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सुन ऐ हुक्मरां, हमारे कपड़ों को न देख, हमारे जेहाद-ए-अकबर को देख

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किनारे पर खड़े लोगों, बस इतना ध्यान में रखना समंदर ज़िद पे आयेगा, तो सबके घर डुबो देगा। -हुसैन हैदरी, शायर, फ़िल्म गीतकार kinaare par khade logon, bas itna dhyaan mein rakhna samandar zidd pe aayega, to sabke ghar dubo dega -Hussain Haidry, Poet, Film Lyrist वह लोग जो अभी भी स्टूडेंट्स के शांतिपूर्ण आंदोलन को दूर से नाप तौल रहे हैं, क्या उन्होंने थोड़ी देर इस पर विचार किया कि आंदोलन जेएनयू में भी हुआ और वहाँ के बच्चे भी सड़कों पर आये लेकिन सिर्फ़ जामिया मिल्लिया इस्लामिया और एएमयू में ही पुलिस क्यों हॉस्टल में घुसी और क्यों एक ही पैटर्न के तहत स्टूडेंट्स को पीटा गया? जामिया और एएमयू के अंदर पुलिस के घुसने का समय शाम का था। एएमयू में तो स्टूडेंट्स न तो सड़कों पर आये और न ही कोई पत्थरबाज़ी की। दिल्ली और यूपी पुलिस में पढ़े लिखे युवक भरती होते हैं और वे जानते हैं कि यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ने वाले बच्चे संजीदा होते हैं। बाहर नारेबाज़ी चल रही थी लेकिन ये बच्चे लाइब्रेरी में पढ़ रहे थे। इसके बावजूद दिल्ली पुलिस और अलीगढ़ पुलिस अंदर घुसी और उन्हे

हिंदुत्व की धारणा विकास विरोधी क्यों है

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- टी.के. अरुण नरेंद्र मोदी इस समझ को सिरे से खारिज करते हैं कि हिंदुत्व के साथ विकास की कोई संगति नहीं बैठ सकती। गुजरात की प्रगति को वे अपनी बात के सबूत के तौर पर पेश करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात का प्रशासन गतिशील है और यह भारत के सबसे तेजी से आगे बढ़ रहे राज्यों में एक है। भारतीय उद्यमी जगत के कई प्रमुख नाम तो मोदी को एक दिन भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं। फिर विकास को मुद्दा बनाकर हिंदुत्व के बारे में खामखा की एक बहस खड़ी करने का भला क्या औचित्य है? औचित्य है, क्योंकि हिंदुत्व विकास की मूल प्रस्थापना का ही निषेध करने वाली अवधारणा है। हिंदुत्व निश्चय ही हिंदू धर्म से पूरी तरह अलग चीज है। हिंदू धर्म एक सर्व-समावेशी, वैविध्यपूर्ण, बहुदेववादी धर्म और संस्कृति है, जिसका अनुसरण भारत के 80 प्रतिशत लोग करते हैं। इसके बरक्स हिंदुत्व भारतीय समाज को गैर-हिंदुओं के प्रति शत्रुता के आधार पर संगठित करना चाहता है और भारतीय राष्ट्रवाद को कुछ इस तरह पुनर्परिभाषित करना चाहता है कि धार्मिक अल्पसंख्यक इसमें दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रह जाएं। क्या यह घिसा-पिटा आरोप नहीं है?

मुल्ला जी की दाढ़ी पर सवाल

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-अलीका मध्य प्रदेश के एक मुस्लिम स्टूडेंट को उसकी दाढ़ी कटाने का आदेश देकर एक स्कूल ने फिर से इस बहस को जन्म दे दिया कि आखिर इस देश में किसी अल्पसंख्यक के मूलभूत अधिकार की व्याख्या क्या फिर से करनी चाहिएय़ क्योंकि इस मामले में जिस तरह हाई कोर्ट ने भी स्कूल का साथ दिया है, उससे इस तरह के सवाल तो खड़े ही किए जाएंगे। पहले जानिए कि पूरा मामला क्या है। मध्य प्रदेश में विदिशा जिले के निर्मला कॉन्वेंट हायर सेकेंडरी स्कूल स्कूल में 10 वीं कक्षा के छात्र मोहम्मद सलीम ने धार्मिक कारणों से दाढ़ी रखी और जब वह स्कूल में आया तो स्कूल की ईसाई प्रिंसिपल ने उसे नोटिस जारी करते हुए कहा कि या तो वह अपनी दाढ़ी कटाकर स्कूल में आए या फिर इस स्कूल से अपना नाम कटाकर कहीं और चला जाए। इस नोटिस का छात्र पर गहरा असर हुआ। उसने अदालत की शरण ली। हाई कोर्ट तक मामला पहुंचने के बाद हाई कोर्ट ने भी स्कूल का ही साथ दिया औऱ कहा कि अल्पसंख्यकों को अपने स्कूल के नियम खुद बनाने का अधिकार है। इसलिए इस बारे में कोर्ट उस स्कूल को कोई नोटिस जारी नहीं कर सकता। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया है और 30 मार्च को इस मामले की अगली

बिछने लगी है मुस्लिम वोटों के लिए बिसात

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 25 फरवरी 2009 को संपादकीय पेज पर प्रथम लेख के रूप में प्रकाशित है। सामयिक होने के कारण इस ब्लॉग के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस पर आई टिप्पणियों को आप नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4184206.cms पार्टियां मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन खुद उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासत के खिलाड़ी अपने-अपने मोहरे लेकर तैयार हो गए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में वोटों के लिए बिसात बिछाई जा रही है। इसमें भी सबसे ज्यादा जोर मुस्लिम वोटों के लिए है। कहीं कोई पार्टी उलेमाओं का सम्मेलन बुला रही है तो कहीं से कोई उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली तक पहुंचाकर अपना मकसद हासिल कर रहा है। यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं। यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग त

एक छात्र का मुझसे बारीक सवाल

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भारतीय लोकतंत्र में क्या दिनों-दिन गिरावट आ रही है? यह सवाल मुझसे 12वीं क्लास के एक छात्र ने आज उस वक्त किया, जब मैं किसी सिलसिले में उसके स्कूल गया था और एक टीचर ने मुझसे एक पत्रकार के रूप में उस छात्र से परिचय करा दिया। फिर उसने अचानक अमेरिका का उदाहरण दे डाला कि तमाम अमेरिकी दादागीरी के बावजूद हर राष्ट्रपति चुनाव में वहां की जनता अमेरिकी लोकतंत्र को और मजबूत करती हुई दिखाई देती है जबकि भारत में हर चुनाव के साथ इसमें गिरावट देखी जा रही है। मैंने उस छात्र को विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को लेकर इस तरह की राय न बनाने की सलाह दी और कुछ बताना चाहा। लेकिन उसके अपने अकाट्य तर्क थे। उसका कहना था कि आप लोग कब तक झूठ बोलते रहेंगे। उसने कहा कि ऐसा कोई चुनाव याद दिलाइए जब भारत में जाति और धर्म के नाम पर वोट न मांगे गए हों? क्या यहां यह संभव है? सच यह है कि इस देश की सत्ता जिन लोगों के हाथों में होनी चाहिए, वे हाशिए पर हैं। भारत एक गरीब देश है लेकिन कोई गरीब, दलित या मुसलमान इस देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सका? मैंने उसे एपीजे अब्दुल कलाम, हामिद अंसारी (मौजूदा उपराष्ट्रपति), डा. जाकिर हुसैन