ये क्या जगह है दोस्तो
चारों तरफ माहौल जब खराब हो और हवा में तमाम बेचारगी की सदाएं गूंज रही हों तो लंबे-लंबे लेख लिखने का मन नहीं होता। चाहे मुंबई की घटना हो या फिर रोजमर्रा जिंदगी पर असर डालने वाली छोटी-छोटी बातें हों, कहीं से कुछ भी पुरसूकून खबरें नहीं आतीं। मुंबई की घटना ने तमाम लोगों के जेहन पर इस तरह असर डाला है कि सारे आलम में बेचैनी फैली हुई है। कुछ ऐसे ही लम्हों में गजल या कविता याद आती है। जिसकी संवेदनाएं कहीं गहरा असर डालती हैं। इसलिए इस बार अपनी बात ज्यादा कुछ न कहकर मैं आप लोगों के लिए के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी की एक संजीदा गजल पेश कर रहा हूं। शायद पसंद आए –
ठहरने का यह मकाम नहीं
भरे जहान में कोई शादकाम नहीं चले चलो
कि ठहरने का यह मकाम नहीं
यह दुनिया रैन बसेरा है हम मुसाफिर हैं
किसी बसेरे में होता सदा कयाम नहीं
किसी भी रंग में हम को भली नहीं लगती
तुम्हारी याद में गुजरी हुई जो शाम नहीं
तेरे फसाने का और मेरी इस कहानी का
नहीं है कोई भी उनवां कोई भी नाम नहीं
यह वक्त दारा ओ सरमद के कत्ल का है गवाह
नकीबे जुल्म थे ये दीन के पैयाम नहीं
भरी बहार है साकी है मय है मुतरिब है
मगर यह क्या कि किसी हाथ में भी जाम नहीं
बदलते वक्त ने पहुंचा दिया कहां केवल
सदाए हक भी रही अब सदाए आम नहीं
- केवल फरीदाबादी
अर्थ –
शादकाम – भरपूर, कयाम – ठहराव, फसाना- आपबीती, उनवां – शीर्षक, दारा – शाहजहां का सबसे बड़ा उत्तराधिकारी पुत्र जिसे औरंगजेब ने हराकर मार डाला था। सरमद उसका पीर फकीर दोस्त था। सरमद – नंगा, पीर फकीर, मस्तमलंग, औरंगजेब ने उसका सिर जामा मस्जिद की सीढियों पर कलम करवा दिया था। नकीबे जुल्म – अत्याचार दर्शाने वाले, पयाम- पैगाम, सदाए हक- सच की आवाज, सदाए आम – सार्वजनिक, सरे आम
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