कम्युनिज्म मॉडल को नहीं अपनाया, उन देशों ने कितनी तरक्की की या आगे बढ़े, इस पर कोई चर्चा नहीं की जाती। लेकिन अब अमेरिकी पूंजीवाद के खिलाफ अमेरिका में ही आवाज उठने लगी है। वहां के प्रमुख अखबार वॉशिंगटन पोस्ट में इस सिलसिले में कई लेख प्रकाशित हुए जिसमें मौजूदा आर्थिक मंदी, वहां के बैंको के डूबने की वजह, इराक में जबरन दादागीरी के मद्देनजर पूंजीवादी व्यवस्था को जमकर कोसा गया है। इसके लिए जॉर्ज डबल्यू बुश की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया है। इतना ही नहीं उसमें कहा गया है कि कहां तो हम रोल मॉडल बनने चले थे और कहां अब हमारा अपना तानाबाना ही बिखर रहा है। हमारी नीतियों की वजह से कुछ अन्य देश भी मंदी (recession) का शिकार हो रहे हैं। कल तक जो देश हमारे लिए एक आकर्षक बाजार (attractive markets) थे, वहां भी लेने के देने पड़ रहे हैं।

अब आइए भारत की बात करते हैं। भारत ने अमेरिका का मॉडल अपनाया या नहीं अपनाया। इस पर हर कोई सहमत नहीं है। काफी सारे लोग इसे मनमोहनॉमिक्स बताते हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह व्यवस्था भी पूंजीवाद के इर्द-गिर्द ही है। यहां भी प्राइवेट बैंकों को बढ़ाया गया, रीयल एस्टेट (real estate) का बूम और रीटेल सेक्टर (retail sector) का गुŽबारा इतना फुलाया गया कि कुल मिलाकर इंडिया शाइनिंग और भारत के इकनॉमिक पॉवर (economic power) बनने की बातें की जाने लगीं। प्राइवेट बैंकों की सांसे फूल रही हैं, यह अब किसी से छिपा नहीं है। आईसीआईसीआई बैंक के शेयर कहां पहुंच चुके हैं, यह सामने आ चुका है। इस बैंक को बार-बार बयान देकर अपनी स्थिति साफ करनी पड़ रही है। आज इस बैंक ने अपने कस्टमरों को एसएमएस कर बताया कि आप के डिपाजिट इस बैंक में सेफ हैं, हमारे पास बहुत पैसा है, आप लोग चिंता न करें। रीयल स्टेट को तो जैसे सांप सूघ गया है। मकानों की कीमतें इस ऊंचे दर्जे तक पहुंचाई गईं कि आम लोगों की पहुंच से फ्लैट दूर हो गए। जिन लोगों ने बैंकों से कर्ज लेकर फ्लैट खरीदे थे, उनको किस्तें भारी पड़ रही हैं। रीटेल सेक्टर के जरिए हर छोटे-बड़े शहरों में जो मॉल कल्चर (mall culture) फैलाया गया, वहां अब ग्राहक नहीं हैं। एक कृषि प्रधान देश में एग्रीकल्चर के बजाय मॉल कल्चर का स्तुतिगान होने लगा और सावन के अंधों को चारों तरफ हरियाली नजर आने लगी।

मैं यह नहीं कह रहा कि यह सब अच्छा नहीं था या आगे यह सब चीजें हुईं तो अ'छा नहीं होगा। अब देखिए कि इंदिरा गांधी ने अपने समय में कुछ प्राइवेट बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके उन्हें राष्ट्रीयकृत कर दिया। अब अमेरिका वही करने जा रहा है। उसने अपने यहां के कई प्राइवेट बैंकों की सूची बनाई है जिनका अधिग्रहण वहां की सरकार कर लेगी। दरअसल, अपने यहां जो काम पहले किया जाना चाहिए था, वह नहीं हुआ। सबसे पहले अपने देश में इन्फफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने की जरूरत थी और उसके बाद हम लोग बाकी चीजों की तरफ बढ़ते। आपने फ्लैट खड़े करवा दिए लेकिन वहां न तो सड़क है और न पीने का पानी। आपने बड़े-बड़े मॉल खुलवाकर अरमानी जैसे ब्रैंड को आने की दावत दे दी लेकिन भारत के जो ब्रैंड अरमानी बन सकते थे, उन्हें आपने आगे नहीं बढऩे दिया। अपने यहां के राष्ट्रीयकृत बैंको को और बढ़ावा देने की जरूरत थी लेकिन आपने ऐसे बैंकों को बढ़ावा दिया, जिनके मालिक साल में एक बार जेल की हवा खा लेते हैं, जिन पर शेयर बाजार को ऊपर नीचे करने का खेल आता है। ऐसे लोगों के बैंक कितने विश्वसनीय हैं, यह इनकी मार झेल रहे कस्टमरों से पूछा जा सकता है। हालांकि इसके साथ यह भी सही है कि प्राइवेट बैंक इसलिए भी तेजी से फैले कि सरकारी बैंकों का रवैया सरकार जैसा ही था। लेकिन ऐसे बैंकों को ठीक करने के लिए आप कानून बना सकते थे। आपने सरकारी बैंकों की नेटवर्किंग देर से शुरू की और प्राइवेट बैंक इसमें बाजी मारते हुए आगे निकल गए। और भी कई ऐसे मोर्चे हैं जहां आपने समाज को अमीर-गरीब में बांटने का काम किया। शिक्षा का क्षेत्र इसमें सबसे प्रमुख है। आज हालात ये हैं कि जिनके पास पैसा होगा, उनके बच्चे ही अच्छी शिक्षा और हायर स्टडी कर पाएंगे। नौकरीपेशा या लोअर मिडिल क्लास (lower middle ) अपने बच्चों को जैसे-तैसे पढ़ा लेंगे लेकिन अच्छी हायर स्टडी उनके लिए भी सपना होगी।
बहरहाल, इन हालात से क्या सबक लिया जा सकता है, यह तो हर एक का व्यक्तिगत मामला है। लेकिन पूंजीवाद की माला जपने वाले और कम्युनिज्म को कोसने वाले इन हालात का विश्लेषण किस प्रकार करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल तो पूंजीवाद तो हार ही रहा है। बाजार पर नजर रखिए, अभी पूंजीवाद का भांडा अच्छी तरह फूटना बाकी है।

टिप्पणियाँ

Satyajeetprakash ने कहा…
पूंजीवाद की दूकान यूं ही नहीं इतनी फली-फूली, प्रबंधकों के बल पर कुछ ही सालों में पूंजी दोगुना-तिगुना करने का फार्मूला में ठगी, धोखेबाजी, एक तरह से कहें तो लूट शामिल है. आखिर मैंनेजरों को यही तो सिखाया जाता है. लेकिन काठ का हांडी दुबारा तो आग पर नहीं चढ़ती है ना.
अब मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद सही लगने लगा होगा और पूंजी में किया गया उन का विश्लेषण भी।
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रंजन राजन ने कहा…
पूंजीवाद की माला जपने वाले और कम्युनिज्म को कोसने वाले इन हालात का विश्लेषण किस प्रकार करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल तो पूंजीवाद तो हार ही रहा है।

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