भारत...क्या तुम इसी लायक हो

 अमेरिका (#US) में इन दिनों जो कुछ भी घट रहा है, उसके बाद यह कहना और मानना ही पड़ेगा कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतांतिक देश कहलाने का हक उसे ही है। उसके मुकाबले हमारे भारत के लोकतंत्र (#Democracy) का जनाजा रोज निकल रहा है और उसका गुब्बारा अब फटने की कगार पर है।

पांच राज्यों में चुनाव प्रचार चल रहा है। चुनाव आयोग को रोजाना ठेंगा दिखाते हुए हर पार्टी का नेता बयान देता है। आयोग नोटिस देकर चुप हो जाता है। क्योंकि खद्दरधारियों ने उसे नोटिस देने से आगे कुछ और करने से रोक रखा है। प्रधानमंत्री से लेकर यूपी के सीएम अखिलेश यादव, आम आदमी पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल, मायावती, कांग्रेस के राहुल गांधी, डिफेंस मिनिस्टर मनोहर पर्रिकर समेत किसी भी नेता पर ऊंगली रखिए, कोई ऐसा नहीं होगा, जिसने आचार संहिता न तोड़ी हो। इस सिलसिले में सूचना प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद का ताजा बयान सबसे निंदनीय है। इस शख्स ने अभी दो दिन पहले कहा कि चुनाव के बाद हम तीन तलाक (#TripleTalaq) के खिलाफ कानून बनाएंगे।

प्रसाद के इस बयान के पीछे मकसद साफ है। ये मुसलमानों को सीधी धमकी है। अगर तुमने हमे वोट नहीं दिया तो देख लेंगे। जनाब, आप ढाई साल से सरकार चला रहे हैं, आपको किसने रोका था कानून बनाने से। केंद्र की सत्ता संभालते पहले दिन यही कानून पास कर देते। चुनाव के बीच में आपकी इस धमकी का मतलब क्या है।...हैरानी है कि चुनाव आयोग ने रविशंकर प्रसाद की बात का नोटिस तक नहीं लिया, जबकि एक तरह से यह बयान एक साजिश के तहत दिया गया। इसी तरह बीजेपी और उसके फ्रंटल संगठन बजरंग दल, विहिप वगैरह राम मंदिर का मुद्दा छेड़ते हैं और तब बीजेपी के नेता बयान देते हैं कि अगर यूपी में जीते तो अबकी बार....बनेगा। ...जरा सोचिए एक तरफ प्रधानमंत्री विकास की दुहाई दे रहे हैं और दूसरी तरफ उनके अपने नेता बेहियाई कर रहे हैं। चुनाव आय़ोग नोटिस थमाकर चुप हो गया।

चुनाव आयोग (#ElectionCommissionofIndia) को छोड़िए...आम जनता तक रोजाना बेवकूफ बनती है लेकिन वो इतनी आरामतलब हो चुकी है कि उसे अब आंदोलन के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। अच्छे दिनों की कल्पना में जी रहे भारतीयों पर नोटबंदी (#Demonetization) की शक्ल में इतना बड़ा हथौड़ा पड़ा लेकिन बेचारा चुपचाप लाइन में खड़ा रहा। विपक्षी नेता दो-चार बयान देकर या तो विदेश चले गए या फिर दुबक गए।

नोटबंदी एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर बड़ा जन आंदोलन खड़ा हो सकता था। लेकिन भारतीय समाज में वो नेतृत्व क्षमता गायब हो गई। जेएनयू (जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में चला स्टूडेंट्स का आंदोलन उम्मीद की एक किरण था लेकिन उसे आगे ले जाने या अन्य मुद्दों में उसका विस्तार करने की कोई संजीदा कोशिश नहीं हुई। लापता स्टूडेंट नजीब के मामले में इस पहल को आगे बढ़ाया जा सकता था लेकिन वो कोशिश भी छोड़ दी गई। नजीब का मामला अकेले जेएनयू का मामला नहीं है, सामाजिक सरोकार का मामला है लेकिन तमाम दलों का राजनीतिक नेतृत्व दुम दबाए बैठा है।

होना यह चाहिए था कि जेएनयू (#JNU) और देश की अन्य विश्वविद्यालयों से समान विचारधारा वाले स्टूडेंट्स सामने आते और नोटबंदी, नजीब व अन्य मुद्दों पर जनता को आंदोलन के लिए प्रेरित करते। लेकिन दोनों से भयानक चूक हो चुकी है। इन स्टूडेंट्स को एक मंच पर लाने और धार देने की जिम्मेदारी वामपंथी दलों की थी। लेकिन उनके नेता भी कुछ और नहीं कर सके।

यह तय है कि अब विश्वविद्यालयों के स्टूडेंट्स को जोड़े बिना आप कोई बड़ा सशक्त आंदोलन नहीं खड़ा कर सकते। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के बाद जो कैडर आधारित राजनीतिक दल हैं, उनके कैडर में बिखराव है। कांग्रेसी कैडर शुरू से हरामखोर रहा है, वो अपने नेताओं तक के लिए नहीं खड़ा होता, जनता के मुद्दों के लिए खड़े होने की बात तो जाने ही दीजिए। कांग्रेस में अब जुझारु नेताओं का अकाल पड़ चुका है। वामपंथी कैडर सशक्त था लेकिन उसकी लीडरशिप तमाम रोगों का शिकार हो चुकी है। वो लोग कैसे दोबारा खड़े होंगे और कैडर में हवा भरेंगे, समझ से परे हैं। केरल और त्रिपुरा में हर पांच साल बाद सरकार बनाकर आप उदाहरणों में शामिल तो हो सकते हैं लेकिन देश में आंदोलन नहीं खड़ा कर सकते। जनता दल यूनाइटेड, लालू पार्टी (आरजेडी) समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस या इन जैसे और बहुत सारे दल आकंठ भ्रष्टाचार (#Corruption), अवसरवाद, कुनबापरस्ती में डूबे हैं, उनसे किसी आंदोलन की उम्मीद बेकार है।

जयप्रकाश नारायण ने अपने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में जिस तरह यूनिवर्सिटीज के स्टूडेंट्स को अपने साथ जोड़ा था, उसी तर्ज पर कुछ करने की पहल स्टूडेंट्स लीडर को करनी पड़ेगी। जेपी अगर आंदोलन न छेड़ते तो उस वक्त ताकतवर इंदिरा गांधी को हटा पाना मुश्किल था। हालांकि इंदिरा के खिलाफ जनमत करने में न्यायपालिका की भी बहुत बड़ी भूमिका थी, जिसने तत्कालीन प्रधानमंती के चुनाव को रद्द करने का साहस दिखाया था।

...क्या मौजूदा न्यायपालिका (#IndianJudiciary) से हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं। वक्त इसका जवाब देगा। कोयला घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला या भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका ने कुछ हिम्मत जरूर दिखाई लेकिन सत्ता के केंद्र में बैठे लोग इससे बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुए। करप्शन से भी बड़ा अपराध उन नेताओं ने गुजरात में किया जहां से जनता को हिंदू-मुसलमान में बांटने, दंगा कराने का खतरनाक खेल शुरू हुआ। यह लोगों को अब समझ में आ रहा है कि गुजरात के दंगे दरअसल एक लंबी राजनीतिक साजिश का हिस्सा थे। 

गुजरात दंगों (#GujaratRiots) में छुटभैये नेताओं को सजा हुई लेकिन इन दंगों के मास्टरमाइंड अदालत की पहुंच से आज भी बाहर हैं। वहां हुए अनगिनत फर्जी एनकाउंटरों के साजिशकर्ता आजतक बेनकाब नहीं हुए।

ये तो खैर बड़े मामले हैं लेकिन सत्ता केंद्रित लोगों से जुड़े बहुत छोटे-छोटे मामले हाल ही में अदालतों में पहुंचे लेकिन याचिकाएं खारिज हो गईं,  क्योंकि उनमें अदालत को कुछ ठोस नजर नहीं आया। अदालत कभी किसी मामूली मुद्दों को बहुत ठोस मान लेती है तो कभी किसी ठोस मुद्दे को मामूली बताकर खारिज कर देती है। भारत में न्यायपालिका के इम्तेहान का दौर भी शुरू हो चुका है।

हमारे बुजुर्ग कहते आए हैं और अंग्रेजों के जमाने में इस पर अमल भी करते थे कि – जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो...लेकिन जब भारत में प्रिंट मीडिया मौत के कगार खड़ा है और टीवी न्यूज चैनल सत्ता के दरबार में अर्दली बन चुके हैं तब यह खुदकुशी कौन करना चाहेगा। यानी बात वहीं की वहीं है कि जब समस्त लोकतांत्रिक शक्तियां गूंगी-बहरी या मजबूर हो चुकी हैं तो ऐसे में जनता बेचारी बनकर रह गई है। लेकिन इसकी जिम्मेदार भी वही है क्योंकि उसे सही आंदोलन का चुनाव करना नहीं आता। वो आरामतलब हो चुकी है। उसे बिना कुछ किए सबकुछ चाहिए। नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन इस देश को नई दिशा दे सकता था लेकिन इसमें सहभागिता करने वाले सारे स्टेकहोल्डर चूक गए हैं।

जिस अमेरिका को हम लोग पानी पीकर पूंजीवादी देश कहकर गरियाते बड़े हुए, वहां की जनता ने दिखा दिया कि आंदोलन कैसे होते हैं और कैसे सत्ता का प्रतिकार किया जा सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप (#Trump) ने अभी अपने मनमाने आदेश (#MuslimBan) जारी करने की शुरुआत भर की थी लेकिन अमेरिकी जनता सड़कों पर आ खड़ी हुई। वहां की अदालतें भी जनता के साथ खड़ी हो गईं। वहां के मानवाधिकार संगठन जनता के साथ खड़े हो गए। भोग-विलास में लिप्त माने जाने वाले पश्चिमी देशों में ट्रंप के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए। लंदन में दस हजार लोगों का ट्रंप के विरोध में जुटना बहुत बड़ी बात है। फ्रांस में बार-बार आतंकी हमलों के विरोध में इतने लोग नहीं जुटे, जितने पेरिस में ट्रंप के विरोध में जुटे। बर्लिन भी इसका गवाह बना। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ अगर उस पूरे देश की अदालत ही खिलाफ हो जाए तो सोचिए कि इस इंसान के फैसले को कोई भी मान्यता देने को तैयार नहीं है।

समाजशास्त्रियों के लिए यह अध्ययन का मुद्दा है कि ट्रंप ने 7 मुस्लिम देशों के नागरिकों और वहां के रिफ्यूजियों के अमेरिका आने पर पाबंदी लगाई लेकिन आंदोलन में सहभागिता अमेरिका के मूल बाशिंदों ने भी की। आखिर वो ऐसी कौन सी वजहें हैं जिसने वहां के मूल बाशिंदों को 7 मुस्लिम देशों के समर्थन को मजबूर किया...

अमेरिका की आधी से ज्यादा आबादी दूसरे देश के लोगों की है। ब्लैक लोग जो वहां के मूल बाशिंदे हैं, उन्हें सफेद लोगों ने वहां दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है। वही ब्लैक लोग इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं, उनका साथ एशियाई लोग दे रहे हैं। लेकिन यह भी नहीं कि सारे सफेद लोग ट्रंप के समर्थन में हैं। उनके कई सारे संगठन ट्रंप के विरोध में हैं। फेसबुक (#Facbook), गूगल (#Google), माइक्रोसाफ्ट (#Microsoft), एपल (#Apple) जैसी कंपनियों को चलाने वाले या तो एशियाई हैं या फिर ऐसे रिफ्यूजी जिनके मां-बाप वहां जाकर बस गए हैं। ये सारे लोग ट्रंप की नीति के खिलाफ उतर पड़े हैं।


मुझे तो लगता है कि पहले बुश ने आतंकवाद रोकने के नाम पर अमेरिकी जनता को परेशानी में डाला और अब यह राष्ट्रपति आया है जो फिर से आतंकवाद रोकने की आड़ में हमें फिर से परेशानी में डालने जा रहा है। शायद अमेरिकियों का गुस्सा इस बात को लेकर है कि तथाकथित आतंकवाद रोकने के नाम पर यह शख्स ऐसे मुस्लिम देशों के लोगों के प्रवेश पर रोक लगा देगा, जिनका आतंकवाद से कोई लेनादेना नहीं है। ईरान ने आज तक कभी भी अमेरिका की चींटी भी नहीं मारी। इराकी बेचारे खुद अमेरिकी फौज के बूटों तले रौंदे जा चुके हैं। वहां के तेल के कुओं पर अमेरिकी कंपनियों का कब्जा है। अमेरिका की हथियार और तेल लॉबी जॉर्ज डब्ल्यू बुश के वक्त से ही सत्ता के मजे ले रही है। तेल में से और तेल निकालने के लिए और इस्राइलों हितों की रक्षा के लिए ट्रंप ने यह घिनौना खेल खेला है। इसलिए इसका विरोध वहां जरूरी माना गया। 

(This Article first appeared in NBT newspaper online)
@copyright Yusuf Kirmani
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amairichaəmairikə


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