शर्म मगर उनको नहीं आती
आज तक इस पर कोई शोध नहीं हुआ कि दरअसल नेता नामक प्राणी की खाल कितनी मोटी होती है। अगर यह शोध कहीं हुआ हो तो मुझे जरूर बताएं - एक करोड़ का नकद इनाम मिलेगा। अब देखिए देश भर में इस मोटी खाल वाले के खिलाफ माहौल बन चुका है लेकिन किसी नेता को शर्म नहीं आ रही। कमबख्त सारे के सारे पार्टी लाइन भूलकर एक हो गए हैं और गजब का भाईचारा दिख रहा है। क्या भगवा, क्या कामरेड, क्या लोहियावादी और क्या दलितवादी एक जैसी कमेस्ट्री एक जैसा सुर।
एक और खबर ने नेताओं की कलई खोल दी है और सारे के सारे पत्रकारों से नाराज हो गए हैं। वह खबर यह है कि एनएसजी के 1700 जवान वीआईपी ड्यूटी में 24 घंटे लगे हुए हैं। इन पर हमारे-आपकी जेब से जो पैसा टैक्स के रूप में जाता है, उसमें से 250 करोड़ रुपये इनकी सुरक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं। इसमें अकेले प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, एच.डी. देवगौड़ा, अमर सिंह जैसे नेता शामिल हैं। इसमें किसी कम्युनिस्ट नेता का नाम नहीं है। इसके अलावा बड़े नेताओं को पुलिस जो सिक्युरिटी कवर देती है , वह अलग है। एनएसजी के इन 1700 जवानों को इस बात की ट्रेनिंग दी गई थी कि वे देश की सुरक्षा में लगेंगे। लेकिन इन्हें मोटी खाल वालों की सुरक्षा में जुटना पड़ रहा है।
लेकिन अखबारों के मुकाबले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ज्यादा ही आक्रामक तरीके से जब इन नेताओं की जवाबदेही तय करनी चाही है और इन सभी को पब्लिक के सामने नंगा किया है तो खद्दरधारियों की जमात बिलबिला उठी है।
विरोधी की शुरुआत भगवा पार्टी बीजेपी की तरफ से हुई। इसके नेता मुख्तार अब्बास नकवी से कहलवाया गया कि मुंबई या दिल्ली में लिपिस्टिक लगाकर जो महिलाएं मोमबत्तियां जलाकर आतंकवाद का विरोध करने की बजाय नेताओं का विरोध कर रही हैं, दरअसल उसका कोई मतलब नहीं है। क्योंकि लोकतंत्र में सिर्फ नेता ही ऐसी बातों का विरोध कर सकते हैं। इन महिलाओं को तो घर बैठना चाहिए। जाहिर है इसका विरोध होना ही था। लेकिन इसी पार्टी के एक और जिम्मेदार नेता अरुण जेटली का बयान या तो मीडिया ने नोटिस में नहीं लिया या फिर जानबूझकर नजरन्दाज किया, वह यह था कि पेज थ्री की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार और सनसनी तलाशने वाले टीवी जर्नलिस्टों से क्या अब नेताओं को पूछना पड़ेगा कि वे क्या बयान दें। जेटली ने यह भी कहा कि इस मामले में फोकस आतंकवाद पर रखा जाना चाहिए था लेकिन मीडिया ने जानबूझकर उसका रुख नेताओं की तरफ कर दिया है। यह देश के लिए घातक है।
इसके बाद मुंबई में एक और आतंकवाद विरोधी रैली निकली और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जबान भी फिसल पड़ी। उन्होंने वही सब कहने की कोशिश की जो अरुण जेटली ने कहा था। केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री की जो जबान फिसली, वह भी कैमरे में कैद है।
कांग्रेस के किसी नेता का बयान इस तरह का तो नहीं आया लेकिन वहां कुछ और ही खेल चल रहा है। वहां पहले माहौल बनाया गया। प्रधानमंत्री ने सख्त भाषण दे डाला लेकिन महाराष्ट्र के सीएम और केंद्रीय गृह मंत्री पर कोई असर नहीं। फिर माहौल बनाया गया कि इस सारे मामले को जिस तरह हैंडल किया गया, उससे सोनिया गांधी जी काफी आहत हैं। लो जी, अगले ही दिन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल का इस्तीफा। फिर महाराष्ट्र के गृह मंत्री का इस्तीफा और उसके बाद वहां के सीएम की कुर्सी भला क्यों न हिलती।
अब देखिए मुंबई में जिनकी शहादत हुई, वह मुद्दा तेजी से छूटता जा रहा है। जांच और पाकिस्तान से युद्ध और डराने-धमकाने का मामला मीडिया में उछल रहा है लेकिन जानते हैं, तमाम राजनीतिक दलों की सांस दरअसल उखड़ी हुई है। अगले पांच महीने में जो चुनाव है, उसके मद्देनजर ये लोग चाहते हैं कि मीडिया का ध्यान नेताओं के इमेज की पोल खोलने की बजाय आंतकवाद पर केंद्रित हो।
जानते हैं कि देश की दो प्रमुख पार्टियां किस तरह इस मुद्दे को कैश करना चाहती है?
कांग्रेस
इस पार्टी को उम्मीद है कि मुस्लिम मतदाता अब मायावती और मुलायम सिंह यादव से चोट खाने के बाद उसकी तरफ लौट सकते हैं। क्योंकि तमाम ब्लास्ट और हमलों के बीच कांग्रेस ने अपने ऊपर यह आरोप आसानी से लगने दिया कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में काम कर रही है। कांग्रेस पार्टी में एक और खेमा है जो पाकिस्तान से युद्ध चाहता है जिससे अगले चुनाव में बहुसंख्यकों के भावनात्मक वोट उसे मिल जाएं। बहरहाल, इस पर अभी मनन चल रहा है।
बीजेपी
यह पार्टी सिर्फ और सिर्फ सारा फोकस आतंकवाद पर चाहती है और वह भी उस तरह से, जैसे वह चाहे। वैसा नहीं जैसा मीडिया चाहता है। यानी बीजेपी शासनकाल के दौरान विमान अपहरण कर उसे कंधार ले जाने और बदले में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादियों को रिहा करने की चर्चा बीजेपी नहीं चाहती। इधर, जब से नेताओं की इमेज की असली तस्वीर मीडिया ने बतानी शुरू की है, तब से उसकी परेशानी और बढ़ गई है।
कुल मिलाकर देश के सामने बड़ी विकट स्थिति है। देश पर आतंकवादी शिकंजा कसते जा रहे हैं और मोटी खाल वाले नेता इस स्थिति को कैश करने की जुगत में लगे हैं। आखिर ये किस गली हम जा रहे हैं...मैं पूछता हूं आप सब से...
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एक और खबर ने नेताओं की कलई खोल दी है और सारे के सारे पत्रकारों से नाराज हो गए हैं। वह खबर यह है कि एनएसजी के 1700 जवान वीआईपी ड्यूटी में 24 घंटे लगे हुए हैं। इन पर हमारे-आपकी जेब से जो पैसा टैक्स के रूप में जाता है, उसमें से 250 करोड़ रुपये इनकी सुरक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं। इसमें अकेले प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, एच.डी. देवगौड़ा, अमर सिंह जैसे नेता शामिल हैं। इसमें किसी कम्युनिस्ट नेता का नाम नहीं है। इसके अलावा बड़े नेताओं को पुलिस जो सिक्युरिटी कवर देती है , वह अलग है। एनएसजी के इन 1700 जवानों को इस बात की ट्रेनिंग दी गई थी कि वे देश की सुरक्षा में लगेंगे। लेकिन इन्हें मोटी खाल वालों की सुरक्षा में जुटना पड़ रहा है।
लेकिन अखबारों के मुकाबले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ज्यादा ही आक्रामक तरीके से जब इन नेताओं की जवाबदेही तय करनी चाही है और इन सभी को पब्लिक के सामने नंगा किया है तो खद्दरधारियों की जमात बिलबिला उठी है।
विरोधी की शुरुआत भगवा पार्टी बीजेपी की तरफ से हुई। इसके नेता मुख्तार अब्बास नकवी से कहलवाया गया कि मुंबई या दिल्ली में लिपिस्टिक लगाकर जो महिलाएं मोमबत्तियां जलाकर आतंकवाद का विरोध करने की बजाय नेताओं का विरोध कर रही हैं, दरअसल उसका कोई मतलब नहीं है। क्योंकि लोकतंत्र में सिर्फ नेता ही ऐसी बातों का विरोध कर सकते हैं। इन महिलाओं को तो घर बैठना चाहिए। जाहिर है इसका विरोध होना ही था। लेकिन इसी पार्टी के एक और जिम्मेदार नेता अरुण जेटली का बयान या तो मीडिया ने नोटिस में नहीं लिया या फिर जानबूझकर नजरन्दाज किया, वह यह था कि पेज थ्री की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार और सनसनी तलाशने वाले टीवी जर्नलिस्टों से क्या अब नेताओं को पूछना पड़ेगा कि वे क्या बयान दें। जेटली ने यह भी कहा कि इस मामले में फोकस आतंकवाद पर रखा जाना चाहिए था लेकिन मीडिया ने जानबूझकर उसका रुख नेताओं की तरफ कर दिया है। यह देश के लिए घातक है।
इसके बाद मुंबई में एक और आतंकवाद विरोधी रैली निकली और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जबान भी फिसल पड़ी। उन्होंने वही सब कहने की कोशिश की जो अरुण जेटली ने कहा था। केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री की जो जबान फिसली, वह भी कैमरे में कैद है।
कांग्रेस के किसी नेता का बयान इस तरह का तो नहीं आया लेकिन वहां कुछ और ही खेल चल रहा है। वहां पहले माहौल बनाया गया। प्रधानमंत्री ने सख्त भाषण दे डाला लेकिन महाराष्ट्र के सीएम और केंद्रीय गृह मंत्री पर कोई असर नहीं। फिर माहौल बनाया गया कि इस सारे मामले को जिस तरह हैंडल किया गया, उससे सोनिया गांधी जी काफी आहत हैं। लो जी, अगले ही दिन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल का इस्तीफा। फिर महाराष्ट्र के गृह मंत्री का इस्तीफा और उसके बाद वहां के सीएम की कुर्सी भला क्यों न हिलती।
अब देखिए मुंबई में जिनकी शहादत हुई, वह मुद्दा तेजी से छूटता जा रहा है। जांच और पाकिस्तान से युद्ध और डराने-धमकाने का मामला मीडिया में उछल रहा है लेकिन जानते हैं, तमाम राजनीतिक दलों की सांस दरअसल उखड़ी हुई है। अगले पांच महीने में जो चुनाव है, उसके मद्देनजर ये लोग चाहते हैं कि मीडिया का ध्यान नेताओं के इमेज की पोल खोलने की बजाय आंतकवाद पर केंद्रित हो।
जानते हैं कि देश की दो प्रमुख पार्टियां किस तरह इस मुद्दे को कैश करना चाहती है?
कांग्रेस
इस पार्टी को उम्मीद है कि मुस्लिम मतदाता अब मायावती और मुलायम सिंह यादव से चोट खाने के बाद उसकी तरफ लौट सकते हैं। क्योंकि तमाम ब्लास्ट और हमलों के बीच कांग्रेस ने अपने ऊपर यह आरोप आसानी से लगने दिया कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में काम कर रही है। कांग्रेस पार्टी में एक और खेमा है जो पाकिस्तान से युद्ध चाहता है जिससे अगले चुनाव में बहुसंख्यकों के भावनात्मक वोट उसे मिल जाएं। बहरहाल, इस पर अभी मनन चल रहा है।
बीजेपी
यह पार्टी सिर्फ और सिर्फ सारा फोकस आतंकवाद पर चाहती है और वह भी उस तरह से, जैसे वह चाहे। वैसा नहीं जैसा मीडिया चाहता है। यानी बीजेपी शासनकाल के दौरान विमान अपहरण कर उसे कंधार ले जाने और बदले में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादियों को रिहा करने की चर्चा बीजेपी नहीं चाहती। इधर, जब से नेताओं की इमेज की असली तस्वीर मीडिया ने बतानी शुरू की है, तब से उसकी परेशानी और बढ़ गई है।
कुल मिलाकर देश के सामने बड़ी विकट स्थिति है। देश पर आतंकवादी शिकंजा कसते जा रहे हैं और मोटी खाल वाले नेता इस स्थिति को कैश करने की जुगत में लगे हैं। आखिर ये किस गली हम जा रहे हैं...मैं पूछता हूं आप सब से...
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टिप्पणियाँ
हम बहुत जल्दी ये सब भूल भी सकते हैं...वोटिंग के वक्त नेताओं की बुराई क्यों नहीं नजर आती....कानून बनाने या बदलवाने के लिए कितने जनांदोलन हमने किये किए हैं?
तूफ़ान भी बहुत जल्दी थम जायेगा
और नेताओं का सीना दुगना
आप क लेख आंखे खोलने वाला है, ओर इस का इलाज सिर्फ़ हमारा वोट है दुसरा सीधा रास्ता ओर कोई नही.