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अम्मा तेरा मुंडा बिगड़ा जाए

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देश को कुनबा परस्तों की राजनीति से कब छुटकारा मिलेगा, यह तो नहीं मालूम लेकिन राजनीति में आई नई पौध से उनसे एक पीढ़ी पीछे मुझ जैसों को ही नहीं देश को भी उम्मीदें थीं लेकिन अब तो सभी लोगों का मोहभंग हो रहा है। कल तक हम लोग इस बात का रोना रोते थे कि भारत को नेहरू-गांधी (इंदिरा गांधी) परिवार के राज से कब मुक्ति मिलेगी। लेकिन इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी...राहुल गांधी के नाम लेकर दिन रात कोसने वालों ने जब देखा कि यही हाल बीजेपी में है और यही हाल समाजवादी पार्टी से लेकर शिव सेना, शरद पवार की राष्ट्रवादी पार्टी में है तो लोगों ने मुंह बंद कर लिए। एक तरह से लोगों ने धीरे-धीरे कुनबापरस्ती की राजनीति को स्वीकार करना शुरू कर दिया। लेकिन तमाम बड़े नेताओं के लाडलों ने राजनीति में अब तक कोई बहुत अच्छी मिसाल कायम करने की कोशिश नहीं की। गांधी खानदान के दो लाडलों -राहुल गांधी और वरूण गांधी को लेकर पीआर-गीरी करने वाले पत्रकारों ने तरह-तरह से प्रोजेक्ट करने की कोशिश की। राहुल को कभी यूथ ऑइकन बताया गया, कभी बताया गया कि वह ग्रामीण भारत के लिए कुछ करना चाहते हैं और इसी सिलसिले में पिछले दिनों उनक

भूखे पेट को स्मार्ट फोन, क्या आइडिया है

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जिस देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों (बीपीएल) की भूख शांत करने के लिए फर्जी तौर पर ही सही तमाम राज्य सरकारों द्वारा अनाज बांटा जाता हो, उन बीपीएल लोगों को बीजेपी के भावी प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सत्ता में आने पर स्मार्ट फोन बांटेंगे। इतना ही नहीं दस हजार का लैपटॉप बिकवाएंगे और सभी स्कूलों में इंटरनेट से पढ़ाई करवाई जाएगी। यह बात बीजेपी नेता ने शनिवार को नई दिल्ली में बीजेपी का आईटी विजन पत्र जारी करते हुए कही। मैंने यूपी के जिस स्कूल से ग्रासरूट लेवल की पढ़ाई की है, वहां मेरे एक टीचर अक्सर एक कहावत सुनाया करते थे – घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने। यह कहावत कोई इतनी गूढ़ नहीं है कि आप को समझ में न आए लेकिन अगर समझ में नहीं आ रही है तो वह है इस देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी, जो मई में केंद्र में सरकार बनाने का दावा अभी से कर रही है। बीपीएल आबादी के मामले में सबसे खराब हालत बिहार की है, जहां बीजेपी नीतीश कुमार के साथ सत्ता में भागीदारी कर रही है। इस राज्य में बीपीएल परिवारों की आबादी 1 करोड़ 21 लाख है। वहां पर बीपीएल आबादी बढ़ रही है और इस आबादी को दो वक्त की

मुशर्रफ और भारतीय मुसलमान

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भारतीय मीडिया की यह विडंबना है कि अगर कोई मीडिया हाउस अच्छा काम करता है तो दूसरा उसे दिखाने या छापने के लिए तैयार नहीं होता। हिंदी मीडिया में तो यह स्थिति तो और भी बदतर है। अभी इंडिया टुडे का एक कॉनक्लेव हुआ, जिसमें पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व मिलिट्री डिक्टेटर परवेज मुशर्फ भी आए। उस कॉनक्लेव में जो कुछ हुआ, उसकी रिपोर्टिंग अधिकांश मीडिया हाउसों ने नहीं की। खैर वह तो अलग मुद्दा है लेकिन मुशर्रफ साहब ने जो कुछ कहा और जो उनको जवाब मिला, वह सभी को जानना चाहिए। पाकिस्तान में तो लोकतंत्र कहीं गुमशुदा बच्चे की तरह हो गया है, इसलिए वहां के नेता अक्सर भारत में आकर अपना गला साफ कर जाते हैं। मुशर्रफ ने अपने भाषण में भारत और पाकिस्तान की तुलना मिलिट्री रेकॉर्ड, आईएसआई और रॉ (रिसर्च एनॉलिसिस विंग, भारत) के मामले में कर डाली। दोनों ही देशों की मिलिट्री को कोसा। दोनों देशों में सुरसा की मुंह की तरफ फैल रहे आतंकवाद पर भी घड़ियाली आंसू बहाए। यहां तक सब ठीक था लेकिन जब उन्होंने भारतीय मुसलमानों की तुलना पाकिस्तान के मुसलमानों से की तो गजब ही हो गया। मेरा और मेरे जैसे तमाम लोगों को इसका अनुमा

उठ मेरी जान...

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उज्मा रिजवी ने यह लेख खासतौर पर महिला दिवस पर एक अखबार के लिए लिखा था। उन्होंने दरअसल इसे मेरे पास पढ़ने के लिए भेजा था लेकिन मैं इसे अपने ब्लॉग पर बाकी पाठकों और मित्रों के लिए देने का लोभ संवरण न कर सका। उज्मा रिजवी अंग्रेजी-हिंदी में प्रकाशित एजुकेशन वर्ल्ड मैगजीन में असिस्टेंट एडिटर हैं। तमाम समसामयिक विषयों पर उनकी कलम चलती रही है। उनका वादा है कि हिंदी वाणी के लिए वह कुछ और भी लिखेंगी। उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे क़द्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं तुझ में शोले भी हैं बस अश्क पिफशानी ही नहीं तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं तेरी हस्ती भी है एक चीज जवानी ही नहीं अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे उठ मेरी जान............ मशहूर शायर कैफी आजमी की औरत को पुकारती औरत उन्वान की यह खास गज़ल तुझे अपने अंदर इतनी गहराई से उतार लेनी है ताकि इन अल्फाजों का कर्ज़ अदा हो जाए। क्योंकि तू इतनी खुशकिसमत नहीं कि ऐसी इंकलाबी पुकार तुझे बार-बार नसीब हो। हकीकत यही है खुदा भी उनकी मदद नहीं करता जो अपनी मदद खुद नहीं करता.... हां! तुझे अपना उन्वान, अपनी तकदीर खुद बदलनी है, और ऐसी तदबीर करनी

बिछने लगी है मुस्लिम वोटों के लिए बिसात

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 25 फरवरी 2009 को संपादकीय पेज पर प्रथम लेख के रूप में प्रकाशित है। सामयिक होने के कारण इस ब्लॉग के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस पर आई टिप्पणियों को आप नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4184206.cms पार्टियां मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन खुद उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासत के खिलाड़ी अपने-अपने मोहरे लेकर तैयार हो गए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में वोटों के लिए बिसात बिछाई जा रही है। इसमें भी सबसे ज्यादा जोर मुस्लिम वोटों के लिए है। कहीं कोई पार्टी उलेमाओं का सम्मेलन बुला रही है तो कहीं से कोई उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली तक पहुंचाकर अपना मकसद हासिल कर रहा है। यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं। यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग त

ब्लॉगिंग पर खतरा...चर्चा जारी है

ब्लॉगिंग पर मंडरा रहे खतरे को लेकर तमाम लोगों ने यहां और अन्य जगहों पर अपनी चिंता जाहिर की है। लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो चाहता है कि अगर अनाप-शनाप ब्लॉगिंग पर अदालत या उसकी आड़ में सरकार किसी तरह का नियंत्रण करती है तो उसमें बुराई नहीं है। इन लोगों का यह भी कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि आप किसी के खिलाफ कुछ भी लिख दें या आरोप लगा दें या प्रोपेगंडा करें। लेकिन इस मुद्दे के अलावा और तमाम बातें और मुद्दे हैं, जिन पर इसी के साथ-साथ आगे बढ़ना जरूरी है। फिर भी अगर कोई इस चर्चा को जारी रखना चाहता है तो वह अपनी टिप्पणी अथवा लेख के जरिए इस ब्लॉग पर जारी रख सकता है। तब तक हम लोग कुछ और मुद्दों की तरफ बढ़ते हैं लेकिन यह मुद्दा अभी बरकरार है।...

तेरा क्या होगा ब्लॉगर्स !

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ब्लॉगिंग और ब्लॉगर्स पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के संदर्भ में मेरा जो लेख यहां आप लोगों ने पढ़ा और अपनी चिंता से अवगत कराया, वह यह बताने के लिए काफी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को आम ब्लॉगर्स (वे नहीं जो किसी समुदाय या धर्म अथवा विचारधारा के खिलाफ घृणा अभियान चलाते हैं) ने काफी गंभीरता से लिया है। फिर भी कुछ लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को अच्छा बता रहे हैं और हमारे और आप जैसे लोगों को पाठ पढ़ा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को सही भावना से लिया जाना चाहिए। चलिए पहले तो यह तय हो जाए कि सही क्या है और जो लोग सच के साथ होने का दम भरते हैं वे खुद कितना सच बोलते हैं। सोचिए जरा...अगर आप किसी संचार माध्यम अथवा ब्लॉग पर कुछ लिख-पढ़ रहे हैं तो इतना तो आपको भी पता होगा कि लिखते वक्त लिखने वाले की कुछ जिम्मेदारी बनती है, वरना अगर बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया जाएगा तो वह पहले अपने ही गर्दन पर चला लेगा। कुछ लोगों ने दबी जबान से यह कहने की कोशिश की है कि अगर किसी ब्लॉग के जरिए कोई किसी संगठन अथवा दल के खिलाफ घृणा अभियान चलाता है तो उसके सामने पुलिस की शरण में जाने के अलावा

ब्लॉगिंग पर लगेगा पहरा, आप जाएंगे जेल

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यह लेख सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में तुरत-फुरत में लिखा गया है। यह जिस संदर्भ में वह खबर नीचे दी गई है। कृपया उस खबर को जरूर पढ़ें, तभी सही संदर्भ समझ में आएगा। - यूसुफ किरमानी ब्लॉगर्स पर लगाम कसने वाली है और हैरानी की बात है कि इसके विरोध के स्वर कहीं से नहीं सुनाई दे रहे हैं। जिन्होंने 24 फरवरी को द टाइम्स आफ इंडिया के पेज 9 पर इस आशय की खबर पढ़ी होगी, वे जरूर चिंतित होंगे। लेकिन इसकी आहट काफी पहले से सुनाई दे रही थी और किसी भी स्तर पर इसके विरोध की शुरुआत नहीं हुई थी। पहले यह जानिए की हुआ क्या है। केरल में रहने वाले 19 साल के अजिथ डी अपना ब्लॉग चलाते हैं। वह अपने ब्लॉग में शिवसेना की गुंडागर्दी के खिलाफ बराबर और असरदार ढंग से लिखते रहे हैं। यह सब शिवसेना को भला क्यों अच्छा लगता। महाराष्ट्र में शिवसेना यूथ विंग के राज्य सचिव ने अगस्त 2008 में मुंबई के ठाणे पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज कराई कि इस ब्लॉग के जरिए शिवसेना के खिलाफ लिखकर घृणा फैलाई जा रही है और खासकर इसमें जो लोग टिप्पणी करते हैं उससे समाज में वैमनस्यता बढ़ सकती है। पुलिस ने भी बिना पड़ताल अजिथ डी के खिलाफ धारा 50

स्लमडॉग मिलियनेयर : इन खुशियों को साझा करें

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-अलीका स्लम डॉग मिलियनेयर को 8 आस्कर पुरस्कार मिलने की खुशी कम से कम प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जबर्दस्त ढंग से दिखाई दे रही है। हालांकि यह मूल रूप से ब्रिटिश फिल्म है लेकिन हम भारतीयों को ऐसी खुशियां साझा करते देर नहीं लगती जिसमें भारत के लोगों का कुछ न कुछ योगदान रहता हो। रिचर्ड एडनबरो की फिल्म गांधी से लेकर स्लम डॉग... तक मिले पुरस्कारों से तो यही बात साबित होती है। लेकिन स्लम डॉग कई मायने में कुछ अलग हटकर है। जैसे इसके सारे पात्रों में भारतीय छाए हुए हैं और इस फिल्म की जान इसका संगीत तो बहरहाल खालिस देसी ही है। मुझे अच्छी तरह याद है कि इस फिल्म में ए. आर. रहमान के म्यूजिक को जब जारी किया गया था और गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीतने के बाद तो लोगों ने मुंह बना लिया था और स्लम डॉग... के म्यूजिक को पूरी तरह रिजेक्ट कर दिया था। लोग आपसी बातचीत में कहते थे कि रहमान ने इससे बेहतर म्यूजिक कई फिल्मों में दिया है। यह उनका बेस्ट म्यूजिक नहीं है। बहरहाल, अपनी-अपनी सोच है। देश का एक बड़ा हिस्सा इस फिल्म को मिले आस्कर पुरस्कार से उत्साहित है लेकिन अब भी इस बात की चर्चा तो हो ही रही है कि इ

पाक के हालात पर खुश होने की जरूरत नहीं

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भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान में जो हालात बन रहे हैं, उस पर हम सभी की नजर जाना स्वाभाविक है। एक प्रमुख पाक्षिक पत्रिका के पत्रकार अमलेन्दु उपाध्याय ने यह लेख खास तौर पर हिंदी वाणी के पाठकों के लिए भेजा है। अभी खबर आई थी कि पाकिस्तान के कबायली इलाके की स्वात घाटी में तालिबान और पाक सरकार के बीच युद्ध विराम का समझौता हो गया है और पाक सरकार इस बात पर राजी हो गई है कि स्वात घाटी में तालिबान अब शरीयत का कानून लागू करेंगे। ठीक इसी समय पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का बयान आया कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। दोनों खबरें भारत को परेशान करने वाली हैं। स्वात में तालिबान के सामने पाक हुकूमत का घुटने टेकना और जरदारी की स्वीकारोक्ति यह बताती है कि पाकिस्तान विघटन के कगार पर खड़ा है। इस खबर पर भारत में तथाकथित राष्ट्रवादी खुशी में झूम रहे हैं कि अब ‘नक्षे में से पापी पाकिस्तान का नाम मिट जाएगा’। लेकिन ऐसी खुशियां मनाने वाले उन लोगों में हैं जो पड़ोसी का घर जलते देखकर खुशियां मनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर से उठी लपटें हमारा अपना घर भी स्वाहा कर देंगी। मान लिय

कहीं पछताना न पड़े

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वैलंटाइंस डे पर जिस बेहूदगी और मॉरल पुलिसिंग को इस देश ने अपनी आंखों से देखा, सुना और पढ़ा, वह सचमुच शर्मनाक है। चंद लोगों ने भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर जो घटिया अभियान चलाया, यह देखकर अफसोस होता है कि वे और हम सभी आजाद भारत के नागरिक हैं। आमतौर पर संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदार अब तक सिर्फ उत्तरी भारत में ही वैलंटाइंस डे का विरोध और शौर्य दिवस मनाया करते थे लेकिन इस बार शुरुआत दक्षिण भारत से हुई और वहां भी मुट्ठी भर लोग लड़के- लड़कियों से बदतमीजी करते नजर आए। उज्जैन शहर में जो कुछ भी हुआ वह तो तमाम संघियों के लिए डूब मरने की बात है। आप लोगों में से लगभग सारे लोगों ने वह खबर पढ़ी होगी कि स्कूटर पर जा रहे भाई- बहन को बजरंगी सेना के गुंडों ने रोक लिया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया। उनका स्कूटर क्षतिग्रस्त कर दिया। यह वही शहर है, जहां एक प्रोफेसर को सरेआम एक राजनीतिक दल के छात्र संगठन के नेताओं ने गला दबाकर मार डाला। ये लोग प्रोफेसर को ज्ञापन देने गए थे। यह छात्र संगठन अपने आप को सबसे अनुशासित संगठन बताता है लेकिन उसके नेताओं की करनी अभी उज्जैन शहर भूला नहीं है। उसी शहर में भाई-बहन के

ओबामा और इस्राइल की गुंडागर्दी

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आखिरकार मुझे ब्लॉग की दुनिया में फिर से लौटने का मौका मिल ही गया। नए साल की शुरुआत जिस उथल-पुथल भऱे माहौल में हुई थी, उससे तो लग रहा था कि इसके लिए समय निकालने के दिन गए। लेकिन अब समय मिला तो फिर हाजिर हूं कि – मैं गया हुआ वक्त नहीं हूं जो लौटकर न आऊंगा...मैं जरूर आऊंगा और बार-बार आऊंगा। इतने दिनों की गैरमौजूदगी के लिए माफी चाहता हूं - यूसुफ किरमानी अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बरॉक ओबामा से फिलहाल आम अमेरिकी का मोह भंग नहीं हुआ है लेकिन अमेरिकी विश्लेषकों ने दबी जबान से यह कहना शुरू कर दिया है कि जॉर्ज डब्लू बुश की विदेश और सामरिक नीतियों से जो अमेरिका गर्त में जा चुका है, कमोबेश ओबामा भी उसी पर चलने वाले हैं। क्योंकि ओबामा के एक्शन यही बता रहे हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत है इस्राइल का गाजा पट्टी पर हमला और बेगुनाहों का नरसंहार। ओबामा ने एक लफ्ज भी इस्राइल की गुंडागर्दी के खिलाफ नहीं बोला। ओबामा ने शायद उन 87 मासूमों की लाशों को देखा होगा, जिन्हें इस्राइल ने एक मिसाइल गिराकर मार डाला। इस्राइल ने यह हमला यह कहकर किया है कि फिलिस्तीन की सत्तासीन सरकार हमास लगातार इस्राइल के कुछ इलाक