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अमजद साबरी जैसा कोई नहीं

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26 जून 2016 के नवभारत टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल अमजद साबरी पर प्रकाशित मेरा लेख...बाकी पाठकों को भी यह उपलब्ध हो सके, इसलिए इसे यहां पेश किया जा रहा है... पाकिस्तान में सूफी विरासत को मिटाने का सिलसिला जारी है। चाहे वो सूफियाना कलाम गाने वाले गायक हों या सूफी संतों की दरगाहें हों, लगातार वहाबियों व तालिबानी आतंकवादियों का निशाना बन रही हैं। 45 साल के अमजद साबरी 22 जून 2016 को इसी टारगेट किलिंग का शिकार बने। वहाबियों का सीधा सा फंडा है, पैगंबर और उनके परिवार का जिक्र करने वाले सूफी गायकों, शायरों और सूफी संतों की दरगाहों को अगर मिटा दिया गया तो इन लोगों का नामलेवा कोई नहीं बचेगा। लेकिन कट्टरपंथी यह भूल जाते हैं कि किसी को मारने से उस विचारधारा का खात्मा नहीं होता। वह और भी जोरदार तरीके से नए रूप में वापसी करती है। अमजद साबरी के साथ भी तो यही हुआ। कहां तो अमजद को हमेशा कैरम और क्रिकेट खेलने का शौक रहा लेकिन विरासत में मिली जिम्मेदारी को निभाने के लिए उन्हें कव्वाल बनना पड़ा। ...और वो न सिर्फ बने बल्कि मरते दम तक वो पाकिस्तानी यूथ के आइकन थे।

प्यार की संवेदनाओं से खड़ा होता है मजहब

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सुप्रसिद्ध लेखिका सादिया देहलवी की सूफीज्म पर हाल ही में एक किताब छपकर आई है। यह इंटरव्यू मैंने उसी संदर्भ में उनसे लिया है। इसे आज के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित भी किया जा चुका है। इसे वहां से साभार सहित लिया जा रहा है। इस्लाम और सूफी सिलसिला एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह एक मजहब है जिसमें कड़े नियम कानून हैं लेकिन दरअसल सूफीज्म इस्लाम की जान है। मेरी किताब सूफीज्म (प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स) इसी पर रोशनी डालती है। सूफी सिलसिले में शानदार शायरी, डांस, आर्ट और सबसे ज्यादा उस प्यार को पाने की परिकल्पना है जिसे पूरी दुनिया अपने-अपने नजरिए से देखती है। बहुत सारे मुसलमानों और ज्यादातर गैर मुस्लिमों के लिए यह स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है कि इस्लाम में सूफी नामक कोई अध्यात्मिक धारा भी बहती है। सूफी संत इसे अहले दिल कहते हैं यानी दिल वाले। उनकी नजर में धर्म का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि उसमें प्यार की संवेदनाएं न हों। इसीलिए सूफीज्म को इस्लाम का दिल कहा जाता है। पर, नई पीढ़ी के लिए इसका मतलब बदलता जा रहा है। बहरहाल, इस्लाम और सूफीज्म को अलग नहीं किया जा सक