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तू न सलमा है न सीमा... इंसानियत पर तमाचा है तू

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उसका नाम सलमा भी है और सीमा भी है। जब वह किसी मुसलमान के घर में झाड़ू-पोंछा करती है तो सलमा बन जाती है और जब किसी हिंदू के यहां काम करती है तो सीमा बन जाती है। यह कहानी दिल्ली जैसे महानगर में काम करने वाली हजारों महिलाओं की है जो अपनी आजीविका के लिए दोहरी जिंदगी जी रही हैं। यह कहानी मेरी गढ़ी हुई भी नहीं है। राजधानी से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार द हिंदुस्तान टाइम्स ने दो दिन पहले इसे प्रकाशित किया है और जिसने इन्हें पढ़ा वह कुछ सोचने पर मजबूर हो गया। इस कहानी की गूंज दिल्ली के सोशल सर्कल से लेकर राजनीतिक और बुद्धजीवियों के बीच भी रही। नस्लवाद या रेसिज्म पर तमाम ब्लॉगों और अखबारों में अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। यह काम अब भी जारी है। लोग आस्ट्रेलिया के लोगों को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। लेकिन देश की राजधानी में अगर हजारों महिलाओं को इस तरह की दोहरी जिंदगी जीना पड़ रही है तो इस मुद्दे को सामने लाना और इस पर बहस करना जरूरी है। अखबार की उसी रिपोर्ट के मुताबिक दरअसल, वह महिला मुस्लिम ही है और जब वह अपने असली नाम से कई घरों में काम मांगने गई तो उसे काम नहीं मिला और चार बातें सुनने को मिल