मेरे जूते की आवाज सुनो
इराक के पत्रकार मुंतजर अल-जैदी ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जब पिछले साल जूता फेंका था तो पूरी दुनिया में इस बात पर बहस हुई कि क्या किसी पत्रकार को इस तरह की हरकत करनी चाहिए। उसके बाद ऐसी ही एक घटना भारत में भी हुई। यह बहस बढ़ती चली गई। बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अभी हाल ही में जेल से छूटे हैं। जेल से छूटने के बाद यह पहला लेख उन्होंने लिखा, जिसे हिंदी में पहली बार किसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है कि इस लेख से और नई बहस की शुरुआत होगी...
मैंने बुश पर जूता क्यों फेंका
-मुंतजर अल-जैदी
अनुवाद – यूसुफ किरमानी
मैं कोई हीरो (Hero) नहीं हूं। मैंने निर्दोष इराकियों का कत्ले-आम और उनकी पीड़ा को सामने से देखा है।
आज मैं आजाद हूं लेकिन मेरा देश अब भी युद्ध के आगोश में कैद है। जिस आदमी ने बुश पर जूता फेंका, उसके बारे में तमाम बातें की जा रही हैं और कही जा रही हैं, कोई उसे हीरो बता रहा है तो कोई उसके एक्शन के बारे में बात कर रहा है और इसे एक तरह के विरोध का प्रतीक मान लिया गया है। लेकिन मैं इन सारी बातों का बहुत आसान सा जवाब देना चाहता हूं और बताना चाहता हूं कि आखिर किस वजह से मैं बुश पर जूता फेंकने पर मजबूर हुआ। इसका दर्द काश आप लोग समझ पाते...कि जिसके देश की सार्वभौमिकता को फौजियों के बूटों तले रौंद डाला गया, जिसके देशवासियों को कदम-कदम पर अपमान सहना पड़ा, जिसके निर्दोष देशवासियों का खून बहाया गया।
हाल के वर्षों में दस लाख से ज्यादा लोग इराक में फौजियों की गोली का निशाना बने और अब देश में पांच करोड़ से ज्यादा यतीम-बेसहारा लोग, दस लाख विधवाएं और हजारों ऐसे निरीह जिन्होंने यह दुनिया ही नहीं देखी। लाखों लोग इस देश में और इस देश से बाहर (यानी इराकी) बेघर हो गए।
हमारा देश एक ऐसा देश हुआ करता था जहां अरब वाले भी थे, तुर्की भी थे तो कुर्द, असीरी, साबीन और यज्दी अपनी रोटी-रोजी कमाते थे। जहां बहुसंख्यक शिया लोग सुन्नियों के साथ एक ही लाइन में नमाज पढ़ते थे...जहां मुसलमान ईसाइयों के साथ हजरत ईसा मसीह का जन्मदिन (Birthday of Christ) एक साथ मनाया करते थे। हालांकि हमारे देश पर पिछले दस साल से तमाम तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए थे लेकिन हम लोग इसका मुकाबला जैसे-तैसे एक साथ कर रहे थे। अगर हम लोग भूखे भी रहे थे और हर कोई इसमें भी साथ था।
हम इराकी अपने धैर्य और एकता के दौरान हुए हमलों को कभी नहीं भूले। इसी हमले ने तो भाई-भाई को बांट दिया, पड़ोसी को पड़ोसी से दूर कर दिया। हमारे घर मातम वाले टेंटों में बदल गए।
मैं कोई हीरो नहीं हूं। लेकिन मेरा अपना एक विचार है। मेरा एक स्टैंड है। जब मेरे देश की बेइज्जती की गई तो इसे मैंने अपनी बेइज्जती समझा, मैंने अपने बगदाद को शोलों (Baghdad Burning) में घिरा पाया, जहां लाशों पर लाशें बिछाई जा रही थीं। मैं कैसे हजारों पीड़ादायी फोटो को भुला दूं, जो मुझे संघर्ष के लिए आगे धकेल रही थीं। अबू गरीब जेल का स्कैंडल, फालूजा का कत्लेआम, नजफ (Najaf), हदीथा, सद्र सिटी, बसरा, दियाला, मोसूल, ताल अफार और देश का कोना-कोना एक लहुलूहान शक्ल लिए नजर आता था। मैंने अपनी जलती हुई धरती के बीच यात्राएं की, अपनी आंखों से पीड़ितों, यतीमों और जिनका सबकुछ लुट चुका था, उनकी चीखें सुनी। मैंने खुद के होने पर शर्म महसूस की, क्योंकि मेरे पास सत्ता नहीं थी।
रोजाना तमाम त्रासदियों की अपनी प्रोफेशनल ड्यूटी पूरी करने के बाद जब मैं मलबे में तब्दील हो चुके इराकी मकानों को साफ करता या अपने कपड़े पर लगे खून को साफ करता को गुस्से में अपने दांत किटकिटाता और तब प्रण करता कि मैं इसका बदला लूंगा।...और जब मौका आया तो मैंने देर नहीं लगाई।
मैंने जब अपना जूता फेंकने के लिए निकाला तो मेरी नजर उन खून भरे आंसुओं को देख रही थीं जो अपने ही देश पर कब्जा होने की वजह से लगातार रो रही थीं, मेरी कानों में उन बेबस मांओं की चीखें गूंज रही थीं जिनके बच्चे मार दिए गए थे, मैं उन यतीम-बेसहारों लोगों की आवाज सुन रहा था जो अपने माता-पिता को खो चुके थे, मेरे सामने उन दर्द भरी सिसकारियों की आवाज थी जिनके साथ बलात्कार किया गया था...
जूते फेंकने के बाद जब कुछ लोग मेरे पास आए तो मैंने उनसे कहा, क्या आप जानते हैं कि कितने ही टूटे घरों (Broken Houses) की आवाज था वह जूता। उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। जब सारे मानवीय मूल्य (Human Values) ध्वस्त हो चुके हों तो ऐसे में हो सकता है कि वह जूता ही सही जवाब था।
मैंने जब उस अपराधी (Criminal) जॉर्ज बुश (George Bush) पर जूता फेंका तो मेरा यह एक्शन दरअसल उसके तमाम झूठों और मक्कारियों को खारिज करने के लिए था, यह मेरे देश पर उसके कब्जे के खिलाफ सही निशाना था, उसने जिस तरह मेरे अपने लोगों को जो बेगुनाह थे, उनका कत्ल कराया, यह जूता उनकी आवाज था। मेरा जूता उसकी उस नीयत के खिलाफ था, जिसकी वजह से हमारे देश की दौलत लूटी गई, हमारे सारे संसाधनों को तहस-नहस कर दिया गया और हमारे बच्चों को दिशाहीन हालत में छोड़ दिया गया।
अगर आप समझते हैं कि बतौर पत्रकार मुझे यह सब नहीं करना चाहिए था और इससे उन लोगों को नीचा देखना पड़ा, जहां मैं काम करता था तो मैं उनसे माफी मांगता हूं। लेकिन मेरा यह विरोध उस नागरिक का विरोध था जो रोजाना अपने देश को उस व्यक्ति की फौजों के बूटों तले मसलते हुए देख रहा था। मेरी प्रोफेशनलिज्म (Professionalism) पर मेरी देशभक्ति (Patriotism) भारी पड़ रही थी।...और अगर देशभक्ति को अपनी आवाज बुलंद करनी है तो प्रोफेशनलिज्म को इसके साथ तालमेल बिठा लेना चाहिए।
मैंने यह काम इसलिए नहीं किया कि मेरा नाम इतिहास में दर्ज हो जाए या इसके बदले मुझे कोई इनाम मिले, मैं सिर्फ और सिर्फ अपने देश का बचाव करना चाहता हूं...मैं इसे तिल-तिल कर मरते नहीं देखना चाहता...मैं इसे फौज के बूटों तले रौंदे जाते हुए नहीं देखना चाहता...नहीं देखना चाहता।
(यह लेख द गार्डियन लंदन से साभार सहित लिया गया है।)
बुश पर जब जूता फेंका गया तो उस वक्त भी एक लेख और एक कविता इस ब्लॉग पर दी गई थी। उसमें जूते फेंकने का लाइव विडियो भी था। लेख, कविता और विडियो के लिए इन दो लिंकों पर जाएं...
http://hindivani.blogspot.com/2008/12/blog-post_16.html
http://hindivani.blogspot.com/2008/12/blog-post_17.html
टिप्पणियाँ
Bhai mera name arun hai, jyada padha likha nahi huo. lekin samajik sarokaro se wasta rakhta ho. aise blog ke liye aapko hardik badhai,
bhai samaj me ghatit ghatnaye mere man ko bhi dravit karti hai so maine bhi apne man ki awaj ko sabdo ka roop dena suru kya hai, agar aapka margdarshan mil jaye to kamyabi mil sakti hai,
mera blog hai,
www.dehatiadda.blogspot.com
Email-arun_kasna@yahoo.com