नेता का बेटा नेता बने, इसमें समस्या है


-स्वतंत्र जैन
ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस में तूफान आया हुआ है। आरोप है कि पार्टी में टिकट बेचे गए हैं। आरोप पार्टी की ही एक महासचिव ने लगाया है। इस पूरे विवाद पर गौर करें तो इसमे दो छोर साफ नजर आते हैं। एक तरफ आधुनिकता है तो दूसरी तरफ परंपरावादी। एक तरफ भारतीय पॉलटिक्स के ओल्ड गार्ड हैं तो दूसरी तरफ युवा नेता। जमे जमाए और खुर्राट नेता जहां यह कह रहे हैं कि 'जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और वकील का बेटा वकील बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता, तो राहुल गांधी जैसे युवा नेता कह रहे हैं पॉलटिक्स में एंट्री कैसे हो इसका भी एक तरीका होना चाहिए।

नेता का बेटा नेता बने इसमें किसी को क्या बुराई हो सकती है, आखिर जार्ज बुश सीनियर के पुत्र जार्ज बुश जूनियर भी तो आठ साल तक लोकतंत्र के मक्का माने जाने वाले अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे। पर इस स्टेटमेंट में जो बात झलकती उससे वंशवाद की बू आती है, कि नेतागीरी पर पहला हक नेता के बेटे का है। यह वही वंशवाद की बीमारी है जिसका आरोप कभी कांग्रेस पर लगा करता था और जो अब महामारी बनकर लगभग हर पार्टी को अपनी चपेट में ले चुकी है।

नेता का बेटा नेतागीरी पर अपना हक समझे यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है और इसके कारण हमारी राजनीतिक प्रणाली, सामाजिक प्रणाली, हमारी शासन प्रणाली और हमारे संविधान में ही निहित हैं।

सबसे पहले राजनीतिक प्रणाली की बात करते हैं। आज के भारत में नेता बनने की राह सामान्यता किसी आंदोलन या चमत्कारिक नेतृत्व और बौद्धिक क्षमता से होकर नहीं गुजरती। कोई शैक्षिक योग्यता, कोई डिग्री भी आवश्यक नहीं है। इसके लिए सामान्यता जो रास्ता अपनाया जाता है वो कुछ इस प्रकार है - किसी पार्टी में कार्यकर्ता बन जिले अथवा राज्य स्तर पर कोई पद प्राप्त करना। चुनाव के समय पार्टी से टिकट पाने का प्रयास करना। जीत जाने पर लोकसभा, विधानसभा या राज्यसभा का सदस्य बनकर जोड़तोड़, जुगाड़ से मलाईवाला मंत्रालय हथिया कर सत्ता सुख भोगते हुए जनता की सेवा करना।

इस पूरी प्रक्रिया में जो चीजें सबसे महत्वूपर्ण है वह है -पार्टी में पद, प्रभाव और टिकट की भूमिका। ये सभी चीजें किसी कार्यकर्ता को तभी नसीब होती हैं जब उसे किसी नेता का वरद्हस्त प्राप्त हो। अन्यथा वह जीवनभर कार्यकर्ता ही बना रह जाता है, चुनाव लडऩे का मौका भी उसे कभी नहीं मिलता। यहीं पर राजनीति अन्य प्रोफशनों से अलग हो जाती है। नेता पुत्र या रिश्तेदार के होते हुए किसी कार्यकर्ता को नेता आर्शीवाद मिल जाए, भारतीय राजनीति में यह बेहद टेढ़ी खीर साबित हो चुका है। भारत के सारे राजनीतिक दल इसके गवाह हैं। राहुल गांधी ने भी माना है कि राजनीति में एंट्री का कोई प्रोसीजर न होने के कारण कनेक्शन बड़ी भूमिका निभाते हैं।

इस बात को कुछ विस्तार से इस प्रकार समझा जा सकता है। नेताओं की तरह कोई डॉक्टर या वकील अपने को बेटे न तो आवश्यक डिग्री दिला सकता है और न ही प्रोफेशनल प्रभाव और सम्मान। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को खुद ही प्रयास करना होता है।

दूसरा है इनके काम के स्वरूप में अंतर। नेता अपनी जिम्मेदारी निभाने के क्रम में सार्वजनिक संसाधनों का नियंत्रण और वितरण करता है जबकि वकील, डॉक्टर या व्यापारी अपने संसाधनों पर निर्भर होते हैं। नेताओं के निर्णय सार्वजनिक हित को, देश के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करते हैं, जबकि वकील या व्यापारी के निर्णय उनको खुद ही बनाते अथवा बिगाड़ते हैं। वे सफल होते हैं तो सरकार उनसे ज्यादा टैक्स लेती है और असफल होते हैं तो सरकार उन्हें उनके हाल पर छोड़ देती है। नेताओं के हाथ में जहां पूरे लोकतंत्र की बागडोर होती है पर वकील, डॉक्टर या व्यापारी की भूमिका सामान्यता वोटर से ज्यादा नहीं होती।

और इनमें सबसे बड़ा अंतर यह है कि नेता कर्म एक सेवा कर्म है कोई व्यवसाय या प्रोफेशन नहीं। इसीलिए नेता अपने वोटरों, अपने चुनाव क्षेत्र, अपनी पार्टी, अपने मंत्रालय, अपने देश के प्रतिनिधि होते हैं। सार्वजनिक हित, देश हित उनकी जिम्मेदारी होती है। जबकि वकील, डॉक्टर या फिर व्यापारी सिर्फ अपने और अधिक से अधिक अपने व्यवसाय या कंपनी के प्रतिनिधि होते हैं और उनका हित ही उनकी जिम्मेदारी होती है। नेता जनता के लिए और जनता द्वारा चुने जाते हैं इसलिए उन्हें अगर जनता से अधिक सम्मान मिलता है तो उनसे सार्वजनिक मर्यादाओं, कानूनों और अपेक्षाओं पर खरा उतरने की अधिक उम्मीद भी की जाती है।

इसीलिए वकील का बेटा वकील बने इसमें कुछ गलत नहीं है क्योंकि यहां कोई सार्वजनिक हित दांव पर नहीं है। पर नेता का बेटा नेता बने तो यही बात नहीं कही जा सकती है। सवाल उस सोच का है जिसके अंतर्गत नेता का बेटा नेतागीरी पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, जो वकील या डॉक्टर का बेटा कभी नहीं समझता।

'नेता का बेटा नेता बने इस सोच का स्वभाविक विस्तार होगा कि किसान का बेटा किसान और मजदूर का बेटा मजदूर रहे। इस तरह यह विचार परिवर्तन के खिलाफ है और चूंकि जनता के चुनाव के दायरे को काफी हद तक नेतापुत्र तक ही सीमित करता है इसलिए अलोकतांत्रिक भी। फिर यह सोच जन्मगत अधिकार की बात करती है, जो कि एक तरह से जातिवाद का सिद्धांत: समर्थन है, इसलिए असंवैधानिक भी। क्या भारत के राजनेता पुत्रमोह में संविधान और लोकतंत्र सब कुछ ताक पर रख देना चाहते हैं ? ये नेता स्वयं क्यों कुछ नहीं बदलना चाहते, क्या सब कुछ ओबामा ही बदल देगा।

टिप्पणियाँ

G.N. J-puri ने कहा…
राहुल गाँधी ने यह कहा, राहुल गाँधी ने वह कहा! ख़ुद राहुल गाँधी की योग्यता क्या है जो उसे अगले पीएम के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है? गाँधी राज(?)परिवार का चश्मोचिराग होना क्या सबसे ऊँची योग्यता है?

आपकी सारी बातें तर्कसंगत लगीं, पर अच्छा होता अगर राहुल को कोट न करते, जिसकी राजनैतिक समझ और मानसिक परिपक्वता भी प्रश्नों के घेरे में है.
वंशवाद एक ऐसा विषय है की सब इससे बचना चाहते है . नेता का लड़का तो तब भी हाथ पेर मरता है ,अखबार के मालिक के यहाँ तो सीधे सम्पादक पैदा होता है . कहे तो उदहारण दू
बेनामी ने कहा…
नेता का बेटा नेता के अलावा और बन भी क्या सकता है? दरअसल ये प्रजाति नेतागीरी के अलावा और कुछ करने लायक भी नहीं बचती. छुटती नहीं है गालिब मुंह की लगी हुई. अब कुछ करने धरने को नहीं है तो बेटा नेता ही बन जाओ. बाप की जमी जमाई दुकान काम आयेगी. गुंडो के बेटे भी तो आजकल गुंडागीरी ही करते हैं.

वैसे बम्बई के नेताओं के बेटे नेता के बजाय अभिनेता भी बनने लगे हैं. देशमुख का बेटा बन चुका है और प्रमोद महाजन का बेटा बनने की राह पर है.

और कांग्रेस टिकट बेचती भी है तो इसमें बुरा क्या है? पुलिस भी चोरी डकैती के लिये एरिये नीलाम करती है, बड़ा माफिया छोटे गुंडे से पैसे लेकर एक एरिया में काम करने की छूट देता है. कांग्रेस या कोई और पार्टी क्यों न बेचे अपने टिकट? भाई ये तो धंधे की बात ही तो है
बेनामी ने कहा…
haa ji dhiru ji please tell me some examples.

- sapna
हिन्दीवाणी ने कहा…
धीरू जी, आप अपने विचार के लिए चर्चित तो हैं ही। अब जैसे आपने इसी लेख की प्रतिक्रिया में जुमला उछाल दिया कि अखबार मालिक के घर सीधे संपादक पैदा होता है। अब इस जुमले का इस लेख से क्या ताल्लुक है, मेरी समझ में तो बिल्कुल भी नहीं आया है। माफ कीजिएगा कि अभी मैं या इस लेख के लेखक स्वतंत्र जैन जिस अखबार में हैं, उस अखबार मालिक के परिवार का कोई भी व्यक्ति इसका संपादक नहीं है। यह परंपरा वहां न जाने कब से निभाई जा रही है। इसी तरह कुछ अन्य हिंदी-अंग्रेजी अखबारों में यही चलन है। अगर जिस किसी एकाध अखबार का मालिक उसका संपादक है तो सवाल यह है कि आप उस व्यक्ति के बारे में कितना जानते हैं कि वाकई उसे लिखना आता है या नहीं। कृपया इस लेख का संदर्भ समझें। इस तरह के जुमले उछालकर आप तो चर्चा में आ जाते हैं लेकिन बाकी लोग भटक जाते हैं। अब देखिए किन्हीं सपना जी ने आपसे यहीं पूछ लिया है कि कुछ नाम आप बता दें। मैं नहीं जानता कि उनकी मंशा क्या है, यह पूछने की। लेकिन आप तो जरूर समझ गए होंगे।
roushan ने कहा…
राजनीति की सबसे बड़ी बिडम्बना यही है कि इसे सेवा कार्य माना जाता है व्यवसाय नही.
सेवा कार्य का लेबल व्यावसायिकता आने से रोकता है. है जाहिर है कि राजनीति में वस्तुतः सेवा जैसी कोई चीज नही होती है. जनता का कोई काम करवाने पर भी नेता इस तरह पेश आते हैं जैसे वो अहसान कर रहे हों और जनता भी उसे अहसान मान कर ही देखती है.
नेता का बेटा नेता बने इसमे हमें कोई हर्ज़ नही नजर आता है.
आपने वकील का उदाहरण दिया है वकील के वकील बेटे को अपने पिता की जमी जमाई प्रैक्टिस और उसके संबंधों का लाभ मिलता ही है. इसी तरह डॉक्टर के बेटे के साथ होता है.
अगर यह नेता के बेटे के साथ भी होता है तो इसमे ग़लत कुछ नही है. वस्तुतः एक चुनाव में सफलता के बाद अगले चुनाव में उसकी स्वयं की राजनीतिक क्षमताएँ कसौटी पर होती हैं. हमारे देश में बड़े राजनेताओं के तमाम पुत्र पुत्रियों के उदाहरण उपलब्ध हैं जहाँ शुरूआती फायदे के बाद ये लोग असफल साबित हुए हैं.
जनहित का निर्धारण करने का अधिकार जनता को भी है हमें जाग कर अपने अधिकारों को प्रयोग में लाना चाहिए.
Aruna Kapoor ने कहा…
आपने सही मुद्दा उठाया है, सर।..... नेता का बेटा या बेटी सिर्फ अपनी काबिलियत के बलबूते पर ही नेता बन सकते है।...यह लोकतंत्र का जमाना है।....वह जमाना गुजर गया जब राजा का बेटा--कितना भी अयोग्य क्यों न हो--ही राजा बनता था।...एक उत्तम लेख।
Dr. Amar Jyoti ने कहा…
समसामयिक वर्णव्यवस्था है यह और आपने सही सवाल उठाये हैं। हां! जहां तक ओबामा का सवाल है वह सब क्या कुछ भी नहीं बदल सकता।
वह भी इसी व्यवस्था में साम्राज्यवाद के नये मोहरे से ज़्यादा कुछ नहीं है। पानी चाहे उबलता हुआ हो या बर्फ़ जैसा ठण्डा, आग को तो बुझायेगा ही।
Swatantra ने कहा…
Yusuf jee, allow me to give a few clarifications. First why i quoted Rahul. Rhaul Gandhi belong to a family which has given three PMs and a Super PM to India. But this is not all. This family also has credit of institutionalizing democracy in India and over all has high acceptance in the minds of the people. So if a youth of same family come forward and say, that, yes, this is true that, kins and connections do play a crucial role in deciding the allocation of tickets. And Rahul also accepted that he too is a symptom of this sickness. Since Rahul is in position to affect the future course of action of congress party, and as a youth he is hopeful of bringing out a change to the dynamics of Indian Politics, and i see no reason to be hopeless. Second reason , to quote Rahul is to give a touch of authenticity to my article.

And Roshan jee, i wish to ask a few things from you...the aim of business is to increase its profit and expand its business. tell me can u same thing about a politics? ...hope u understand the implications...

Swatantra
roushan ने कहा…
Sure Swatantra ji,
Most important thing for a business outfit is to ensure that the goals are achieved. When we talk about politics, the goal differs but still it is important that the goals must be achieved.
For me the goal for politics must be ensuring, law and order, working for social equity, justice and so on. These goals are outlined in preamble of our constitution.
So when we talk about politics infused with professionalism, we talk about professionals who work for achieving these goals. professionalism doesn't mean just for business outfit.
If you still feel my point is not clear, please let me know.
However I agree with you on the point of including Rahul's statement. This guy looks honest in his ideas and one must not dumped just because he comes from a political family.
Swatantra ने कहा…
Roshan jee
for a business outfit goals happens to be target, and these targets are measured only in terms of revenue only. on the other hand, in politics, goals are set in terms of empowerment of people and overall development of the nation ! :)

kumaraugust@gmail.com
हिन्दीवाणी ने कहा…
स्वतंत्र जी, आपके मुद्दे और तर्क अपनी जगह हैं। लेकिन एक बात पर मुझे आपत्ति है कि आपने अपनी बात अंग्रेजी में लिखी है। हालांकि अंग्रेजी को लेकर मेरे मन में कोई दुराग्रह नहीं है लेकिन कम से कम आप रोमन में तो लिख ही सकते थे। आप तो अपनी बात पहुंचाने के लिए फिर रौशन जी ने अंग्रेजी का सहारा लिया, क्योंकि आप पहल कर चुके थे। हालांकि रौशन जी बहुत अच्छी हिंदी लिखते हैं और उसमें उर्दू शब्दों का पुट भी रहता है। इसलिए कृपया अपनी बात हिंदी या फिर रोमन में लिखें तो सभी को अच्छा लगेगा। अभी अनुनाद सिंह ने नहीं देखा है इस लेख को लेकिन अगर देखते तो बहुत कड़ी प्रतिक्रिया देते। वह पहले आकर मुझे यह झिड़की दे चुके हैं कि हिंदी में ही बात होनी चाहिए।
बहरहाल, बात जहां तक राहुल गांधी की है, उनके बारे में मुझे सिर्फ यह कहना है कि वह अपनी किसी सोच के साथ सामने आते हैं तब तो ठीक है। लेकिन अगर वह भी कांग्रेस की उसी व्यक्ति पूजा करने वाली चांडाल चौकड़ी से घिरे रहे तो वह देश या कांग्रेस दोनों के किसी काम के नहीं हैं। यह ठीक है कि जिस तरह कांग्रेस का क्षरण हो रहा है उस लिहाज से कांग्रेस को एक युवा और करिश्माई नेतृत्व की जरूरत भी है। अगर ऐसा न हो सका तो बीजेपी जैसी भगवा पार्टियों का काम ज्यादा आसान हो जाएगा। हालांकि कांग्रेस भी इस देश के लिए कोई बेहतर विकल्प नहीं है लेकिन जब तक काम चलाना है तो ऐसे दलों का भी फलना-फूलना जरूरी है। उम्मीद है आप लोगों को मेरी बात बुरी नहीं लगी होगी।
roushan ने कहा…
युसूफ भाई आप फैजाबाद के हैं और हमारी पैदाइश भी फैजाबाद की ही है . अब लखनऊ में रह रहे हैं. हम अवधी लोगों की भाषा में उर्दू का आना सामान्य सी बात होती है. किसी ने इस हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा को हिन्दुस्तानी नाम दिया था. वैसे हमें अमीर खुसरो साहब का हिन्दवी शब्द भी बहुत पसंद है अपनी भाषा के लिए.
दरअसल उर्दू का मीठापन दिल खुश कर देता है.
यहाँ विषय से हटने के लिए मुआफी कहेंगे पर भाषा की बात आई तो दिल की बात कह देने का मन हो आया .
स्वतंत्र जी हम आपकी बात से सहमत हैं और हमें लगता है कि राजनीति के ये लक्ष्य पाये जा सकते हैं और जब हम व्यवसायिकता की बात करते हैं तो इसका मतलब यही होता है कि इन लक्ष्यों के लिए पूरी क्षमता से काम किए जाय
Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " ने कहा…
यंही टहलते हुये आपकी रचना तक पहुंच गया...कोई ट्टिपणी नही करनी...बस यही बता दें कि श्री मनोरिया जी आपका क्या सम्बन्ध...मैं तो उनका ब्लाग ढूंढ रहा था...नया हूं...उम्मेद साधक
हिन्दीवाणी ने कहा…
मित्रवर, आप यहां तक आए, आपकी मेहरबानी। यकीनन बोर नहीं हुए होंगे। प्रदीप मानोरिया जी के ब्लॉग तक पहुंचना बहुत आसान हैं। दाईं तरफ देखें एक लिंक लिखा है- फालो दिस ब्लॉग मतलब इसका अनुसरण करें। उसके ठीक नीचे चार तस्वीरें हैं, सबसे दाईं तरफ मानोरिया जी की ही तस्वीर है। बस उस पर क्लिक करें दे, उनका प्रोफाइल खुलेगा, वहां उनके ब्लॉग का नाम मिलेगा, बस उस पर क्लिक कर दें और उनकी चुटीली कविताएं पढ़ें। उनसे बात हो तो मेरी भी नमस्ते कहिएगा।
हिन्दीवाणी ने कहा…
इससे पहले वाली मेरी टिप्पणी के ठीक ऊपर जिस टिप्पणी को आप देख रहे हैं वह एक चालाकी भरा लिंक है, जिसका एहसास टिप्पणी के बाद हुआ। दरअसल, उम्मीद सिंह बैद साधक नामक यह सज्जन किसी ब्लॉग को तलाशते हुए यहां आए और पता पूछा। आप देख रहे होंगे कि मैंने ठीक ऊपर वाली टिप्पणी में उनकी मदद की है। लेकिन इसके बाद मैं उनके ब्लॉग पर उनके साधक उपनाम की वजह से जा पहुंचा। वहां एक बाबाजी की फोटो नजर आ रही थी। मैं फिर ब्लॉग पर गया। वह दरअसल ब्लॉग नहीं है, दरअसल नफरत फैलाने का मंच है। जितनी घटिया तरीके से शब्दों का इस्तेमाल करके वहां नफरत फैलाई जा रही है, हैरानी होती है कि लोगों को वह सब बहुत अच्छा लगता है और वे उस पर टिप्पणी भी देते हैं। ऐसे ब्लॉगर्स पर अफसोस जताने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता जो इस माध्यम का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। जागरूक लोगों को ऐसे चालाक लिंक और लोगों से सावधान रहने की जरूरत है।
Unknown ने कहा…
@नेता का बेटा नेतागीरी पर अपना हक समझे यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है.
यह बिल्कुल सही बात है. नेता का बेटा अपनी योग्यता से नेता बने, यह उस का हक़ है, किसी को इस पर कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए. पर जब तंत्र का दुरूपयोग कर के उसे नेता बना कर देश पर लादा जाय तो यह ऐतराज सही है. राहुल की बात कही गई है यहाँ पर. सारा तंत्र मिलकर उसे नेता नहीं बना पा रहा है. अब अगर जबरदस्ती उसे नेता बना कर इस देश पर लाद दिया जायेगा तो इस से नुक्सान होगा. राहुल का केस एक ऐसे व्यक्ति का केस है जो अपनी पार्टी में रह कर नेतृत्व के लिए आवश्यक अनुभव और योग्यता नहीं जुटा पायेगा. अगर वह पार्टी से बाहर आकर अपनी सोच के आधार पर कोशिश करे तो शायद सफल हो जाए.

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