तेरा क्या होगा ब्लॉगर्स !
ब्लॉगिंग और ब्लॉगर्स पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के संदर्भ में मेरा जो लेख यहां आप लोगों ने पढ़ा और अपनी चिंता से अवगत कराया, वह यह बताने के लिए काफी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को आम ब्लॉगर्स (वे नहीं जो किसी समुदाय या धर्म अथवा विचारधारा के खिलाफ घृणा अभियान चलाते हैं) ने काफी गंभीरता से लिया है। फिर भी कुछ लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को अच्छा बता रहे हैं और हमारे और आप जैसे लोगों को पाठ पढ़ा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को सही भावना से लिया जाना चाहिए। चलिए पहले तो यह तय हो जाए कि सही क्या है और जो लोग सच के साथ होने का दम भरते हैं वे खुद कितना सच बोलते हैं।
सोचिए जरा...अगर आप किसी संचार माध्यम अथवा ब्लॉग पर कुछ लिख-पढ़ रहे हैं तो इतना तो आपको भी पता होगा कि लिखते वक्त लिखने वाले की कुछ जिम्मेदारी बनती है, वरना अगर बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया जाएगा तो वह पहले अपने ही गर्दन पर चला लेगा। कुछ लोगों ने दबी जबान से यह कहने की कोशिश की है कि अगर किसी ब्लॉग के जरिए कोई किसी संगठन अथवा दल के खिलाफ घृणा अभियान चलाता है तो उसके सामने पुलिस की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। अब आप लोग ही यह बताएं कि कैसे यह तय होगा कि शिवसेना वाले मामले में केरल के जिस ब्लॉगर अजीथ डी के खिलाफ मुंबई पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया और मामला अदालत तक गया, वह शिवसेना के खिलाफ निंदा अभियान चला रहा था या फिर शिवसेना की नीतियों के खिलाफ अपनी बात कह रहा था।
मुझे जो समझ में आया और जो मुझे लगता है, वह यह कि सिर्फ अजीथ डी ने ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या में ब्लॉगर्स ने शिवसेना की नीतियों की आलोचना की थी। अगर एक आजाद देश में हमसे आलोचना का यह हक छीना जा रहा है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नारों का क्या होगा।
जो लोग सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बारे में उसकी पैरोकारी कर रहे हैं, फिर वे लोग केंद्र सरकार के निर्देश पर क्यों हायतौबा मचाते हैं जब सरकार मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक दोनों) में तमाम तरह के कटेंट (लेख से लेकर फोटो तक) को नियंत्रित करना चाहती है। इस हिसाब से तो मीडिया पर हल्की ही सही सेंसरशिप लागू की जानी चाहिए।
देश की न्यायपालिका निष्पक्ष है, इसमें कोई दो राय नहीं है। कम से कम आम आदमी इतनी तो उम्मीद कर ही सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अभिव्यक्ति की आजादी का किसी भी रूप में हनन होने नहीं देगा। हां, अगर कोर्ट आम आदमी से उसकी जवाबदेही और जिम्मेदारी की उम्मीद करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। अलबत्ता कोर्ट कम से कम ऐसे मामलों में तो हस्तक्षेप जरूर करे कि अगर किसी ब्लॉगर्स को कोई संगठन या दल धमकी देता है या किसी अन्य नुकसान की कोशिश करता है। केरल के अजीथ डी ने यही तो चाहा था।
फिर पहल क्या हो ?
कई साथियों ने इस मुद्दे पर पहल की बात कही है। मुझे लगता है कि इस पर पहल बहुत सोच-समझ और विचार के बाद की जानी चाहिए। पहले तो हमें तमाम कानूनी पहलुओं का अध्ययन करना होगा औऱ इसे किस मंच पर किस तरह चुनौती दी जा सकती है, इस पर भी सोचना होगा। यह भी हो सकता है कि इस संबंध में देशभर के हिंदी-अंग्रेजी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के ब्लॉगर्स साझा मंच बनाकर भारत के चीफ जस्टिस तक अपनी अपील भेजें। बहरहाल, यह काम किसी अकेले यूसुफ किरमानी या हिंदीवाणी जैसे ब्लॉग के बूते की बात नहीं है। इस पर सभी को मिलकर चलना होगा। तमाम ब्लॉगर साथियों में अगर कोई वकील हो और उसकी कानूनी समझ अच्छी हो तो इस पर विस्तृत विचार किया जाना चाहिए। लोकसभा चुनाव भी निकट हैं, इसे हम चुनावी मुद्दा बना सकते हैं और कम से कम तमाम पार्टियों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। यह मुद्दा इसलिए भी बन सकता है कि देश के कई नेता ब्लॉगगीरी में उतर आए हैं और कुछ ने तो अपनी वेबसाइट भी लॉन्च कर दी है तो उन्हें इस माध्यम की ताकत का भी अंदाजा हो चुका है। इसलिए मंथन जारी रखिए। फुटकर टिप्पणियों से बात नहीं बनने वाली है।
हां...जिन ब्लॉगर्स को यह सब पसंद नहीं है, वे इस तरह की पहल के खिलाफ मुहिम भी छेड़ सकते हैं। क्योंकि हम अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसी मुहिम का विरोध नहीं करेंगे। यह उनकी सोच पर निर्भर करेगा।
सोचिए जरा...अगर आप किसी संचार माध्यम अथवा ब्लॉग पर कुछ लिख-पढ़ रहे हैं तो इतना तो आपको भी पता होगा कि लिखते वक्त लिखने वाले की कुछ जिम्मेदारी बनती है, वरना अगर बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया जाएगा तो वह पहले अपने ही गर्दन पर चला लेगा। कुछ लोगों ने दबी जबान से यह कहने की कोशिश की है कि अगर किसी ब्लॉग के जरिए कोई किसी संगठन अथवा दल के खिलाफ घृणा अभियान चलाता है तो उसके सामने पुलिस की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। अब आप लोग ही यह बताएं कि कैसे यह तय होगा कि शिवसेना वाले मामले में केरल के जिस ब्लॉगर अजीथ डी के खिलाफ मुंबई पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया और मामला अदालत तक गया, वह शिवसेना के खिलाफ निंदा अभियान चला रहा था या फिर शिवसेना की नीतियों के खिलाफ अपनी बात कह रहा था।
मुझे जो समझ में आया और जो मुझे लगता है, वह यह कि सिर्फ अजीथ डी ने ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या में ब्लॉगर्स ने शिवसेना की नीतियों की आलोचना की थी। अगर एक आजाद देश में हमसे आलोचना का यह हक छीना जा रहा है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नारों का क्या होगा।
जो लोग सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बारे में उसकी पैरोकारी कर रहे हैं, फिर वे लोग केंद्र सरकार के निर्देश पर क्यों हायतौबा मचाते हैं जब सरकार मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक दोनों) में तमाम तरह के कटेंट (लेख से लेकर फोटो तक) को नियंत्रित करना चाहती है। इस हिसाब से तो मीडिया पर हल्की ही सही सेंसरशिप लागू की जानी चाहिए।
देश की न्यायपालिका निष्पक्ष है, इसमें कोई दो राय नहीं है। कम से कम आम आदमी इतनी तो उम्मीद कर ही सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अभिव्यक्ति की आजादी का किसी भी रूप में हनन होने नहीं देगा। हां, अगर कोर्ट आम आदमी से उसकी जवाबदेही और जिम्मेदारी की उम्मीद करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। अलबत्ता कोर्ट कम से कम ऐसे मामलों में तो हस्तक्षेप जरूर करे कि अगर किसी ब्लॉगर्स को कोई संगठन या दल धमकी देता है या किसी अन्य नुकसान की कोशिश करता है। केरल के अजीथ डी ने यही तो चाहा था।
फिर पहल क्या हो ?
कई साथियों ने इस मुद्दे पर पहल की बात कही है। मुझे लगता है कि इस पर पहल बहुत सोच-समझ और विचार के बाद की जानी चाहिए। पहले तो हमें तमाम कानूनी पहलुओं का अध्ययन करना होगा औऱ इसे किस मंच पर किस तरह चुनौती दी जा सकती है, इस पर भी सोचना होगा। यह भी हो सकता है कि इस संबंध में देशभर के हिंदी-अंग्रेजी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के ब्लॉगर्स साझा मंच बनाकर भारत के चीफ जस्टिस तक अपनी अपील भेजें। बहरहाल, यह काम किसी अकेले यूसुफ किरमानी या हिंदीवाणी जैसे ब्लॉग के बूते की बात नहीं है। इस पर सभी को मिलकर चलना होगा। तमाम ब्लॉगर साथियों में अगर कोई वकील हो और उसकी कानूनी समझ अच्छी हो तो इस पर विस्तृत विचार किया जाना चाहिए। लोकसभा चुनाव भी निकट हैं, इसे हम चुनावी मुद्दा बना सकते हैं और कम से कम तमाम पार्टियों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। यह मुद्दा इसलिए भी बन सकता है कि देश के कई नेता ब्लॉगगीरी में उतर आए हैं और कुछ ने तो अपनी वेबसाइट भी लॉन्च कर दी है तो उन्हें इस माध्यम की ताकत का भी अंदाजा हो चुका है। इसलिए मंथन जारी रखिए। फुटकर टिप्पणियों से बात नहीं बनने वाली है।
हां...जिन ब्लॉगर्स को यह सब पसंद नहीं है, वे इस तरह की पहल के खिलाफ मुहिम भी छेड़ सकते हैं। क्योंकि हम अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसी मुहिम का विरोध नहीं करेंगे। यह उनकी सोच पर निर्भर करेगा।
टिप्पणियाँ
अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए पर इसका अर्थ ये नहीं की किसी व्यक्ति - विशेष पर हम सीधे आरोप लगा दे . इस विषय पर चिंतन और उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है .
सरिता जी, आपने सही कहा है। दिनेश जी को इसके तमाम पहलुओं की गहन जानकारी है। अगर वह इस सिलसिले में कोई पहल या जानकारी देना चाहते हैं तो उसका स्वागत तो है ही।
भाई आलोक जी, आप भी मार्गदर्शन कर सकते हैं। ब्लॉगर्स कोई नेता तो होते नहीं, जो किसी के खिलाफ आरोप लगा दें, वे तो जो देखते हैं या सोचते हैं, वही व्यक्त कर देते हैं। लेकिन अगर उसे नियंत्रित किए जाने के विचार से अगर आप सहमत हैं तो इसमें क्या किया जा सकता है। कम से कम मैं निजी तौर पर ब्लॉगर्स या अभिव्यक्ति के किसी माध्यम को नियंत्रित किए जाने के खिलाफ हूं। खासकर अगर सरकार उसे किसी भी आड़ में नियंत्रित करना चाहती है तो यह और भी खतरनाक है।