बीजेपी के पास अब भी वक्त है, मत खेलों जज्बातों से
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सभी को पता चल चुके हैं और अगले दो – चार दिनों में सभी जगह विश्लेषण के नाम पर तमाम तरह की चीड़फाड़ की जाएगी। इसलिए बहती गंगा में चलिए हम भी धो लेते हैं। हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में हुए हैं लेकिन मैं अपनी बात दिल्ली पर केंद्रित करना चाहूंगा। क्योंकि दिल्ली में बीजेपी ने प्रचार किया था कि किसी और राज्य में हमारी सरकार लौटे न लौटे लेकिन दिल्ली में हमारी सरकार बनने जा रही है और पूरे देश को दिल्ली की जनता ही एक संदेश दे देगी। इसके बाद मुंबई पर आतंकवादी हमला हुआ और जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली कहावत सच होती नजर आई। अगले दिन बीजेपी ने अखबारों में बहुत उत्तेजक किस्म के विज्ञापन आतंकवाद के मुद्दे पर जारी किए। जिनकी भाषा आपत्तिजनक थी। चुनाव आयोग तक ने इसका नोटिस लिया था। मीडिया के ही एक बड़े वर्ग ने दिल्ली में कांग्रेस के अंत की कहानी बतौर श्रद्धांजलि लिख डाली। यहां तक कि जिस दिन मतदान हुआ, उसके लिए बताया गया कि वोटों का प्रतिशत बढ़ने का मतलब है कि बीजेपी अब और ज्यादा अंतर से जीत रही है। इस माउथ पब्लिसिटी का नतीजा यह निकला कि 7 दिसंबर
तक कांग्रेस खेमे को यह उम्मीद नहीं थी कि वे जीत रहे हैं।
बहरहाल, दिल्ली तो दिल्ली है। पता नहीं दिल वालों की है या नहीं लेकिन इस दिल्ली ने दिखा दिया कि उसे सही और गलत की पहचान है। दिल्ली की पहले से ही प्रदूषित हवा में हर तरह का जहर घोलने की कोशिश इस चुनाव से पहले हुई। इस वातावरण के लिए कुछ खाद-पानी का इंतजाम आतंकवादियों ने अक्टूबर के महीने में दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट करके किया। इसके बाद बटला हाउस एनकाउंटर हुआ और जानी-मानी जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसी यूनिवर्सिटी को आतंकवादियों का सेंटर और वहां के वीसी मुशीरुल हसन को देशद्रोही घोषित कर दिया गया।
जिस दौरान की बात मैं आपसे कर रहा हूं, आप यकीन करिए कि दिल्ली की फिजा उन दिनों बहुत जहरीली हो गई थी। यह ईद के आसपास की बात है जब दिल्ली में लोग एक-दूसरे को शक की नजर से देखने लगे थे। अब बकरीद आ चुकी है, इस देश के खिलाफ रची गई साजिश मुंबई के बहाने सामने आ चुकी है लेकिन अब हालात बदले हुए हैं। लगता यही है कि हिंदू-मुसलमान साथ चलने को एक बार फिर से तैयार हैं। इस बार इस तरह की पहल को मजबूत करने के लिए दिल्ली के चुनाव नतीजे भी उम्मीद जगाते हैं। अगर दिल्ली में बीजेपी जीत जाती तो आतंकवाद पर बीजेपी के उन उत्तेजक इश्तहारों को भगवा पार्टी और उसके खैरख्वाह खुद सही ठहराने में जुट जाते। लेकिन दिल्ली के लोगों ने बता दिया कि उन्हें इमशोनली ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता।
हालांकि दिल्ली में कांग्रेस की इस जीत का यह भी मतलब न लगाया जाए कि कांग्रेस की सारी नीतियां ठीक हैं और जनता ने उस पर मोहर लगा दी है। जनता ने कांग्रेस को भी बता दिया है कि बेशक आप को दिल्ली में हम सरकार बनाने का मौका फिर दे रहे हैं लेकिन आपको इस कहने के लायक नहीं छोड़ेंगे कि आपके वोटों में इजाफा हुआ है। यह संदेश बहुत साफ है लेकिन चूंकि बीजेपी ने दिल्ली के चुनाव को सीधे आतंकवाद से जोड़ दिया था तो हम जैसे लोगों को भी उसी के इर्द-गिर्द बात करनी ही पड़ेगी। बहरहाल, दिल्ली ने बीजेपी टाइप आतंकवाद की परिभाषा को अंगूठा दिखा दिया है और आतंकवाद की वह परिभाषा जो हम-आप जानते हैं उसके खिलाफ अपना फैसला सुनाया है।
बीजेपी के पास अब भी वक्त है। पांच महीने बाद जब लोकसभा चुनाव होंगे और अगर वह आम आदमी के हक में ठोस नीतियों के साथ नहीं आती है तो लोग उसे कम से कम सरकार बनाने का मौका नहीं देने वाले। अगर आडवाणी को भी विजय कुमार मल्होत्रा की तरह सीएम इन वेटिंग जैसा तमगा (यानी पीएम इन वेटिंग)
लगाकर खुश नहीं होना तो इस पार्टी को आतंकवाद की आड़ में जज्बातों से खेलने की लड़ाई बंद करना होगी। देश को बताना होगा कि असली मसला रोटी-रोजी है। लोगों के जज्बात किसी पार्टी को लंबे समय तक वोट नहीं दिला सकते। वोटरों की नई जमात धीरे-धीरे और बढ़ रही है। इस जमात की अपनी परेशानियां और चुनौतियां है, यह जमात इन जज्बाती नारों के बारे में अच्छी तरह वाकिफ है। तमाम राजनीतिक दलों के लिए आने वाला समय काफी मुश्किल भरा है।
टिप्पणियाँ
अ. कांग्रेस की जीत का मुख्यकारण दिल्ली की प्रांतीयता के समीकरण में परिवर्तन है. शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के कारण पूर्वांचल से आये मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट दिया.
ब. बटाला हाउस के मामले में समाजवादी पार्टी के अमरसिंह ने वोट हथियाने की जो कुत्सित चाल चली इसके तोड़ में कांग्रेस ने महाराष्ट्रा सरकार की आड़ में एटीएस को आगे करके जो भगवा भगवा आतंकवाद का हल्ला मचाया इससे मुसलमानों के वोट जो कहीं और जा सकते थे वो सीधे कांग्रेस की झोली में गये. आप ही बताईये, क्या किसी भी मुसलमान ने किसी क्या भाजपा को वोट दिया होगा़?
स. वीके मल्होत्रा की गलत उम्मीदवारी, यदि इसकी जगह सुषमा स्वराज होती तो मामला एकदम उलट सकता था.
रही बात जामिया और मुशीरुल हक की तो आप नहीं सोच सकते कि मुशीरुल हक ने आतंकवादियों का साथ देकर जामिया के मुंह प्र कितनी कालिख पोत दी है और इसका खामियाजा मुशीरुल हक को नहीं बल्कि इसमें पढ़ रहे छात्रों को चुकाना पड़ेगा. आने वाले सालों मे जामिया से निकले छात्रों को रोजगार में जो दिक्कतें आयेंगी उनकी कल्पना आप तो कभी कर ही नहीं सकते.
देश के मतदाता कभी भी रोजी रोटी के मसले पर वोट नहीं देते, वो तो इस पर देते हैं कि तू मुसलमान है, तू मराठी है, तू मेरे जात वाला है, मैं तेरे गांव वाला हूं. यही कारण है कि डीपी यादवों, कुंडा के गुंडो और शहाबुद्दीनों की धमाके से जीत होती है और शिवखेड़ा जैसे ईमानदार लोगों की जमानत जब्त. एक लालू जैसा चाराचोर की नौटंकी पर लोग ट्रेनें कब्जा कर आते हैं लेकिन ईमानदार कोशिशें पिटती ही रहती है.
रोजीरोटी की बात कर रहे हैं तो पता कीजिये कि दिल्ली में पिछले दस सालों में कितने प्रतिशत रोजगार कम हुये हैं?
कांग्रेसी धूर्त हैं और भाजपाई बेवकूफ, देश के भले की उम्मीद इनमें से किसी से भी नहीं कर सकते. कम्युनिष्ट, लालू और समजावादियों जैसे चोरों और लुटेरों की तो बात ही करना देशद्रोह से कम नहीं है.
neta to har parti men ek jaise hi hain ,jab jisako mauka mil jaye ek doosare ki tang kheechane se baaz nahin aate
janata samajhadaar hai ,aur nateeza aapke samane
dhanyawaad