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नवंबर, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुंबई हमले के लिए अमेरिका जिम्मेदार ?

सुनने में यह जुमला थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन यह जुमला मेरा नहीं है बल्कि अमेरिका में सबसे लोकप्रिय और भारतीय मूल के अध्यात्मिक गुरू दीपक चोपड़ा का है। दीपक चोपड़ा ने कल सीएनएन न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में यह बात कही है। उस इंटरव्यू का विडियो मैं इस ब्लॉग के पाठकों के लिए पेश कर रहा हूं। निवेदन यही है कि पूरा इंटरव्यू कृपया ध्यान से सुनें। अंग्रेजी में इस इंटरव्यू का मुख्य सार यह है कि जब से अमेरिका ने इराक सहित तमाम मुस्लिम देशों के खिलाफ आतंकवाद के नाम पर हमला बोला है तबसे इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं। अमेरिका आतंकवाद को दो तरह से फलने फूलने दे रहा है – एक तो वह अप्रत्यक्ष रूप से तमाम आतंकवादी संगठनों की फंडिंग करता है। यह पैसा अमेरिकी डॉलर से पेट्रो डॉलर बनता है और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, इराक, फिलिस्तीन समेत कई देशों में पहुंचता है। दूसरे वह आतंकवाद फैलने से रोकने की आड़ में तमाम मुस्लिम देशों को जिस तरह युद्ध में धकेल दे रहा है, उससे भी आतंकवादियों की फसल तैयार हो रही है। दीपक चोपड़ा का कहना है कि पूरी दुनिया में मुसलमान कुल आबादी का 25 फीसदी हैं, जिस तरह अमेरिका के ने

India's Leaders Need to Look Closer to Home

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The Assault on Mumbai By TARIQ ALI The terrorist assault on Mumbai’s five-star hotels was well planned, but did not require a great deal of logistic intelligence: all the targets were soft. The aim was to create mayhem by shining the spotlight on India and its problems and in that the terrorists were successful. The identity of the black-hooded group remains a mystery. Blogging To The Bank 3.0. Click Here! The Deccan Mujahedeen, which claimed the outrage in an e-mail press release, is certainly a new name probably chosen for this single act. But speculation is rife. A senior Indian naval officer has claimed that the attackers (who arrived in a ship, the M V Alpha) were linked to Somali pirates, implying that this was a revenge attack for the Indian Navy’s successful if bloody action against pirates in the Arabian Gulf that led to heavy casualties some weeks ago. The Indian Prime Minister, Manmohan Singh, has insisted that the terrorists were based outside

पाकिस्तान पर हमले से कौन रोकता है ?

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मुंबई पर हुए सबसे बड़े हमले के बारे में ब्लॉग की दुनिया और मीडिया में बहुत कुछ इन 55 घंटों में लिखा गया। कुछ लोगों ने अखबारों में वह विज्ञापन भी देखा होगा जो मुंबई की इस घटना को भुनाने के लिए बीजेपी ने छपवाया है जिससे कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में उसका लाभ लिया जा सके। सांप्रदायिकता फैलाने वाले उस विज्ञापन की एनडीटीवी शुक्रवार को ही काफी लानत-मलामत कर चुका है। यहां हम उसकी चर्चा अब और नहीं करेंगे। मुंबई की घटना को लेकर लोगों का आक्रोश स्वाभाविक है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। देश के एक-एक आदमी की दुआएं सुरक्षा एजेंसियों के साथ थीं लेकिन सबसे दुखद यह रहा कि इसके बावजूद तमाम लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठे। कोई राजनीतिक दल या उसका नेता अगर मानसिक संतुलन ऐसे मुद्दों पर खोता है तो उसका इतना नोटिस नहीं लिया जाता लेकिन अगर पढ़ा-लिखा आम आदमी ब्लॉग्स पर उल्टी – सीधी टिप्पणी करेगा तो उसकी मानसिक स्थिति के बारे में सोचना तो पड़ेगा ही। मुंबई की घटना को लेकर इस ब्लॉग पर और अन्य ब्लॉगों पर की गई टिप्पणियां बताती हैं कि फिजा में कितना जहर घोला जा चुका है। इसी ब्लॉग पर नीचे वाली पोस्ट मे

शुक्रिया मुंबई...और आप सभी के जज्बातों का

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मुंबई ने फिर साबित किया है कि वह जीवट का शहर है। उसे गिरकर संभलना आता है। उस पर जब-जब हमले हुए हैं, वह घायल हुई लेकिन फिर अपने पैरों पर खड़ी हो गई। 1993 में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के बाद मुंबई ने यह कर दिखाया और अब जब बुधवार देर रात को उस पर सबसे बड़ा हमला हुआ तब वह एक बार फिर पूरे हौसले के साथ खड़ी है। मुट्ठी भर आतंकवादी जिस नीयत से आए थे, उन्हें उसमें रत्तीभर कामयाबी नहीं मिली। उनका इरादा था कि बुधवार के इस हमले के बाद प्रतिक्रिया होगी और मुंबई में बड़े पैमाने पर खून खराबा शुरू हो जाएगा लेकिन उनके ख्वाब अधूरे रहे। मुंबई के लोग एकजुट नजर आए और उन्होंने पुलिस को अपना आपरेशन चलाने में पूरी मदद की। हालांकि मुंबई पुलिस ने इस कार्रवाई में अपने 14 अफसर खो दिए हैं लेकिन मुंबई को जिस तरह उन लोगों ने जान पर खेलकर बचाया है, वह काबिलेतारीफ है। इस घटना को महज एक आतंकवादी घटना बताकर भुला देना ठीक नहीं होगा। अब जरूरत आ पड़ी है कि सभी समुदायों के लोग इस पर गंभीरता से विचार करें और ऐसी साजिश रचने वालों को बेनकाब करें। ऐसे लोग किसी एक खास धर्म या जाति में नहीं हैं। इनकी जड़ें चारों तरफ फैली हुई हैं। मु

स्सा..ले..नमक हराम...देशद्रोही...आतंकवादी

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दिन बुधवार, रात 10.35...क्रिकेट मैच खत्म हो चुका है...भारत फिर किसी देश को हरा चुका है...टीवी पर फ्लैश – मुंबई पर आतंकवादी हमला... ...लीजिए भारत फिर हार गया...अपने ही लोग हैं...अपनों को ही निशाना बना रहे हैं। एक जगह नहीं...कई – कई जगह गोलियां बरस रही हैं...ग्रेनेड फेंके जा रहे हैं...टीवी पर सब कुछ लाइव है...न्यूज चैनल वालों के लिए एक रिएलिटी शो से भी बड़ा आयोजन...ऐसा मौका फिर कब मिलेगा...पब्लिक से मदद मांगी जा रही है...आप हमें फोन पर हालात की जानकारी दीजिए...आप ही विडियो बना लें या फोटो खींच लें...हम आपके नाम से दिखाएंगे...पब्लिक में लाइव होने का क्रेज पैदा करने की कोशिश...सिटिजन जर्नलिस्ट के नाम पर ही सही...पब्लिक जितनी क्रेजी होती जाएगी...शो उतना ही कामयाब होगा और टीआरपी आसमान पर। अरे...अरे... ...विषय पर रहिए...भटक क्यों रहे हैं? चंदन को चिंता है...इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है। इराक बनाने की साजिश। सुरेश को...पूरी इकनॉमी खतरे में नजर आ रही है। राकेश को यह सब मुसलमानों की साजिश लग रही है...स्साले पाकिस्तान से मिले हुए हैं...नमकहरामी कर रहे हैं...। अरविंद आहत है...नहीं बे.

हमारा धर्म है झूठ बोलना

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कोई नेता जब सत्ता हासिल करने के लिए पहला कदम बढ़ाता है तो उसकी शुरुआत झूठ से होती है। हर बार चुनाव में यही सब होता है और देश चुपचाप यह सब होते हुए देखता है। चुनाव आयोग एक सीमा तक अपनी जिम्मेदारी निभाकर चुप हो जाता है। यहां पर हम बात उन प्रत्याशियों की कर रहे हैं जो दलितों की मसीहा पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से टिकट हासिल कर चुनाव मैदान में उतरे हैं। बात देश की राजधानी दिल्ली की ही हो रही है। दिल्ली के महरौली विधानसभा क्षेत्र से कोई वेद प्रकाश हैं जिनके पास 201 करोड़ की संपत्ति है। यह बात उन्होंने चुनाव आयोग में जमा कराए गए हलफनामे में कही है। दूसरे नंबर पर बीएसपी के ही छतरपुर (दिल्ली) विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी कंवर सिंह तंवर हैं जिनके पास 157 करोड़ की संपत्ति है। इसके अलावा दिल्ली में कम से कम उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके पास एक करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है। चुनाव आयोग के पास जमा यह सब दस्तावेजों में दर्ज है। यह सभी 153 प्रत्याशी बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी के ही हैं। सिर्फ पांच प्रत्याशी ऐसे हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति शून्य (जीरो) दिखाई है। लेकिन इनमें से जिन वेद प्रकाश का जिक्र

नेता का बेटा नेता बने, इसमें समस्या है

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- स्वतंत्र जैन ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस में तूफान आया हुआ है। आरोप है कि पार्टी में टिकट बेचे गए हैं। आरोप पार्टी की ही एक महासचिव ने लगाया है। इस पूरे विवाद पर गौर करें तो इसमे दो छोर साफ नजर आते हैं। एक तरफ आधुनिकता है तो दूसरी तरफ परंपरावादी। एक तरफ भारतीय पॉलटिक्स के ओल्ड गार्ड हैं तो दूसरी तरफ युवा नेता। जमे जमाए और खुर्राट नेता जहां यह कह रहे हैं कि 'जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और वकील का बेटा वकील बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता, तो राहुल गांधी जैसे युवा नेता कह रहे हैं पॉलटिक्स में एंट्री कैसे हो इसका भी एक तरीका होना चाहिए। नेता का बेटा नेता बने इसमें किसी को क्या बुराई हो सकती है, आखिर जार्ज बुश सीनियर के पुत्र जार्ज बुश जूनियर भी तो आठ साल तक लोकतंत्र के मक्का माने जाने वाले अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे। पर इस स्टेटमेंट में जो बात झलकती उससे वंशवाद की बू आती है, कि नेतागीरी पर पहला हक नेता के बेटे का है। यह वही वंशवाद की बीमारी है जिसका आरोप कभी कांग्रेस पर लगा करता था और जो अब महामारी बनकर लगभग हर पार्टी को अपनी चपेट में ले चुकी है। नेता का बेटा नेतागी

जिंदा होता हुआ एक मशीनी शहर

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मशीनी शहर फरीदाबाद वैसे तो किसी परिचय का मोहताज नहीं है लेकिन जो लोग पहली बार इसके बारे में पढ़ेंगे उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह हरियाणा राज्य का तेजी से विकसित होता हुआ शहर है। यह दिल्ली से सटा हुआ है और यहां सिर्फ कल-कारखाने हैं। यह शहर दरअसल खुद में मिनी इंडिया है, जहां देश के कोने-कोने से आए लोग पुरसूकुन जिंदगी गुजारते हैं। नफरत की जो आंधियां बाकी शहरों में चलती हैं, वह यहां से कोसों दूर है। मेरी तमाम यादें इस शहर से जुड़ी हुई हैं। लंबे अर्से से इस शहर की साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा कहीं सुनाई देती थी। हाल ही में जब मुझे कथाकार हरेराम समीप उर्फ नीमा का फोन आया कि अदबी संगम को फिर से जिंदा किया जा रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अदबी संगम वह संस्था रही है जिसके जरिए मैंने साहित्य को नजदीक से जाना। आज से लगभग 15-20 साल पहले फरीदाबाद में साहित्यिक गतिविधियां चरम पर थीं। शायरों में खामोश सरहदी, अंजुम जैदी, हीरानंद सोज, डॉ. जावेद वशिष्ठ, ओम प्रकाश लागर, ओमकृष्ण राहत, के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी, उर्दू कहानी लेखकों में बड़ा नाम सतीश बत्रा, पंजाबी में तारा सिंह कोमल, स

जिंदगी की दास्तां कैसे लिखें

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इधर कई दिनों से लिखने की बजाय मैं पढ़ रहा था। खासकर गजलें और कविताएं। यहीं आपके तमाम ब्लॉगों पर। मैं मानता हूं कि तमाम बड़े-बड़े लेख वह काम नहीं कर पाते जो किसी शायर या कवि की चार लाइनें कर देती हैं। समसामयिक विषयों पर कलम चलाने वाले कृपया मेरी इस बात से नाराज न हों। क्योंकि इससे उनकी लेखनी का महत्व कम नहीं हो जाता। लेकिन यकीन मानिए की गजल या कविता से आप सीधे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। आपको लगता है कि यह शायर की यह बात आपकी गजल को कहीं छू गई। गजल और कविता के ब्लॉगों की सर्फिंग के दौरान एक बात जो मैंने खासतौर से महसूस की कि शायरों की एक बड़ी जमात मौजूदा दौर के हालात पर बेबाकी से अपनी कलम चला रही लेकिन उसकी तुलना में हिंदी में यह काम जरा कम ही हो रहा है। मैं यहां हास्य के नाम पर मंच पर फूहड़ कविताई करने वालों की बात नहीं कर रहा जो दिहाड़ी के हिसाब से किसी भी विषय पर कुछ भी लिख मारते हैं। उम्मीद है कि इससे अगली पोस्ट में मैं दो ऐसे शायरों से आपका परिचय कराऊं जो बेहद खामोशी से अपने रचना संसार में लगे हुए हैं। हाल ही में इनकी दो पुस्तकों का विमोचन भी हुआ, जिसके बहाने मुझे इनके बारे में और ज

कुछ तो शर्म करो

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अब वह दिन दूर नहीं जब आप किसी राजनीतिक पार्टी से अगर उसकी सभा या रैली में सवाल करेंगे तो उस पार्टी के वफादार कार्यकर्ता आपको पीटने से परहेज करेंगे। आपकी जुर्रत को राजनीतिक दल अब बर्दाश्त नहीं करेंगे। वह राजनीतिक पार्टी (Political parties)जो खुद को सत्ता के बिल्कुल नजदीक समझ रही है और जिसने अपना पीएम इन वेटिंग भी बहुत पहले घोषित कर दिया है, यह उसी पार्टी का हाल है जो अपने खिलाफ होने वाले प्रतिकूल सवालों को बर्दाश्त करने का माद्दा खो चुकी है। आप सही समझे यहां बात बीजेपी की ही हो रही है। राजधानी में इधर दो घटनाएं हुईं जो अखबारों में बहुत मामूली जगह ही पा सकीं लेकिन दोनों घटनाएं अपने आप में बहुत गंभीर हैं। दिल्ली के पुष्प विहार इलाके में शनिवार शाम को बीजेपी की एक सभा हुई। इस इलाके से बीजेपी प्रत्याशी सुरेश पहलवान चुनाव लड़ रहे हैं। उस सभा को पुष्प विहार इलाके के लोग बड़े ही चाव से सुन रहे थे। तब तक सब गनीमत रहा, जब तक बीजेपी नेता स्थानीय मुद्दों बीआरटी कॉरिडोर, भ्रष्टाचार, महंगाई, बढ़ते अपराध को लेकर शीला दीक्षित सरकार को कोसते रहे। लेकिन इसके बाद इन लोगों ने सभा में मुसलमानों को देश वि

एक छात्र का मुझसे बारीक सवाल

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भारतीय लोकतंत्र में क्या दिनों-दिन गिरावट आ रही है? यह सवाल मुझसे 12वीं क्लास के एक छात्र ने आज उस वक्त किया, जब मैं किसी सिलसिले में उसके स्कूल गया था और एक टीचर ने मुझसे एक पत्रकार के रूप में उस छात्र से परिचय करा दिया। फिर उसने अचानक अमेरिका का उदाहरण दे डाला कि तमाम अमेरिकी दादागीरी के बावजूद हर राष्ट्रपति चुनाव में वहां की जनता अमेरिकी लोकतंत्र को और मजबूत करती हुई दिखाई देती है जबकि भारत में हर चुनाव के साथ इसमें गिरावट देखी जा रही है। मैंने उस छात्र को विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को लेकर इस तरह की राय न बनाने की सलाह दी और कुछ बताना चाहा। लेकिन उसके अपने अकाट्य तर्क थे। उसका कहना था कि आप लोग कब तक झूठ बोलते रहेंगे। उसने कहा कि ऐसा कोई चुनाव याद दिलाइए जब भारत में जाति और धर्म के नाम पर वोट न मांगे गए हों? क्या यहां यह संभव है? सच यह है कि इस देश की सत्ता जिन लोगों के हाथों में होनी चाहिए, वे हाशिए पर हैं। भारत एक गरीब देश है लेकिन कोई गरीब, दलित या मुसलमान इस देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सका? मैंने उसे एपीजे अब्दुल कलाम, हामिद अंसारी (मौजूदा उपराष्ट्रपति), डा. जाकिर हुसैन

एक शिकायत चिट्ठाजगत वालों से

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यह क्या है मेरे भाई? मैंने नीचे की पोस्ट हिंदी अंग्रेजी में मिलाकर की लेकिन पिंग करने पर आपने उसे अपने ताजा चिट्ठों की सूची में नहीं दिखाया। माना कि आप सिर्फ हिंदी के लिए ही समर्पित हैं लेकिन इस तरह के चिट्ठों को स्वीकार करने में आपका स्टैंडर्ड तो नहीं गिरेगा? अब तो समय हिंदी अंग्रेजी के मिलजुल कर (देखो भाई लोग गाली मत देने लगना, हमें भी हिंदी से उतना ही प्यार है जितना आपको है) चलने का है। दरअसल, इस तरह का सहारा लेने की जरूरत कभी-कभी तब पड़ती है जब आप अपना नजरिया किसी खास मुल्क के लोगों को पढ़ाना चाहते हैं। चूंकि मेरा ब्लॉग अमेरिका में काफी खोला और पढ़ा जा रहा है, इसलिए मैंने यह कदम उठाया। अन्यथा अपना इरादा खालिस हिंदी में ही बात करने का रहता है। बहरहाल, यह गलती अगर मेरी ही है तो भी चिट्ठाजगत वालों को इस पर विचार तो करना चाहिए कि क्या यह संभव है। अगर यह संभव नहीं है तो कुछ और उपाय सोचा जाएगा। मैंने यह पोस्ट यहां सार्वजनिक इसलिए भी की शायद किसी और को भी इससे दो-चार होना पड़ा हो। अन्यथा यह बात तो मैं चिट्ठा जगत को ई-मेल के जरिए लिख भेजता। बहरहाल, अब गेंद उनके पाले में है।

सवाल अंकल सैम के चरित्र बदलने का है?

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अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा पर दुनिया में बहस शुरू हो गई है कि जिस बदलाव की उम्मीद इस व्यक्ति ने जगाई है क्या वह अमेरिका के चरित्र से मेल खाता है। वरिष्ठ पत्रकार स्वतंत्र जैन ने इसी मुद्दे को उठाया है। स्वतंत्र जैन नवभारत टाइम्स में कार्यरत हैं। हमारे अमेरिकी पाठकों के लिए भारतीय नजरिए के इस लेख को स्वतंत्र जैन ने हिंदीवाणी के आग्रह पर अंग्रेजी में लिखा हैः Color of America has changed, lets see its content of character? By Swatantra Jain The face of America has changed – virtually. The man who now heads America has named himself Mr Change. Barak Obama said in his acceptance speech, ‘Change Has Come’. Through his campaign and by his presence Barak Hussine Obama has raised expectation and awakened hope not only in America but across the globe. Electorally, only United States of America has showed trust in him but vibration of his victory has witnessed an unprecedented world wide echo. Reason being that he is riding on hope and has come through breaking many barriers o

क्या अब खत्म हो जाएगी अमेरिकी दादागीरी?

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बराक ओबामा ने जब डेमोक्रेट उम्मीदवारी की रेस में हिलेरी क्लिंटन को पछाड़ा था, तभी इस बात की भविष्यवाणी की गई थी कि यह चुनाव विश्व इतिहास का टर्निंग पॉइंट साबित होने जा रहा है। ओबामा ने अमेरिकी मानस को समझा और बदलाव का नारा देकर अमेरिकी लोगों का दिल जीत लिया। हम भारतीय या यह कह लें कि एशियाई लोगों के लिए इस जीत का मतलब क्या है और क्या हमें वाकई ओबामा की जीत से खुश होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि सारे गोरे (यहां अंग्रेजों के संदर्भ में लें) काले लोगों से चिढ़ते हैं लेकिन गोरों की एक बहुत बड़ी आबादी कालों से वाकई चिढ़ती है। यही वजह रही कि अमेरिका में तमाम काले लोग गोरों की घृणा का शिकार हुए। इसलिए हम भारतीयों को इस जीत पर इसलिए जरूर खुश होना चाहिए कि व्हाइट हाउस में पहली बार एक काला व्यक्ति कुर्सी संभालने जा रहा है। अब गोरे कम से कम खास जगहों पर यह तो नहीं लिख सकेंगे कि इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड हियर (यहां कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित है)। ओबामा की जीत पर काले लोगों की विजय के साथ अब सबसे बड़ी चुनौती ओबामा के सामने है कि क्या वह दुनिया को इस्राइल के आतंकवाद से मुक्ति दिला पाए

एक सावधान कवि की बात

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मुद्दे बहुत सारे हैं लेकिन बीच-बीच में हम लोगों को कविता और कवियों की बात भी कर लेनी चाहिए। जिन्हें कविताएं या गजलें पसंद नहीं है, उनकी संवेदनशीलता पर सवालिया निशान लग जाते हैं। खैर, यह तो एक बात थी जो मुझे कहनी थी और मैंने कही। मैं खुद कोई बहुत बड़ा या छोटा-मोटा भी कवि नहीं हूं। हां, जो पसंद आता है, पढ़ता जरूर हूं। इसी सिलसिले में मैंने पिछले दिनों इस ब्लॉग पर राही मासूम रजा की कुछ कविताएं पोस्ट की थीं जो मुझे बेहद पसंद हैं। उसी कड़ी में कैफी आजमी और सीमा गुप्ता की कविताएं भी पोस्ट कीं। लेकिन इस बार मैं जिस कवि के बारे में आपसे बात कर रहा हूं उनका नाम मनमोहन है। उनके बारे में आपको साहित्यिक पत्रिकाओं में ज्यादा पढ़ने को नहीं मिलेगा, खुद मैंने भी उनको बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा है और पहली बार अपने ही एक साथी धीरेश सैनी से उनका नाम सुना। धीरेश की धुन बजी और उन्होंने मनमोहन की कई कविताएं मुझे सुनाईं। फिर एक दिन धीरेश के जरिए धीरेश के मोबाइल पर उनसे बात भी की। हिंदी साहित्य में जब खेमेबाजी और आरोपबाजी अपने चरम पर है, ऐसे मनमोहन जैसा कवि खुद को आत्मप्रचार से बचाए हुए है, हैरत होती है। हिंदी साह

जामिया...आइए कुतर्क करें

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जामिया यूनिवर्सिटी पर वाले नीचे के लेख पर यहां-वहां की गई टिप्पणियां आप लोगों ने देख ली होंगी। टिप्पणी करने वालों ने आपस में भी बहस कर डाली। खैर, कुछ लोगों ने सामने न आने की कसम खा रखी है और वे अब ईमेल के जरिए अपनी बात लिखकर भेज रहे हैं। इनमें कुतर्क करने वालों की तादाद ज्यादा है और संजीदा बात करने वालों की बात कम है। कुतर्क करने वालों का कहना है कि इस यूनिवर्सिटी को आतंकवाद फैलाने के लिए ही बनाया गया है। इसके पक्ष में सिर्फ और सिर्फ उनके पास बटला हाऊस एनकाउंटर जैसी घटना बताने के लिए है। इन लोगों का कहना है कि पुलिस कभी भी आतंकवादी के नाम पर झूठा एनकाउंटर नहीं करती। इसलिए दिल्ली पुलिस अपनी जगह सही है। बहरहाल, इन बातों को आप अपनी कसौटी पर रखकर देखें। मुझे इस मामले में सिर्फ इतना कहना है कि जामिया यूनिवर्सिटी सभी की है और इसका मूल स्वरूप धर्म निरपेक्ष रहा है और अब भी है। मौजूदा वीसी मुशिरूल हसन के यहां आने के बाद इस यूनिवर्सिटी ने अपनी अच्छी ही इमेज बनाई है। अगर कांग्रेस या बीजेपी या इनसे जुड़े लोगों को इस वीसी की बात पसंद नहीं है तो उसमें उस वीसी का क्या कसूर? कम से कम वह तो इन राजनीति

दर्द-ए-जामिया

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नोट – आज मैं आप लोगों से मुखातिब नहीं हूं। जामिया यूनिवर्सिटी की जो छवि देश-विदेश में बनाई जा रही है, उससे संबंधित और सरोकार रखने वाले सभी आहत हैं। वरिष्ठ पत्रकार सौरभ भारद्वाज जामिया के पूर्व छात्र हैं और इन दिनों नवभारत टाइम्स को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मेरे ब्लॉग पर नीचे वाला लेख पढ़ने के बाद उन्होंने यह प्रतिक्रिया भेजी जो मैं इस ब्लॉग पर लेख के रूप में पेश कर रहा हूं। हाजिर हैं बकलम खुद सौरभ भारद्वाज - - सौरभ भारद्वाज जामिया इन दिनों सुर्खियों में है और जामिया से जुड़ी मेरी यादें एकदम तरोताजा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जहां की तहजीब में शुमार है, जहां तालीम हासिल करना किसी मुस्लिम के लिए ही नहीं बल्कि किसी हिंदू के लिए भी गर्व की बात है, ऐसे जामिया को बेशक एक-दो साल ही सही लेकिन मैंने बेहद नजदीक से देखा है। उसकी धडक़न को महसूस किया है। गालिब के बुत के अगल-बगल बिताए गए घंटों और अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि पिछले लगभग 5-6 हफ्तों में इस यूनिवर्सिटी की जो राष्ट्र विरोधी इमेज गढ़ दी गई है, यह यूनिवर्सिटी वैसी नहीं है। सात-आठ साल ही बीते हैं जब मैं जामिया के हिंदी विभाग मे