क्या अब खत्म हो जाएगी अमेरिकी दादागीरी?


बराक ओबामा ने जब डेमोक्रेट उम्मीदवारी की रेस में हिलेरी क्लिंटन को पछाड़ा था, तभी इस बात की भविष्यवाणी की गई थी कि यह चुनाव विश्व इतिहास का टर्निंग पॉइंट साबित होने जा रहा है। ओबामा ने अमेरिकी मानस को समझा और बदलाव का नारा देकर अमेरिकी लोगों का दिल जीत लिया। हम भारतीय या यह कह लें कि एशियाई लोगों के लिए इस जीत का मतलब क्या है और क्या हमें वाकई ओबामा की जीत से खुश होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि सारे गोरे (यहां अंग्रेजों के संदर्भ में लें) काले लोगों से चिढ़ते हैं लेकिन गोरों की एक बहुत बड़ी आबादी कालों से वाकई चिढ़ती है। यही वजह रही कि अमेरिका में तमाम काले लोग गोरों की घृणा का शिकार हुए। इसलिए हम भारतीयों को इस जीत पर इसलिए जरूर खुश होना चाहिए कि व्हाइट हाउस में पहली बार एक काला व्यक्ति कुर्सी संभालने जा रहा है। अब गोरे कम से कम खास जगहों पर यह तो नहीं लिख सकेंगे कि इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड हियर (यहां कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित है)। ओबामा की जीत पर काले लोगों की विजय के साथ अब सबसे बड़ी चुनौती ओबामा के सामने है कि क्या वह दुनिया को इस्राइल के आतंकवाद से मुक्ति दिला पाएंगे?
ओबामा की जीत के साथ-साथ इसके नफा-नुकसान के बारे में बात करना इसलिए भी जरूरी है कि न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरा विश्व इस बदलाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। भारतीय विश्लेषकों ने यह बात साफ-साफ कही थी और जो सही भी है कि भारत के लिए जॉन मैक्केन का जीतना ज्यादा जरूरी था, बनिस्बत ओबामा के। क्योंकि आर्थिक नीति और पाकिस्तान के मामले में मैक्केन की नीति भारत समर्थक थी। लेकिन अगर समूची दुनिया में चल रही अमेरिकी दादागीरी के संदर्भ में इस जीत का विश्लेषण किया जाए तो ओबामा की जीत बहुत जरूरी थी। बुश की करनी की वजह से दुनिया में जो राजनीतिक संतुलन बदला, खासकर दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को जो संकट झेलना पड़ रहा है, वह बुश की ही देन है। हम बात ईरान-इराक की न करते हुए सीधे फिलिस्तीन की करते हैं, जहां इस्राइल अमेरिका के साथ मिलकर खून की होली खेल रहा है और गाजा पट्टी में बच्चों को टैंकों के नीचे कुचला जा रहा है। फिलिस्तीन एक ऐसा मुल्क है, जहां के लोगों पर यहूदियों को थोपा जा रहा है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल तक भारत फिलिस्तीन के संघर्ष का समर्थन करता रहा लेकिन बाद में यह आवाज दबती चली गई। आज हालत यह है कि अमेरिकी दादागीरी के चलते भारत इस्राइल की दमनकारी नीतियों का विरोध भी नहीं कर पा रहा है।
इराक में जो कुछ हुआ, वह सभी के सामने है। यह ठीक है कि आप सद्दाम हुसैन की नीतियों का भले ही समर्थन न करते हों लेकिन किसी देश पर युद्ध थोपकर आप उस पर कब्जा कर लें, इससे बड़ा आतंकवाद और क्या हो सकता है। डब्ल्यू जॉर्ज बुश को अभी दो महीने व्हाइट हाउस में और रहना है। वह विदा हो जाएंगे लेकिन इराक में पड़ी अमेरिकी फौज अब तक उन जनसंहारक केमिकल शस्त्रों का पता नहीं लगा पाई, जिसकी आड़ में इराक पर कब्जा कर लिया गया। इराक में आज भी बेगुनाह अमेरिकी फौज का निशाना बन रहे हैं। अबू गरीब जेल में अमेरिकी फौज ने जो कुछ किया, उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। अमेरिकी चुनाव के दौरान वहां बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे जो एक समानांतर अभियान चला रहे थे जिसमें बताया जाता था कि आज इराक में कितने बेगुनाह कत्ल किए गए।
ओबामा के जीतने से यह लग रहा है कि बुश जिस तरह ईरान पर अगला युद्ध थोपने और वहां कब्जा करने की नीयत बनाए हुए थे, अब वह खतरा फिलहाल टल गया लगता है। लेकिन अमेरिका में सक्रिय यहूदी लॉबी कब क्या कर गुजरे कोई नहीं जानता। क्योंकि अमेरिका को मूलत: यहूदी लॉबी ही नियंत्रित कर रही है। अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन में यहूदी मूल के अधिकारी भरे हुए हैं। इसलिए ओबामा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या वह इस्राइल नियंत्रित आतंकवाद से दुनिया को मुक्ति दिलाकर तालिबानी टाइप आतंकवाद के खिलाफ असली युद्ध छेड़ेंगे? वक्त इसका जवाब देगा।

टिप्पणियाँ

कोई दादागिरी दादाओं का लीडर बदल जाने से समाप्त नहीं होती। उस के लिए तो दादागिरी को पटखनी देनी होती है।
roushan ने कहा…
युसूफ जी आपसी चर्चाओं में हम भी अपने दोस्तों से कह रहे थे कि शायद हिन्दुस्तान के लिए एक रिपब्लिकन अच्छा होता पर दुनिया के लिए ओबामा ही बेहतर हैं. हिंदुस्तान के हितों के थोड़ा विपरीत जन कर भी हम ओबामा को ही चाहते रहे थे क्योंकि एक बेहतर दुनिया एक बेहतर हिंदुस्तान के लिए बहुत जरूरी है.
यह उम्मीद करना कि अमरीका बिल्कुल से बदल जाएगा ग़लत होगा पर इतनी तो उम्मीद कि जा सकती है कि अब कुछ मुद्दों पर छोटे ही सही परिवर्तन देखने को मिलेंगे.
एक ओबामा प्रशासन में अमरीकी प्रशासन का चरित्र भले ही न बदले पर एक शुरुआत हो चुकी है. यूरोपियन यूनियन जहाँ क्यूबा की ओर दुबारा हाथ बढ़ा रहा है वहीँ अमरीकी प्रभुत्व वाली आर्थिक शक्तियां बुरी तरह से डावाडोल हैं.
देखने वाली बात यही होगी कि अपनी शक्तियां दुबारा पाने के लिए अमरीका क्या करता है.
शायद यह उसके पास एक मौका है दादागिरी की जगह एक सहिष्णु रास्ता अपनाना पर प्रश्न यही है कि क्या अमरीका उतना सहस दिखा पायेगा

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