मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
जिनकी दिलचस्पी साहित्य में है और जिन्हें महाभारत सीरियल के कुछ संवाद अब तक याद होंगे, उन्होंने राही मासूम रजा का नाम जरूर सुना होगा। राही साहब की एक नज्म – मेरा नाम मुसलमानों जैसा है - के बारे में मैं कई लोगों से अक्सर सुना करता था लेकिन किसी ने न तो वह पूरी नज्म सुनाई और न हीं कोशिश की कि मैं उसे पूरा पढ़ सकूं। अलीगढ़ से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका वाड्मय ने अभी राही साहब पर पूरा अंक निकाला है। जहां यह पूरी नज्म मौजूद है। मैं उस पत्रिका के संपादक डॉ. फीरोज अहमद का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने उस नज्म को तलाशा और छापा। वह पत्रिका ब्लॉग स्पॉट पर भी है। आप खुद भी वहां जाकर पूरा अंक पढ़ सकते हैं। उसी अंक में कैफी आजमी साहब की मकान के नाम से मशहूर नज्म दी गई है। वह भी मौजूदा हालात के मद्देनजर बहुत सटीक है। इसलिए उसे भी दे रहा हूं। इसके अलावा सीमा गुप्ता की भी दो रचनाएं हैं, जिन्हें आप जरूर पढ़ना चाहेंगे।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
- राही मासूम रजा
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही मासूम रजा की एक और नज्म – लेकिन मेरा लावारिस दिल – पर भी गैर फरमाएं।
लेकिन मेरा लावारिस दिल
-राही मासूम रज़ा
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
मकान
- कैफ़ी आज़मी
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी
ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने
हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने
आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये
अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में ख़टकती है स्याह तीर लिये
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी
इन्हें भी जरूर पढ़ें
मौत की रफ़्तार
-सीमा गुप्ता
आज कुछ गिर के टूट के चटक गया शायद ..
एहसास की खामोशी ऐसे क्यूँ कम्पकपाने लगी ..
ऑंखें बोजिल , रूह तन्हा , बेजान सा जिस्म ..
वीरानो की दरारों से कैसी आवाजें लगी...
दीवारों दर के जरोखे मे कोई दबिश हुई ...
यूँ लगा मौत की रफ़्तार दबे पावँ आने लगी...
विरह का रंग
-सीमा गुप्ता
आँखों मे तपीश और रूह की जलन,
बोजिल आहें , खामोशी की चुभन ,
सिमटी ख्वाईश , सांसों से घुटन ,
जिन्दा लाशों पे वक्त का कफ़न,
कितना सुंदर ये विरह का रंग
(विरह का क्या रंग होता है यह मैं नही जानती . लेकिन इतना ज़रूर है की यह रंग -हीन भी नही होता और यह रंग आँखें नही दिल देखता है)
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
- राही मासूम रजा
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही मासूम रजा की एक और नज्म – लेकिन मेरा लावारिस दिल – पर भी गैर फरमाएं।
लेकिन मेरा लावारिस दिल
-राही मासूम रज़ा
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
मकान
- कैफ़ी आज़मी
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी
ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने
हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने
आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये
अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में ख़टकती है स्याह तीर लिये
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी
इन्हें भी जरूर पढ़ें
मौत की रफ़्तार
-सीमा गुप्ता
आज कुछ गिर के टूट के चटक गया शायद ..
एहसास की खामोशी ऐसे क्यूँ कम्पकपाने लगी ..
ऑंखें बोजिल , रूह तन्हा , बेजान सा जिस्म ..
वीरानो की दरारों से कैसी आवाजें लगी...
दीवारों दर के जरोखे मे कोई दबिश हुई ...
यूँ लगा मौत की रफ़्तार दबे पावँ आने लगी...
विरह का रंग
-सीमा गुप्ता
आँखों मे तपीश और रूह की जलन,
बोजिल आहें , खामोशी की चुभन ,
सिमटी ख्वाईश , सांसों से घुटन ,
जिन्दा लाशों पे वक्त का कफ़न,
कितना सुंदर ये विरह का रंग
(विरह का क्या रंग होता है यह मैं नही जानती . लेकिन इतना ज़रूर है की यह रंग -हीन भी नही होता और यह रंग आँखें नही दिल देखता है)
टिप्पणियाँ
अति उत्तम
(War Verification hataaye bhai)
बड़ा अजीब लगा यह पढ़ कर. मैं हमेशा सोचता था कि राही मासूम रजा की सोच एक तरफा नहीं है.
धन्यवाद
महादेव के मूँह पर फ़ैंको
किरमानी साहब,
क्या कभी सोचा है कि सलमान रश्दी द्वारा शैतानी आयातों के नाम की किताब लिखने पर सारी दुनिया में खून--खराबे को सही ठहराने वाले, डेकन हेराल्ड में छपी एक काल्पनिक कहानी में नायक का नाम मुहमाद होने पर शहर भर में आगज़नी करनी वाले इस तरह की असंवेदनशील पंक्तियों को साहित्य और भाईचारे की मिसाल कैसे समझ लेते हैं? क्या बात फ़िर अंततः वहीं आकर नहीं रुक जाती है कि मेरा ईश्वर तेरे ईश्वर से बेहतर है?