कुछ तो शर्म करो
अब वह दिन दूर नहीं जब आप किसी राजनीतिक पार्टी से अगर उसकी सभा या रैली में सवाल करेंगे तो उस पार्टी के वफादार कार्यकर्ता आपको पीटने से परहेज करेंगे। आपकी जुर्रत को राजनीतिक दल अब बर्दाश्त नहीं करेंगे। वह राजनीतिक पार्टी (Political parties)जो खुद को सत्ता के बिल्कुल नजदीक समझ रही है और जिसने अपना पीएम इन वेटिंग भी बहुत पहले घोषित कर दिया है, यह उसी पार्टी का हाल है जो अपने खिलाफ होने वाले प्रतिकूल सवालों को बर्दाश्त करने का माद्दा खो चुकी है। आप सही समझे यहां बात बीजेपी की ही हो रही है। राजधानी में इधर दो घटनाएं हुईं जो अखबारों में बहुत मामूली जगह ही पा सकीं लेकिन दोनों घटनाएं अपने आप में बहुत गंभीर हैं।
दिल्ली के पुष्प विहार इलाके में शनिवार शाम को बीजेपी की एक सभा हुई। इस इलाके से बीजेपी प्रत्याशी सुरेश पहलवान चुनाव लड़ रहे हैं। उस सभा को पुष्प विहार इलाके के लोग बड़े ही चाव से सुन रहे थे। तब तक सब गनीमत रहा, जब तक बीजेपी नेता स्थानीय मुद्दों बीआरटी कॉरिडोर, भ्रष्टाचार, महंगाई, बढ़ते अपराध को लेकर शीला दीक्षित सरकार को कोसते रहे। लेकिन इसके बाद इन लोगों ने सभा में मुसलमानों को देश विरोधी बताना शुरू कर दिया और कहा कि इन लोगों की इस देश को जरूरत ही नहीं है। इस पर सभा में मौजूद एक युवक ने इन लोगों से सवाल किया कि देश बड़ा है या दल? आप लोग तो देश बांटने की बातें कर रहे हैं। बीजेपी नेताओं ने बड़ी शालीनता से उस युवक से कहा कि आप बैठ जाएं, अभी थोड़ी देर में हम बताते हैं कि देश बड़ा है या दल। ठीक दस मिनट बाद उस युवक के पास चार-पांच लोग आए और कहा कि आइए भाई साहब हम आपको इस सभा से बाहर चलकर समझाते हैं कि दल बड़ा है या देश। हालांकि उस दौरान एक मातृ शक्ति (बीजेपी के मुताबिक) ने कहा कि अरे दल बड़ा होता है, देश तो बाद की चीज है। उन युवकों ने उस मातृ शक्ति से भी कहा कि नहीं, इन भाई साहब को अलग से बताना जरूरी है। इसके बाद उन युवकों ने उसकी जबरदस्त पिटाई की और हर मुक्के के साथ यही कहते रहे कि अब समझ में आ गया होगा कि दल बड़ा है या देश। आप कहेंगे कि यह घटना बनावटी है, झूठी है। ऐसी कहानी तो कोई भी सुना देगा। तो आप भी सुनिए। अगर यह घटना किसी आम अच्छी सोच वाले इंसान के साथ हुई होती तो शायद हमें भी न पता चलता। यह घटना दरअसल, राजधानी के एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक के आर्ट डिपार्टमेंट में काम करने वाले युवक के साथ हुई जो खुद भी बहुत अच्छा ग्राफिक आर्ट बनाता है। जब उसने रात में फोन पर दफ्तर में इस घटना की जानकारी दी तो उसे पुलिस में एफआईआर कराने की सलाह दी लेकिन पिटने से आहत उस युवक ने कहा कि वह पुलिस कार्रवाई करेगा तो वे लोग पुष्प विहार में उसका रहना दूभर कर देंगे। वैसे भी महज हंगामा करने के लिए मैंने यह सवाल नहीं पूछा था। इस तरह के सवाल अब लोग इन लोगों से गली-गली पूछेंगे, फिर ये कितने लोगों को इस तरह पीटेंगे। यह कहते हुए मैंने उस युवक के चेहरे पर पूरा आत्मविश्वास देखा था।
अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने की दूसरी घटना दिल्ली यूनिवर्सिटी में इस हफ्ते हुई। आर्ट फैकल्टी में एक सेमिनार में आयोजकों ने कश्मीरी पत्रकार एसएआर गिलानी को भी बुलाया था। गिलानी वही हैं जिन्हें पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह, आतंकवाद फैलाने और अन्य तमाम आरोपों से मुक्त कर दिया है। अभी सेमिनार चल ही रहा था कि भाजपा से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कुछ कार्यकर्ताओं ने वहां नारे लगाने लगे। उन्होंने आर्ट फैकल्टी में तोड़फोड़ की और पत्रकार गिलानी के मुंह पर थूक भी दिया। एबीवीपी का कहना था कि गिलानी को आयोजकों ने वहां क्यों बुलाया, यह तो आतंकवाद का समर्थक है, देशद्रोही है। ये दोनों घटनाएं हमसे-आपसे कुछ कहती हैं। इनका विरोध हम लोगों को करना चाहिए या नहीं? क्या इस तरह की उम्मीद हम उस राजनीतिक दल से कर सकते हैं जो खुद को सबसे बड़ी आदर्शवादी पार्टी बताती है और दिन-रात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देती है। एक ऐसी पार्टी जो केंद्र में इस बार सरकार बनाने का सपना पाले हुए है। ये दोनों घटनाएं इस पार्टी का चरित्र बताने के लिए काफी हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में हुई घटना को हम थोड़ी देर के लिए यह कहकर भूल जाते हैं कि आखिर गिलानी विवादास्पद हैं तो सामने वाला इस तरह की प्रतिक्रिया देगा ही। लेकिन पुष्प विहार में उस युवक ने क्या कसूर किया था? सोचिए जरा...यह छिपी हुई तानाशाही इस देश को कहां ले जाएगी?
टिप्पणियाँ
अब आई बात दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई मीटिंग की, जिसमें किसी ने गिलानी के मुंह पर थूक दिया. वहां एक पर्चा बांटा गया था, जिसमें गिलानी और उस के साथियों ने आरएसएस और वीएचपी पर जम कर थूका. बदले में उन्होंने गिलानी के मुंह पर थूक दिया. बात बराबर हो गई.
एक ग़लत बात जरूर हुई. शिक्षा संस्थाओं का इस तरह की मीटिग करने के लिए दुरूपयोग करना ग़लत है. दिल्ली में हजारों ऐसे हाल हैं जहाँ मीटिंग की जा सकती हैं. कुछ लोग हर बात की जांच कराने की बात करते हैं. इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि यह कमरा ऐसी मीटिंग करने के लिए किस ने दे दिया और क्यों दे दिया?
तो सुरेश जी मानते हैं वो बेचारे पर्चे का जवाब पर्चे से नही दे पाए होंगे तो मुह पर थूका. उम्मीद नही थी सुरेश जी कि आप इस तरह जायज ठहराएंगे. आपने दिल दुख दिया लगता हैं हमें भी आपके ब्लॉग पर कमेन्ट करना बंद करना होगा नही तो आप भी किसी दिन ऐसे हिसाब बराबरी करने लग गए तो........
खैर
बात वाराणसी की है नेहरू जी भाषण दे रहे थे प्रधान मंत्री के रूप में और सभा में एक युवक खड़ा हों गया उसने तमतमाए हुए चेहरे से नेहरू जी पर सवाल उछाल दिया ये बड़ी बड़ी बातें छोडिये और बताइए आख़िर आप लोगों ने हमें दिया क्या है.
सभा सन्न रह गई नेहरू जी का गुस्सा सभी जानते थे
नेहरू जी ने उसकी तरफ़ शांत स्वरों में जवाब लौटाया
हम लोगों ने आपको यह दिया है कि आज भरी सभा में आप अपने देश के प्रधान मंत्री की तरफ़ ऊँगली उठा कर पूछ रहे हैं की आपने हमें दिया क्या है
शायद आज की राजनीति में नेहरू के लिए जगह नही होती.
सवाल उठाने की आजादी और अपनी बात कहने की आजादी लोकतंत्र का मूल मन्त्र होता है. हमने डी यु वाली घटना का जिक्र सुना था. सवाल यह है कि क्या ये छोटे छोटे संगठन न्यायपालिका से ऊपर हैं? भाजपा की सरकार के दौरान ही गिलानी पर आरोप लगे थे और न्यायपालिका ने पाया था कि उनके ख़िलाफ़ मामला ग़लत है अब ये संगठन उन पर ऊँगली उठाने वाले कौन होते हैं
गिलानी के बारे में बहुत दिनों से कोई ख़बर नहीं पढ़ी. अब आई थी यह ख़बर. गिलानी ने एक पर्चा बांटा जिसमें उन्होंने कुछ संगठनों (यह हिंदू संगठन नहीं हैं, यह कुछ हिन्दुओं के संगठन हैं, कृपया इन्हें हिंदू संगठन कहना बंद करें) को जम कर गालियाँ दीं. यही गालियाँ उन्होंने अपने भाषण में भी दीं. गिलानी चुप थे तो यह संगठन भी चुप थे. शुरुआत गिलानी ने की. पंडित नेहरू से सम्बंधित जिस घटना का आपने जिक्र किया है उस में आपके ही अनुसार उस युवक ने नेहरू को गाली नहीं दी थी. देश के प्रधानमंत्री की तरफ़ ऊँगली उठाकर अपनी बात कहना एक अभद्रता कहा जा सकता है गाली नहीं. बैसे भी उस घटना का गिलानी के सन्दर्भ में जिक्र करना बहुत ग़लत बात है. गिलानी और नेहरू को एक प्लेटफार्म पर खड़ा करना अनुचित है.
आप हर बात में ख़ुद को ऊंचा साबित करने की आदत का त्याग कर दीजिये. विचार विमर्श परस्पर पर प्रेम और आदर पर आधारित होना चाहिए. जब कोई किसी का आदर करता है तो वह ख़ुद अपना आदर करता है. गिलानी और इन संगठनों के बारे में बात करते समय हम क्यों एक दूसरे का आदर करना भूल जाएँ?
चीजों को सही तरीके से देखना जरुरी है नेहरू जी वाली घटना एक जन सभा की थी यहाँ युसुफ भाई ने भी एक जन सभा की चर्चा की थी नेहरू जी का जिक्र उस घटना के सन्दर्भ में है.
इतनी तो उम्मीद आपसे कर ही सकते हैं हम कि आप चीजों को सही तरीके से देख सकेंगे?
खैर आपने कहा कि आपने जायज कब ठहराया उनके थूकने को तो जरा इस ध्यान से पढिये
"बदले में उन्होंने गिलानी के मुंह पर थूक दिया. बात बराबर हो गई."
ये आपने ही तो लिखा था पहली टिप्पणी में?
इसका मतलब हमें समझ में ग़लत आया तो हम अपने शब्द वापस लेते हैं.
आपका दिल दुखाने कि हमारी मंशा नही थी पर अगर ऐसा हो ही गया तो छोटे तो हमेशा मुआफी पाते ही रहते हैं एक बार और सही
और मेरे हुजूर
"हिंदू संगठन कहना बंद कीजिये "
पर या तो बताइए इस इस ब्लॉग पर इस पोस्ट की पूरी चर्चा में अभी तक पहली बार हिंदू संगठन शब्द प्रयोग किसने किया ?
आपने ही और सिर्फ़ आपने अभी तक अब हम जिक्र कर रहे हैं पर हम किसी को कह नही रहे हैं. तो शिकायत करने की बात आई कहाँ से?
अब यह जबरदस्ती थोपी हुयी बात नही है?
प्रेम और विश्वास की बातें हमें भी अच्छी लगती है पर इस तरह प्रेम? इससे तो झगडा ही अच्छा होता है.
सुरेश जी ख़ुद को ऊंचा साबित करने की आदत इंसानी है जी हाँ यह ग़लत आदत है पर हम अभी गलतियाँ करने वाले इंसानों की श्रेणी में ही आते हैं. कभी खुदा बने तब देखा जाएगा तब तक अपनी हर गलती के लिए माफ़ी मांगते चलेंगे और इतना तो यकीन है हमें कि मुआफी मिलती रहेगी हम गुस्ताखों को जिस दिन नही मिली हम मान लेंगे कि हम अब खुदा हो गए.
धीरेश भाई क्या करें भरोसा करने की आदत जो है भोले नही हैं जान बूझ कर उम्मीदें पालते हैं क्या पता किसी दिन उम्मीद भी सच्ची हो जाय .
अब तक तो युसुफ भाई भी परेशां हो गए होंगे हमसे