जिंदा होता हुआ एक मशीनी शहर

मशीनी शहर फरीदाबाद वैसे तो किसी परिचय का मोहताज नहीं है लेकिन जो लोग पहली बार इसके बारे में पढ़ेंगे उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह हरियाणा राज्य का तेजी से विकसित होता हुआ शहर है। यह दिल्ली से सटा हुआ है और यहां सिर्फ कल-कारखाने हैं। यह शहर दरअसल खुद में मिनी इंडिया है, जहां देश के कोने-कोने से आए लोग पुरसूकुन जिंदगी गुजारते हैं। नफरत की जो आंधियां बाकी शहरों में चलती हैं, वह यहां से कोसों दूर है। मेरी तमाम यादें इस शहर से जुड़ी हुई हैं। लंबे अर्से से इस शहर की साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा कहीं सुनाई देती थी। हाल ही में जब मुझे कथाकार हरेराम समीप उर्फ नीमा का फोन आया कि अदबी संगम को फिर से जिंदा किया जा रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अदबी संगम वह संस्था रही है जिसके जरिए मैंने साहित्य को नजदीक से जाना। आज से लगभग 15-20 साल पहले फरीदाबाद में साहित्यिक गतिविधियां चरम पर थीं। शायरों में खामोश सरहदी, अंजुम जैदी, हीरानंद सोज, डॉ. जावेद वशिष्ठ, ओम प्रकाश लागर, ओमकृष्ण राहत, के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी, उर्दू कहानी लेखकों में बड़ा नाम सतीश बत्रा, पंजाबी में तारा सिंह कोमल, सुभेग सदर, हिंदी में ज्योति संग और दीगर लोगों ने इस मुहिम को अंजाम तक पहुंचा दिया था। (हो सकता है कुछ नाम मुझसे छूट गए हों, इसकी मैं माफी चाहता हूं) इसी के चलते हरियाणा उर्दू अकादमी का दफ्तर फरीदाबाद में खुला और फिर राजनीति का शिकार होकर पंचकूला चला गया। बाद में खामोश सरहदी, लागर, सतीश बत्रा, तारा सिंह कोमल की मौत और कुछ लोगों के इस शहर से चले जाने की वजह से सारी गतिविधियों पर लगाम लग गई।
हरेराम समीप ने बताया था कि न सिर्फ अदबी संगम को फिर से जिंदा किया जा रहा है बल्कि सभी साहित्यिक संस्थाओं को इसमें बुलाया गया है और तीन किताबों का विमोचन भी किया जा रहा है। ये थीं अंजुम जैदी, केवल फरीदाबादी और सुभेग सदर की किताबें। बहरहाल, अदबी संगम का यह कार्यक्रम बेहद सफल रहा और इस मशीनी शहर में उम्मीद की नई रोशनी छोड़ गया है। इसके फौरन बाद कुछ अन्य साहित्यिक संस्थाओं ने भी फरीदाबाद में इस तरह का कार्यक्रम करने की घोषणा कर डाली है जो यकीनन एक अच्छा संकेत है।
इनमें केवल फरीदाबाद वह छिपा हुआ नाम है जिसकी रहनुमाई में फरीदाबाद की साहित्यिक गतिविधियां चलती रहीं। वह एक कंपनी में उच्च पद पर थे, इसलिए पैसे से जेब खाली वाली साहित्यिक संस्थाओं के वही सबसे बड़े पालनहार थे। अब वह रिटायर हैं लेकिन इस मोर्चे पर उनकी वही अप्रोच है। उनकी किताब बोलते लम्हे जो अब भी मैं पढ़ रहा हूं, दरअसल जिंदगी का दस्तावेज है। भारत-पाकिस्तान के नापाक बंटवारे के बाद जो रिफ्यूजी उजड़कर भारत में आए, उनमें से एक बड़ी तादाद फरीदाबाद में बसती है। उनकी शायरी में इसका दर्द जाने-अनजाने झलकता है। यहां मैं उनकी कुछ गजल पेश करूंगा और आगे भी जब मौका मिलेगा तो इस ब्लॉग पर आपको उनकी अन्य गजलों और नज्मों से रूबरू कराउंगा।
अंजुम जैदी ने कर्बला में एक तानाशाह के खिलाफ इमाम हुसैन (पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे) की जंग को जिस अंदाज में कलमबंद किया है, वह दरअसल उर्दू साहित्यिक के उच्च मानदंड स्थापित करने वाली किताबों में से है। जहां तक मुझे याद है यह उनकी तीसरी किताब है लेकिन उनकी हर किताब एक से बढ़कर एक साबित हुई है। तीसरी किताब कर्बला - मोहसिने इंसानियत दरअसल मुसद्दस की शक्ल में है। इस ब्लॉग पर शीघ्र ही उनकी अन्य रचनाओं को सामने लाने की मेरी कोशिश रहेगी। हालांकि सुभेग सदर की किताब पर भी मैं कुछ लिखना चाहता था लेकिन दफ्तर की भागमभाग में मुझे न उनकी किताब मिली और न ही मैं उसको प्राप्त कर सका। लेकिन सुभेग सदर से भी रूबरू का मौका हम लोगों को मिलेगा।

इन तीनों हस्तियों के बारे में मैने यहां बहुत संक्षेप में लिखा है। क्योंकि ब्लॉग पर लंबी बात लोग पढ़ने को तैयार नहीं होते इसलिए इसे यहीं पर खत्म करके उन दोनों शायरों के कुछ अशार आपकी खिदमत में पेश करता हूं।

अंजुम जैदी

इंतजार का सूरज
सूरज न हो तो वक्त का एहसास ही न हो
सूरज न हो तो लब पे कभी प्यास ही न हो
सूरज न हो तो फूलों में ये बास ही न हो
सूरज न हो तो सुबह की फिर आस ही न हो
सूरज न हो तो गरदिशे शामो सहर न हो
सूरज न हो तो जीस्त किसी की बसर न हो।
सूरज न हो तो तीरगी ही तीरगी रहे
सूरज न हो तो जुल्मते शब ही बनी रहे
तारों में ज़ौ न चांद में ताबंदगी रहे
मंजर कोई न आंखों में फिर रोशनी रहे
दुनिया में कुछ सुझाई न दे रात के सिवा
हाथ आए कुछ न चादरे जुल्मात के सिवा।
जादा कोई न फिर कोई मंजिल नसीब हो
तूफान में किसी को न साहिल नसीब हो
राहत सुकून चैन न दिल को नसीब हो
जद्दो जेहद का कोई न हासिल नसीब हो
फरियादो अलमदद की सदा गूंजती रहे
कानों में सायं-सायं हवा गूंजती रहे।

...

सब कुछ है मगर दीन का चर्चा ही नहीं है
रौशन हों दिये लाख उजाला ही नहीं है

...
हमारी जिंदगी है रहबरे मंजिल निशां बनकर
हमें जीना नहीं आता ग़ोबारे कारवां बनकर
हमी ने जहल की तारीकियों में रहबरी की है
जेहादे इल्म की तहरीक के रूहे रवां बनकर
अलम इंसानियत का लेकर हर साहिल से गुजरे हैं
कभी तूफान की सूरत कभी मौजे रवां बनकर
चमनजारों से गुजरे दर्से तंजीमे चमन देते
बयाबानों में पहुंचे हैं तो हुस्ने गुलिस्तां बनकर

के . के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी
(बहल साहब की यह गजल मुझे बेहद पसंद है)

कौन रोकेगा ज़माने को सितम ढाने से
बाज़ आए नहीं ज़ालिम कभी समझाने से
रंग तो एक ही होता है लहू का यारो
चाहे काबा से बहे या किसी बुतखाने से
करबला का यह सबक आज के कातिल सीखें
जुर्म तो जुर्म है मिटता नहीं पछताने से
दर्दो गम रंजो अलम लुत्फो मुहब्बत क्या है
बात यह पूछ ले हमदम किसी दीवाने से
कोई दीवाना हुआ या कोई दिल टूटा है
फिर जो आई सदा नज्द के वीराने से
कुर्बे मुर्शिद से मुझे रब्ते खुदा हासिल है
मैं पलट आया हूं मस्जिद से सनमखाने से
दोस्त भी सुनते नहीं दिल पे जो गुजरी केवल
हाले दिल कौन कहे फिर किसी बेगाने से

कुछ और शेर देखिए

सब के दिल में अगर खुदा होता
खून बंदों का क्यों बहा होता
...
यह तो इक काफिरों की बस्ती थी
किसने पहली अजान दी होगी

...
रहम की तहजीब से रौशन रहे हैं ये मकां
किस को होगा बैर ईसा की सनागाहों के साथ
...
अजनबी चेहरे थे कोई आशना चेहरा न था
ऐसा लगता था कि कोई शहर में मेरा न था

अदबी संगम के कार्यक्रम में मौजूद बाएं से शायर केवल फरीदाबादी और अंजुम जैदी


हिंदी वाणी – यूसुफ किरमानी

टिप्पणियाँ

Against all the odds ने कहा…
फरीदाबाद के अदब से परिचय कराने के लिए आपका शुक्रिया।
Unknown ने कहा…
फरीदाबाद की बात ही अलग है। अच्छा लिखा है। केवल फरीदाबाद की गजल लाजवाब है।
SMYK ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…
It is good to see here about my city. Please write more about my city and it,s people. I gone through some articles here, they are just excellent. Thanks.
Aadarsh Rathore ने कहा…
बेहतरीन प्रस्तुति है।
Aruna Kapoor ने कहा…
Farhcidabad ke baaremein achchhi aur vistrut jaankaari aapane upalabdh karai hai; dhanyawad!
बेनामी ने कहा…
युसुफ़ भाई, आपके कॉमेंट के लिए शुक्रिया। इस बहाने आपके ब्लॉग में आना हुआ। अच्छा लगा। पढ़ रहा हूँ। तफ़सील से फिर…

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