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2009 मैं तुम्हारा स्वागत क्यों करूं?

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एक रस्म हो गई है जब बीते हुए साल को लोग विदा करते हैं और नए साल का स्वागत करते हैं। इसके नाम पर पूरी दुनिया में कई अरब रूपये बहा दिए जाते हैं। आज जो हालात हैं, पूरी दुनिया में बेचैनी है। कुछ देश अपनी दादागीरी दिखा रहे हैं। यह सारा आडंबर और बाजारवाद भी उन्हीं की देन है। इसलिए मैं तो नए साल का स्वागत क्यों करूं? अगर पहले से कुछ मालूम हो कि इस साल कोई बेगुनाह नहीं मारा जाएगा, कोई देश रौंदा नहीं जाएगा, किसी देश पर आतंकवादी हमले नहीं होंगे, कहीं नौकरियों का संकट नहीं होगा, कहीं लोग भूख से नहीं मरेंगे, तब तो नववर्ष का स्वागत करने का कुछ मतलब भी है। हालांकि मैं जानता हूं कि यह परंपरा से हटकर है और लोग बुरा भी मानेंगे लेकिन मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता? इसलिए माफी समेत... अलविदा 2008, इस साल तुमने बहुत कष्ट दिए। तुम अब जबकि इतिहास का हिस्सा बनने जा रहे हो, बताओ तो सही, तुम इतने निष्ठुर हर इंसान के लिए क्यों साबित हुए। तुम्हें कम से कम मैं तो खुश होकर विदा नहीं करना चाहता। जाओ और दूर हो जाओ मेरी नजरों से। तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि तुम्हें उल्लासपूर्वक विदा करूं और तुम्हारे ही साथी २००९ का स्व

आइए, एक जेहाद जेहादियों के खिलाफ भी करें

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स, दिल्ली में 27-12-2008 को संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है। इस ब्लॉग के पाठकों और मित्रों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं। उम्मीद है कि मेरा संदेश जहां पहुंचना चाहिए, पहुंचेगा।...यूसुफ किरमानी इन दिनों तमाम इस्लामिक मुद्दों पर बहस खड़ी हो रही है, लेकिन उतने ही मुखर ढंग से कोई उन बातों और आयतों को समझने-समझाने की कोशिश करता नज़र नहीं आता, जो हमारे मजहब में जिहाद के बारे में लिखी और कही गई हैं। जिहाद का अर्थ है इस्लाम के लिए आर्थिक और शारीरिक रूप से कुर्बानी देना। जब कोई यह कहता है कि जिहाद का मतलब अन्य मतावलंबियों, इस्लाम के विरोधियों या दुश्मनों की हत्या करना है, तो वह सही नहीं है। दरअसल, इस्लामिक मूल्यों और शिक्षा का प्रचार जिहाद है, न कि हिंसा। जिहाद हमें यह बताता है कि कोई इंसान कैसे अपनी इच्छाओं को अल्लाह के आदेश के तहत रखे और किसी तानाशाह के भी सामने निडरता से सच बात कहे। जिहाद शब्द दरअसल 'जाहद' से बना है, जिसका अर्थ है कोशिश करना, कड़ी मेहनत करना। इसकी एक मीमांसा यह भी है कि इस्लाम की रक्षा के लिए न सिर्फ अपने परिवार या रिश्तेदारों, बल्कि अपने देश को

इन साजिशों को समझने का वक्त

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नीचे वाले मेरे लेख पर आप सभी लोगों की टिप्पणियों के लिए पहले तो धन्यवाद स्वीकार करें। देश में जो माहौल बन रहा है, उनके मद्देनजर आप सभी की टिप्पणियां सटीक हैं। मेरे इस लेख का मकसद कतई या नहीं है कि अगर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारत युद्ध छेड़ता है तो उसका विरोध किया जाए। महज विरोध के लिए विरोध करना सही नहीं है। सत्ता प्रमुख जो भी फैसला लेंगे, देश की जनता भला उससे अलग हटकर क्यों चलेगी। कुल मुद्दा यह है कि युद्ध से पहले जिस तरह की रणनीति किसी देश को अपनानी चाहिए, क्या मनमोहन सिंह की सरकार अपना रही है। मेरा अपना नजरिया यह है कि मौजूदा सरकार की रणनीति बिल्कुल सही है। पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर भारत पूरी तरह बेनकाब कर चुका है। करगिल युद्ध के समय भारत से यही गलती हुई थी कि वह पाकिस्तान के खिलाफ माहौल नहीं बना सका था। उस समय पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ सत्ता हथियाने की साजिश रच रहे थे और उन्होंने सत्ता हथियाने के लिए पहले करगिल की चोटियों पर घुसपैठिए भेजकर कब्जा कराया और फिर युद्ध छेड़ दिया। फिर अचानक पाकिस्तान की हुकूमत पर कब्जा कर लिया। उन दिनों को याद करें तो इस साजिश में

दो चेहरे - मनमोहन सिंह और बाल ठाकरे

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भारत के दो चेहरे इस समय दुनिया में देखे जा रहे हैं। एक तो चेहरा मनमोहन सिंह का है और दूसरा बाल ठाकरे का। मनमोहन सिंह भारत में आतंकवाद फैलाने वाले पाकिस्तान से युद्ध नहीं चाहते तो बाल ठाकरे का कहना है कि अब हिंदू समुदाय भी आतंकवादी पैदा करें। देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो चाहते हैं कि पाकिस्तान से भारत निर्णायक युद्ध करे। इन्हीं में से •कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कायर बताने तक • से नहीं चूक रहे। यानी अगर मनमोहन सिंह पाकिस्तान को ललकार कर युद्ध छेड़ दें तो वे सबसे बहादुर प्रधानमंत्री शब्द से नवाजे जाएंगे। यानी किसी प्रधानमंत्री की बहादुरी अब उसके युद्ध छेड़ने से आंकी जा रही है। उसने बेशक अर्थशास्त्र की मदद से भारत का चेहरा बदल दिया हो लेकिन अगर वह पाकिस्तान से युद्ध नहीं लड़ सकता तो सारी पढ़ाई-लिखाई बेकार। उस इंसान की शालीन भाषा उसे कहीं का नहीं छोड़ रही है। हालांकि हाल के दिनों में इस मुद्दे पर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। लेकिन यह बहस खत्म नहीं हुई है। इसी बहाने राजनीतिक वाकयुद्ध भी शुरू हो गया है और तमाम पार्टियां

मेरा जूता है जापानी

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यह सच है कि मुझे कविता या गजल लिखनी नहीं आती। हालांकि कॉलेज के दिनों में तथाकथित रूप से इस तरह का कुछ न कुछ लिखता रहा हूं। अभी जब एक इराकी पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंका तो बरबस ही यह तथाकथित कविता लिख मारी। इस कविता की पहली लाइन स्व. दुष्यंत कुमार की एक सुप्रसिद्ध गजल की एक लाइन – एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो – की नकल है। क्योंकि मेरा मानना है कि बुश जैसा इंसान (?) जिस तरह के सुरक्षा कवच में रहता है वहां तो कोई भी किसी तरह की तबियत लेकर पत्थर नहीं उछाल सकता। पत्थर समेत पकड़ा जाएगा। ऐसी जगहों पर तो बस जूते ही उछाले जा सकते हैं, क्योंकि उन्हें पैरों से निकालने में जरा भी देर नहीं लगती। मुझे पता नहीं कि वह किसी अमेरिकी कंपनी का जूता था या फिर बगदाद के किसी मोची ने उसका निर्माण किया था लेकिन आज की तारीख में वह जूता इराकी लोगों के संघर्ष और स्वाभिमान को बताने के लिए काफी है। इतिहास में पत्रकार मुंतजर जैदी के जूते की कहानी दर्ज हो चुकी है। अब जरा कुछ क्षण मेरी कविता को भी झेल लें – (शायर लोग रहम करें, कृपया इसमें रदीफ काफिया न तलाशें) - कब तक चलेगी झूठ की दुकान - यूसुफ कि

बुश पर जूते पड़े या फेंके गए ? जो भी हो – यहां देखें विडियो

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दुनिया के तमाम देशों में लोग अमेरिका खासकर वहां के मौजूदा राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से इतनी ज्यादा नफरत करते हैं कि उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते। मैंने भी आपकी तरह वह खबर अखबारों में पढ़ी लेकिन बुश पर इराक में जूते फेंकने का विडियो जब YouTube पर जारी हुआ तो मैंने सोचा कि मेरे पाठक भी उस विडियो को देखें और उन तमाम पहलुओं पर सोचें, जिसकी वजह से अमेरिका आज इतना बदनाम हो गया है। इराक में बुश के साथ जो कुछ भी हुआ, वह बताता है कि लोग इस आदमी के लिए क्या सोचते हैं। जिसकी नीतियों के कारण अमेरिका आर्थिक मंदी के भंवर में फंस गया है और विश्व के कई देश भी उस मंदी का शिकार बन रहे हैं। जिस व्यक्ति ने बुश पर जूते फेंके वह पत्रकार है और उनका नाम मुंतजर अल जैदी है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि उन्होंने अच्छा किया या बुरा किया लेकिन जैदी का बयान यह बताने के लिए काफी है कि अगर किसी देश की संप्रभुता (sovereignty) पर कोई अन्य देश चोट पहुंचाने की कोशिश करता है तो ऐसी ही घटनाएं होती हैं। जैदी ने अपना गुस्सा जताने और अपनी बात कहने के लिए किसी हथियार का सहारा नहीं लिया है। खाड़ी देशों के तेल पर कब्जा करने के

चंदन का गुलिस्तां

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  अंग्रेजी का पत्रकार अगर हिंदी में कुछ लिखे तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मेरे मित्र चंदन शर्मा दिल्ली से छपने वाले अंग्रेजी अखबार Metro Now में विशेष संवाददाता हैं। तमाम विषयों पर उनकी कलम चलती रही है। कविता और गजल वह चुपचाप लिखकर खुद पढ़ लिया करते हैं और घर में रख लिया करते हैं। मेरे आग्रह पर बहुत शरमाते हुए उन्होंने यह रचना भेजी है। आप लोगों के लिए पेश कर रहा हूं। गुलिस्तां कहते हैं कभी एक गुलिस्तां था मेरे आशियां के पीछे हमें पता भी नहीं चला पतझड़ कब चुपचाप आ गया गुलिस्तां की बात छोड़िए वो ठूंठो पर भी यूं छा गया गुलिस्तां तो अब कहां हम तो कोंपलो तक के लिए तरस गए -चंदन शर्मा

बाजीगरों के खेल से होशियार रहिए

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संसद में तमाम बाजीगर फिर एकत्र हो गए हैं और हमारे-आपके जेब से टैक्स का जो पैसा जाता है, वह इन्हें भत्ते के रूप में मिलेगा। जाहिर है एक बार फिर इन सबका मुद्दा आतंकवाद ही होगा। मीडिया के हमले से बौखलाए इन बाजीगरों में इस बार गजब की एकजुटता दिखाई दे रही है। चाहे वह आतंकवाद को काबू करने के लिए किसी केंद्रीय जांच एजेंसी बनाने का मामला हो या फिर एक सुर में किसी को शाबासी देने की बात हो। प्रधानमंत्री ने मुंबई पर हमले के लिए देश से माफी मांग ली है और विपक्ष के नेता व प्रधानमंत्री बनने के हसीन सपने में खोए लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार द्वारा इस मुद्दे पर अब तक की गई कोशिशों पर संतोष का भाव भी लगे हाथ जता दिया है। आडवाणी ने केंद्रीय जांच एजेंसी बनाने पर भी सहमति जता दी है। आडवाणी यह कहना भी नहीं भूले कि राजस्थान और दिल्ली में बीजेपी की हार का मतलब यह नहीं है कि हमारे आतंकवाद के मुद्दे को जनता का समर्थन हासिल नहीं है। तमाम बाजीगर नेता जनता का संदेश बहुत साफ समझ चुके हैं और उनकी इस एकजुटता का सबब जनता का संदेश ही है। यह हकीकत है कि मुंबई का हमला देश को एक कर गया है। इतनी उम्मीद बीजेपी और मुस्लिम कट्टर

बीजेपी के पास अब भी वक्त है, मत खेलों जज्बातों से

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पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सभी को पता चल चुके हैं और अगले दो – चार दिनों में सभी जगह विश्लेषण के नाम पर तमाम तरह की चीड़फाड़ की जाएगी। इसलिए बहती गंगा में चलिए हम भी धो लेते हैं। हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में हुए हैं लेकिन मैं अपनी बात दिल्ली पर केंद्रित करना चाहूंगा। क्योंकि दिल्ली में बीजेपी ने प्रचार किया था कि किसी और राज्य में हमारी सरकार लौटे न लौटे लेकिन दिल्ली में हमारी सरकार बनने जा रही है और पूरे देश को दिल्ली की जनता ही एक संदेश दे देगी। इसके बाद मुंबई पर आतंकवादी हमला हुआ और जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली कहावत सच होती नजर आई। अगले दिन बीजेपी ने अखबारों में बहुत उत्तेजक किस्म के विज्ञापन आतंकवाद के मुद्दे पर जारी किए। जिनकी भाषा आपत्तिजनक थी। चुनाव आयोग तक ने इसका नोटिस लिया था। मीडिया के ही एक बड़े वर्ग ने दिल्ली में कांग्रेस के अंत की कहानी बतौर श्रद्धांजलि लिख डाली। यहां तक कि जिस दिन मतदान हुआ, उसके लिए बताया गया कि वोटों का प्रतिशत बढ़ने का मतलब है कि बीजेपी अब और ज्यादा अंतर से जीत रही है। इस माउथ पब्लिसिटी का नतीजा यह निकला कि 7 दिसंबर तक कांग्रेस ख

ये क्या जगह है दोस्तो

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चारों तरफ माहौल जब खराब हो और हवा में तमाम बेचारगी की सदाएं गूंज रही हों तो लंबे-लंबे लेख लिखने का मन नहीं होता। चाहे मुंबई की घटना हो या फिर रोजमर्रा जिंदगी पर असर डालने वाली छोटी-छोटी बातें हों, कहीं से कुछ भी पुरसूकून खबरें नहीं आतीं। मुंबई की घटना ने तमाम लोगों के जेहन पर इस तरह असर डाला है कि सारे आलम में बेचैनी फैली हुई है। कुछ ऐसे ही लम्हों में गजल या कविता याद आती है। जिसकी संवेदनाएं कहीं गहरा असर डालती हैं। इसलिए इस बार अपनी बात ज्यादा कुछ न कहकर मैं आप लोगों के लिए के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी की एक संजीदा गजल पेश कर रहा हूं। शायद पसंद आए – ठहरने का यह मकाम नहीं भरे जहान में कोई शादकाम नहीं चले चलो कि ठहरने का यह मकाम नहीं यह दुनिया रैन बसेरा है हम मुसाफिर हैं किसी बसेरे में होता सदा कयाम नहीं किसी भी रंग में हम को भली नहीं लगती तुम्हारी याद में गुजरी हुई जो शाम नहीं तेरे फसाने का और मेरी इस कहानी का नहीं है कोई भी उनवां कोई भी नाम नहीं यह वक्त दारा ओ सरमद के कत्ल का है गवाह नकीबे जुल्म थे ये दीन के पैयाम नहीं भरी बहार है साकी है मय है मुतरिब है मगर यह क्या कि किसी हाथ में

शर्म मगर उनको नहीं आती

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आज तक इस पर कोई शोध नहीं हुआ कि दरअसल नेता नामक प्राणी की खाल कितनी मोटी होती है। अगर यह शोध कहीं हुआ हो तो मुझे जरूर बताएं - एक करोड़ का नकद इनाम मिलेगा। अब देखिए देश भर में इस मोटी खाल वाले के खिलाफ माहौल बन चुका है लेकिन किसी नेता को शर्म नहीं आ रही। कमबख्त सारे के सारे पार्टी लाइन भूलकर एक हो गए हैं और गजब का भाईचारा दिख रहा है। क्या भगवा, क्या कामरेड, क्या लोहियावादी और क्या दलितवादी एक जैसी कमेस्ट्री एक जैसा सुर। एक और खबर ने नेताओं की कलई खोल दी है और सारे के सारे पत्रकारों से नाराज हो गए हैं। वह खबर यह है कि एनएसजी के 1700 जवान वीआईपी ड्यूटी में 24 घंटे लगे हुए हैं। इन पर हमारे-आपकी जेब से जो पैसा टैक्स के रूप में जाता है, उसमें से 250 करोड़ रुपये इनकी सुरक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं। इसमें अकेले प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, एच.डी. देवगौड़ा, अमर सिंह जैसे नेता शामिल हैं। इसमें किसी कम्युनिस्ट नेता का नाम नहीं है। इसके अलावा बड़े नेताओं को पुलिस जो सिक्युरिटी कवर देती है , वह अलग है। एनएसजी के इन 17

लता मंगेशकर तो 300 बार रोईं, आप कितनी बार ?

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मुंबई पर हमले और निर्दोष लोगों के मारे जाने पर उन तीन दिनों में आवाज की मलिका लता मंगेशकर तीन सौ बार रोईं और उनको यह आघात उनकी आत्मा पर लगा। लता जी ने यह बात कहने के साथ ही यह भी कहा कि मुंबई को बचाने में शहीद हुए पुलिस वालों और एनएसजी कमांडो को वह शत-शत नमन करती हैं। पर, जिन लोगों ने उस घटना में मारे गए कुछ पुलिस वालों को शहीद मानने से इनकार कर दिया है और उनके खिलाफ यहां-वहां निंदा अभियान चला रखा है, उनसे मेरा सवाल है कि वह कितनी बार रोए? छी, लानत है उन सब पर जो मुंबई में एंटी टेररिस्ट स्क्वाड के चीफ हेमंत करकरे और अन्य पुलिस अफसरों की शहादत पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ लोग तो इतने उत्तेजित हैं कि खुले आम यहां-वहां लिख रहे हैं कि इन लोगों की हत्या हुई है, इन्हें शहीद नहीं कहा जा सकता। जैसे शहादत का सर्टिफिकेट बांटने का काम भारत सरकार ने इन लोगों को ही दे दिया है। बतौर एटीएस चीफ हेमंत करकरे की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने वाली बीजेपी के विवादित नेता और गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी एक करोड़ रुपये लेकर हेमंत की विधवा को देने गए थे, शुक्र है उन्होंने इसे ठुकरा दिया। वरना उसके बाद तो बीजेपी वा

मुंबई हमले के लिए अमेरिका जिम्मेदार ?

सुनने में यह जुमला थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन यह जुमला मेरा नहीं है बल्कि अमेरिका में सबसे लोकप्रिय और भारतीय मूल के अध्यात्मिक गुरू दीपक चोपड़ा का है। दीपक चोपड़ा ने कल सीएनएन न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में यह बात कही है। उस इंटरव्यू का विडियो मैं इस ब्लॉग के पाठकों के लिए पेश कर रहा हूं। निवेदन यही है कि पूरा इंटरव्यू कृपया ध्यान से सुनें। अंग्रेजी में इस इंटरव्यू का मुख्य सार यह है कि जब से अमेरिका ने इराक सहित तमाम मुस्लिम देशों के खिलाफ आतंकवाद के नाम पर हमला बोला है तबसे इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं। अमेरिका आतंकवाद को दो तरह से फलने फूलने दे रहा है – एक तो वह अप्रत्यक्ष रूप से तमाम आतंकवादी संगठनों की फंडिंग करता है। यह पैसा अमेरिकी डॉलर से पेट्रो डॉलर बनता है और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, इराक, फिलिस्तीन समेत कई देशों में पहुंचता है। दूसरे वह आतंकवाद फैलने से रोकने की आड़ में तमाम मुस्लिम देशों को जिस तरह युद्ध में धकेल दे रहा है, उससे भी आतंकवादियों की फसल तैयार हो रही है। दीपक चोपड़ा का कहना है कि पूरी दुनिया में मुसलमान कुल आबादी का 25 फीसदी हैं, जिस तरह अमेरिका के ने

India's Leaders Need to Look Closer to Home

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The Assault on Mumbai By TARIQ ALI The terrorist assault on Mumbai’s five-star hotels was well planned, but did not require a great deal of logistic intelligence: all the targets were soft. The aim was to create mayhem by shining the spotlight on India and its problems and in that the terrorists were successful. The identity of the black-hooded group remains a mystery. Blogging To The Bank 3.0. Click Here! The Deccan Mujahedeen, which claimed the outrage in an e-mail press release, is certainly a new name probably chosen for this single act. But speculation is rife. A senior Indian naval officer has claimed that the attackers (who arrived in a ship, the M V Alpha) were linked to Somali pirates, implying that this was a revenge attack for the Indian Navy’s successful if bloody action against pirates in the Arabian Gulf that led to heavy casualties some weeks ago. The Indian Prime Minister, Manmohan Singh, has insisted that the terrorists were based outside

पाकिस्तान पर हमले से कौन रोकता है ?

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मुंबई पर हुए सबसे बड़े हमले के बारे में ब्लॉग की दुनिया और मीडिया में बहुत कुछ इन 55 घंटों में लिखा गया। कुछ लोगों ने अखबारों में वह विज्ञापन भी देखा होगा जो मुंबई की इस घटना को भुनाने के लिए बीजेपी ने छपवाया है जिससे कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में उसका लाभ लिया जा सके। सांप्रदायिकता फैलाने वाले उस विज्ञापन की एनडीटीवी शुक्रवार को ही काफी लानत-मलामत कर चुका है। यहां हम उसकी चर्चा अब और नहीं करेंगे। मुंबई की घटना को लेकर लोगों का आक्रोश स्वाभाविक है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। देश के एक-एक आदमी की दुआएं सुरक्षा एजेंसियों के साथ थीं लेकिन सबसे दुखद यह रहा कि इसके बावजूद तमाम लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठे। कोई राजनीतिक दल या उसका नेता अगर मानसिक संतुलन ऐसे मुद्दों पर खोता है तो उसका इतना नोटिस नहीं लिया जाता लेकिन अगर पढ़ा-लिखा आम आदमी ब्लॉग्स पर उल्टी – सीधी टिप्पणी करेगा तो उसकी मानसिक स्थिति के बारे में सोचना तो पड़ेगा ही। मुंबई की घटना को लेकर इस ब्लॉग पर और अन्य ब्लॉगों पर की गई टिप्पणियां बताती हैं कि फिजा में कितना जहर घोला जा चुका है। इसी ब्लॉग पर नीचे वाली पोस्ट मे

शुक्रिया मुंबई...और आप सभी के जज्बातों का

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मुंबई ने फिर साबित किया है कि वह जीवट का शहर है। उसे गिरकर संभलना आता है। उस पर जब-जब हमले हुए हैं, वह घायल हुई लेकिन फिर अपने पैरों पर खड़ी हो गई। 1993 में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के बाद मुंबई ने यह कर दिखाया और अब जब बुधवार देर रात को उस पर सबसे बड़ा हमला हुआ तब वह एक बार फिर पूरे हौसले के साथ खड़ी है। मुट्ठी भर आतंकवादी जिस नीयत से आए थे, उन्हें उसमें रत्तीभर कामयाबी नहीं मिली। उनका इरादा था कि बुधवार के इस हमले के बाद प्रतिक्रिया होगी और मुंबई में बड़े पैमाने पर खून खराबा शुरू हो जाएगा लेकिन उनके ख्वाब अधूरे रहे। मुंबई के लोग एकजुट नजर आए और उन्होंने पुलिस को अपना आपरेशन चलाने में पूरी मदद की। हालांकि मुंबई पुलिस ने इस कार्रवाई में अपने 14 अफसर खो दिए हैं लेकिन मुंबई को जिस तरह उन लोगों ने जान पर खेलकर बचाया है, वह काबिलेतारीफ है। इस घटना को महज एक आतंकवादी घटना बताकर भुला देना ठीक नहीं होगा। अब जरूरत आ पड़ी है कि सभी समुदायों के लोग इस पर गंभीरता से विचार करें और ऐसी साजिश रचने वालों को बेनकाब करें। ऐसे लोग किसी एक खास धर्म या जाति में नहीं हैं। इनकी जड़ें चारों तरफ फैली हुई हैं। मु

स्सा..ले..नमक हराम...देशद्रोही...आतंकवादी

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दिन बुधवार, रात 10.35...क्रिकेट मैच खत्म हो चुका है...भारत फिर किसी देश को हरा चुका है...टीवी पर फ्लैश – मुंबई पर आतंकवादी हमला... ...लीजिए भारत फिर हार गया...अपने ही लोग हैं...अपनों को ही निशाना बना रहे हैं। एक जगह नहीं...कई – कई जगह गोलियां बरस रही हैं...ग्रेनेड फेंके जा रहे हैं...टीवी पर सब कुछ लाइव है...न्यूज चैनल वालों के लिए एक रिएलिटी शो से भी बड़ा आयोजन...ऐसा मौका फिर कब मिलेगा...पब्लिक से मदद मांगी जा रही है...आप हमें फोन पर हालात की जानकारी दीजिए...आप ही विडियो बना लें या फोटो खींच लें...हम आपके नाम से दिखाएंगे...पब्लिक में लाइव होने का क्रेज पैदा करने की कोशिश...सिटिजन जर्नलिस्ट के नाम पर ही सही...पब्लिक जितनी क्रेजी होती जाएगी...शो उतना ही कामयाब होगा और टीआरपी आसमान पर। अरे...अरे... ...विषय पर रहिए...भटक क्यों रहे हैं? चंदन को चिंता है...इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है। इराक बनाने की साजिश। सुरेश को...पूरी इकनॉमी खतरे में नजर आ रही है। राकेश को यह सब मुसलमानों की साजिश लग रही है...स्साले पाकिस्तान से मिले हुए हैं...नमकहरामी कर रहे हैं...। अरविंद आहत है...नहीं बे.

हमारा धर्म है झूठ बोलना

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कोई नेता जब सत्ता हासिल करने के लिए पहला कदम बढ़ाता है तो उसकी शुरुआत झूठ से होती है। हर बार चुनाव में यही सब होता है और देश चुपचाप यह सब होते हुए देखता है। चुनाव आयोग एक सीमा तक अपनी जिम्मेदारी निभाकर चुप हो जाता है। यहां पर हम बात उन प्रत्याशियों की कर रहे हैं जो दलितों की मसीहा पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से टिकट हासिल कर चुनाव मैदान में उतरे हैं। बात देश की राजधानी दिल्ली की ही हो रही है। दिल्ली के महरौली विधानसभा क्षेत्र से कोई वेद प्रकाश हैं जिनके पास 201 करोड़ की संपत्ति है। यह बात उन्होंने चुनाव आयोग में जमा कराए गए हलफनामे में कही है। दूसरे नंबर पर बीएसपी के ही छतरपुर (दिल्ली) विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी कंवर सिंह तंवर हैं जिनके पास 157 करोड़ की संपत्ति है। इसके अलावा दिल्ली में कम से कम उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके पास एक करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है। चुनाव आयोग के पास जमा यह सब दस्तावेजों में दर्ज है। यह सभी 153 प्रत्याशी बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी के ही हैं। सिर्फ पांच प्रत्याशी ऐसे हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति शून्य (जीरो) दिखाई है। लेकिन इनमें से जिन वेद प्रकाश का जिक्र

नेता का बेटा नेता बने, इसमें समस्या है

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- स्वतंत्र जैन ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस में तूफान आया हुआ है। आरोप है कि पार्टी में टिकट बेचे गए हैं। आरोप पार्टी की ही एक महासचिव ने लगाया है। इस पूरे विवाद पर गौर करें तो इसमे दो छोर साफ नजर आते हैं। एक तरफ आधुनिकता है तो दूसरी तरफ परंपरावादी। एक तरफ भारतीय पॉलटिक्स के ओल्ड गार्ड हैं तो दूसरी तरफ युवा नेता। जमे जमाए और खुर्राट नेता जहां यह कह रहे हैं कि 'जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और वकील का बेटा वकील बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता, तो राहुल गांधी जैसे युवा नेता कह रहे हैं पॉलटिक्स में एंट्री कैसे हो इसका भी एक तरीका होना चाहिए। नेता का बेटा नेता बने इसमें किसी को क्या बुराई हो सकती है, आखिर जार्ज बुश सीनियर के पुत्र जार्ज बुश जूनियर भी तो आठ साल तक लोकतंत्र के मक्का माने जाने वाले अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे। पर इस स्टेटमेंट में जो बात झलकती उससे वंशवाद की बू आती है, कि नेतागीरी पर पहला हक नेता के बेटे का है। यह वही वंशवाद की बीमारी है जिसका आरोप कभी कांग्रेस पर लगा करता था और जो अब महामारी बनकर लगभग हर पार्टी को अपनी चपेट में ले चुकी है। नेता का बेटा नेतागी

जिंदा होता हुआ एक मशीनी शहर

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मशीनी शहर फरीदाबाद वैसे तो किसी परिचय का मोहताज नहीं है लेकिन जो लोग पहली बार इसके बारे में पढ़ेंगे उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह हरियाणा राज्य का तेजी से विकसित होता हुआ शहर है। यह दिल्ली से सटा हुआ है और यहां सिर्फ कल-कारखाने हैं। यह शहर दरअसल खुद में मिनी इंडिया है, जहां देश के कोने-कोने से आए लोग पुरसूकुन जिंदगी गुजारते हैं। नफरत की जो आंधियां बाकी शहरों में चलती हैं, वह यहां से कोसों दूर है। मेरी तमाम यादें इस शहर से जुड़ी हुई हैं। लंबे अर्से से इस शहर की साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा कहीं सुनाई देती थी। हाल ही में जब मुझे कथाकार हरेराम समीप उर्फ नीमा का फोन आया कि अदबी संगम को फिर से जिंदा किया जा रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अदबी संगम वह संस्था रही है जिसके जरिए मैंने साहित्य को नजदीक से जाना। आज से लगभग 15-20 साल पहले फरीदाबाद में साहित्यिक गतिविधियां चरम पर थीं। शायरों में खामोश सरहदी, अंजुम जैदी, हीरानंद सोज, डॉ. जावेद वशिष्ठ, ओम प्रकाश लागर, ओमकृष्ण राहत, के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी, उर्दू कहानी लेखकों में बड़ा नाम सतीश बत्रा, पंजाबी में तारा सिंह कोमल, स