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मुसलमानों के पास खोने को क्या है...

अयोध्या में राम मंदिर बनेगा या बाबरी मस्जिद को उसकी जगह वापस मिलने का संभावित फ़ैसला आने में अब कुछ घंटे बचे हैं। सवाल यह है कि अगर फ़ैसला मंदिर के पक्ष में आया तो मुसलमान क्या करेंगे... मुसलमानों को एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस सारे मामले में न तो उनका कुछ दाँव पर लगा है और न ही उनके पास कुछ खोने को है। अगर इस मामले में किसी का कुछ दाँव पर लगा है या कुछ खोने को है तो वह हैं दोनों धर्मों के उलेमा, राजनीतिक नेता, उनके दल, महंत, शंकराचार्य, अखाड़ों और बिज़नेसमैन बन चुके बाबा।  जिस जगह पर विवाद है, वहाँ पाँच सौ साल से विवाद है। अयोध्या में पहने वाले मुसलमानों ने तो वहाँ जाकर एक बार भी नमाज़ पढ़ने की कोशिश नहीं की। फिर बाहरी मुसलमान आज़म खान और अौवैसी ने क्या वहाँ कभी जाकर नमाज़ पढ़ने की कोशिश नहीं की। मेरे वतन के मुसलमान अयोध्या और फ़ैज़ाबाद की मस्जिदों में शांति से नमाज़ पढ़ रहे हैं। अगर फ़ैसला मस्जिद के पक्ष में भी आ जाता है तो भी अयोध्या में रहने वाले मुसलमान पुरानी जगह पर नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं जायेंगे। आज़म या ओवैसी रोज़ाना तो आने से रहे। इसलिए फ़ैसला

अभाव, गंदगी, चुनाव के झूठे वायदों के बावजूद हरिजन कैंप में जिंदगी गुलज़ार है

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जगह- हरिजन कैंप, लोदी कॉलोनी, साउथ दिल्ली की मस्जिद बच्चे का नाम - मोहम्मद सलमान सोर्स का नाम - मोहम्मद मोती, राज मिस्त्री (मैंशन) पहले वीडियो देखें फिर नीचे की तस्वीर देखें...वीडियो में क्या है, जानबूझकर नहीं लिखा। अगर आपने सुना तो शायद आप ही बता दें। दिल्ली में लोदी रोड पर इंडिया हबीतात सेंटर है और इसी से चंद कदम की दूरी पर हरिजन कैंप आबाद है। जिस इंडिया हबीतात सेंटर में ग़रीबों और ग़रीबी पर आए दिन सेमीनार होते रहते हैं, वहीं चंद कदम की दूरी पर यह बस्ती उन तमाम लफ्फाजियों को मुंह चिढ़ाती रहती है। मैं इस बस्ती में कल था। लोग बता रहे थे तीन दिन से पानी नहीं आ रहा है। लेकिन लोग उस गुस्से में शिकायत नहीं कर रहे थे, जिसकी उम्मीद की जाती है। चुनाव के मौसम में जब हर वोटर अपनी समस्याएं बताते नहीं थकता है, ऐसे में इस बस्ती में चुनाव कोलाहल से दूर लोग खुद में मस्त नजर आए। खबरों के मामले में टीवी के तमाम घटिया प्रभावों के बावजूद इस बस्ती के लोगों को नहीं मालूम कि इस आम चुनाव में कौन जीतेगा। उनका कहना था कि हमें कल फिर दिहाड़ी पर निकल जाना है, हमें क्या फर्क पड़ेगा, कौन जितेगा और क

दारूल उलूम देवबंद के इस फ़तवे को कूड़ेदान में फेंकें

.. दारूल उलूम देवबंद का ताज़ा फ़तवा कि मुसलमान ऐसे परिवारों में रिश्ता न करें,  जहां  लोग बैंक में काम करते हैं....यह बहुत ही घटिया, ज़ाहिल और रूढ़िवादी सोच है। ऐसे फ़तवों को कूड़ेदान में फेंका जाना चाहिए... क्या दारूलउलूम देवबंद का अब यही काम रह गया है कि वह मुसलमानों को प्रोग्रेसिव सोच की बजाय मध्ययुगीन सोच में ले जाए। ऐसे फ़तवे से पहले दारूल उलूम अपना सामानान्तर बैंकिंग सिस्टम लाए और मुसलमानों को उसे अपनाने को कहे। लेकिन यह उसके बूते की बात नहीं है।  आले सऊद की मदद पर पलने वालों को ऐसे फ़तवे नहीं देने चाहिए ख़ासकर जिस आले सऊद के पैसे अमेरिकी बैंकों में रखे हुए हैं। दारूल उलूम ही एक बार में तीन तलाक़ जैसी कुप्रथा के लिए भी ज़िम्मेदार है। जब उससे हमारे जैसे लोग कह रहे थे कि अहलेबैत के हिसाब से इस्लामी चीज़ों को लागू करो तब उनका जवाब होता था यह तो शरीयत में है लेकिन आज तक उसको साबित नहीं कर सके। उनका यह भी जवाब होता था कि हमारे फ़िरक़े में यह नहीं है। अगर इस्लाम एक है तो आप लोग तीन तलाक को क़ुरान के हिसाब से क्यों नहीं होने देते। मुस्लिम संस्थाओं की ज़िम्मेदारी

मोहर्रम और आज का मुसलमान

इस बार मोहर्रम और दशहरा साथ-साथ पड़े। यानी बुराई के खिलाफ दो पर्व। संस्कृतियों का अंतर होने के बावजूद दोनों पर्वों का मकसद एक ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मोहर्रम बुराई पर अच्छाई की जीत के बावजूद दुख का प्रतीक है, जबकि दशहरा बुराई के प्रतीक रावण को नेस्तोनाबूद किए जाने की वजह से खुशी का प्रतीक है।   कुछ साल पहले ईद और दीवाली आसपास पड़े थे। उसकी सबसे ज्यादा खुशी बाजार ने मनाई थी। कनॉट प्लेस में मेरी जान पहचान वाले एक दुकानदार ने कहा था कि काश, ये त्यौहार हमेशा आसपास पड़ते। मैंने उसकी वजह पूछी तो उसने कहा कि पता नहीं क्यों अच्छा लगता है। बिजनेस तो अच्छा होता ही है लेकिन देश भी एक ही रंग में नजर आता है। ...मैंने दोनों त्यौहारों पर इतना कमा लिया है, जितना मैं सालभर भी नहीं कमा पाता। इस बार दोनों पर्व इस बार ऐसे वक्त में साथ-साथ आए जब पूरी दुनिया हर तरह की बुराई से लड़ने के लिए नया औजार खोज रही है। पुराने कारगर औजार पर या तो उसका यकीन नहीं है या उसकी नजर नहीं है। दशहरा और मोहर्रम धार्मिक होने के बावजूद सांस्कृतिक रंग से सराबोर हैं। दशहरा पर लगने वाले मेलों में जाइए तो आपको वहां हर

मीडिया को बीजेपी की जीत कुछ ज्यादा ही बड़ी नजर आ रही है

आज 19 मई को आए पांच राज्यों के चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि बीजेपी को काफी फायदा हुआ है। असम में उसकी सरकार बन गई है। मीडिया ने कांग्रेस का मरसिया पढ़ दिया है। लेकिन मीडिया अपने खेल से बाज नहीं आ रहा है। उसे बीजेपी की जीत कुछ ज्यादा ही बड़ी नजर आ रही है। हम लोग बहुत जल्द पिछला चुनाव भूल जाते हैं।...बिहार में कुछ महीने पहले जो इतिहास बना था , उसे असम के शोर में दबाने की कोशिश हो रही है। ...मीडिया वाले उस शिद्दत से केरल में कम्युनिस्टों की वापसी का शोर नहीं मचा रहे हैं। जितनी शिद्दत से वो असम केंद्रित चुनाव विश्लेषण को पेश कर रहे हैं। ... ...लेकिन क्या वाकई इसे बीजेपी की ऐतिहासिक जीत करार दिया जाए। क्या वाकई जनता ने कांग्रेस को दफन कर दिया है। लेकिन अगर इन चुनाव नतीजों की गहराई में जाकर देखा जाए तो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कारणों से पब्लिक ने विभिन्न पार्टियों को चुना है। असम की बात पहले करते हैं। असम में लंबे अर्से से कांग्रेस की सरकार थी और तरुण गोगोई के पास कमान थी। लेकिन 10 सालों में कांग्रेस ने इस राज्य में ऐसा ठोस कुछ भी नहीं किया कि जनता उसे तीसरी बार भी मौका देती। अस

बुखारी पर चंद बातें

दो बातें... ठेलना का मतलब जानते हैं...मीडिया यही कर रहा है। खासकर शाही इमाम अहमद बुखारी के मामले में...उनको जबरन ठेल-ठेल कर मुसलमानों का नेता बना दे रही है। कुछ लोगों की रहनुमाई करने का दावा करने वाला शख्स अपने निजी कार्यक्रम में किसी को बुलाए या न बुलाए, उसका निजी मामला है। इसमें मीडिया राजनीति क्यों खोज रहा है। बीजेपी भी मीडिया के सुर में बोल रही है और शाही इमाम को जबरन भारतीय मुसलमानों का नेता बना दे रही है...11 नवंबर से दिल्ली में विश्व हिंदू कॉन्फ्रेंस होने जा रही है...बहुत बड़ा आय़ोजन है। किसी मौलवी या धर्मगुरु को क्यों ऐतराज होना चाहिए कि विश्व हिंदू कॉन्फ्रेंस में उन्हें नहीं बुलाया गया। दूसरी बात... बुखारी ने बड़ी ही चालाकी से देश के मुसलमानों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है कि देखो तुम अब सारी पार्टियों से इतना पिट चुके हो कि अब मुझे अपना नेता मान लो...मैं ही तुम्हारा रहबर (रास्ता दिखाने वाला) हूं। मेरी शरण में आ जाओ। बताइए जिस शख्स ने अपने दामाद को मंत्री बनवाने के लिए समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाया औऱ फिर उन्हें छोड़ दिया...बताइए जिस शख्स पर जामा मस्

आप मानते रहिए मुसलमानों को वोट बैंक

नवभारत टाइम्स में मेरा यह लेख आज (13 मार्च 2012) को प्रकाशित हो चुका है। इस ब्लॉग के नियमित पाठकों के लिए उसे यहां भी पेश किया जा रहा है। लेकिन यहां मैं एक विडियो दे रहा हूं जो मुस्लिम वोटरों से बातचीत के बाद विशेष रिपोर्ट के तौर पर आईबीएन लाइव पर करीब एक महीने पहले दी गई थी। अगर कांग्रेस पार्टी के पॉलिसीमेकर्स ने इसे देखा होता तो शायद वे खुद को सुधार सकते थे.... पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आ चुके हैं। इनमें से यूपी के चुनाव नतीजों पर सबसे ज्यादा बहस हो रही है और उसके केंद्र में हैं मुस्लिम वोटर (Muslim Voter)। मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न को देखते हुए चुनाव अभियान से बहुत पहले और प्रचार के दौरान सभी पार्टियों का फोकस मुस्लिम वोटर ही था।  मुस्लिम वोटों को बांटने के लिए रातोंरात कई मुस्लिम पार्टियां खड़ी कर दी गईं। माहौल ऐसा बनाया गया अगर मुसलमान कांग्रेस, बीएसपी, समाजवादी पार्टी (एसपी) को वोट न देना चाहें तो उसके पास मुस्लिम पार्टियों का विकल्प मौजूद है। हर पार्टी का एक ही अजेंडा था कि या तो मुस्लिम वोट उसकी पार्टी को मिले या फिर वह इतना बंट जाए कि किसी को उसका फायदा न म

पहले फतवा...बाकी बातें बाद में

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भारत में इस्लाम को भी समसामयिक बनाने के प्रयास जारी हैं, लेकिन चर्चा सिर्फ फतवों पर हो रही है उदाहरण नं. 1 - टाइम्स ऑफ इंडिया में 21 जून को एक खबर थी कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की भागीदारी बढ़ी है। उदाहरण नं. 2- नवभारत टाइम्स में 19 जून को खबर छपी कि यूपी मदरसा बोर्ड ने अपने पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए अब अंग्रेजी, हिंदी और कंप्यूटर की पढ़ाई अनिवार्य कर दी है। इन दोनों उदाहरणों में मौजूद खबरें अखबारों में वह जगह नहीं बना सकीं जितनी जगह आम तौर पर फतवे पा लेते हैं। इनके बरक्स पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद (Darul Uloom Deoband) के विवादित फतवों की खबरें तमाम अखबारों में गैरजरूरी जगह पाती रहीं। इन फतवों पर अपनी बाइट देने के लिए टीवी चैनलों पर कुछ स्वयंभू मौलाना-मौलवी और विशेषज्ञ भी रातोंरात पैदा हो गए। अप्रैल और मई महीने में फतवों का ऐसा दौर चला कि लगा जैसे उलेमाओं के पास फतवा देने के अलावा और कोई काम ही नहीं है, हालांकि इस बार मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग इन फतवों पर चल रही बहस को देखकर कसमसा रहा था। बाइट और बतंगड़ हाल ही में सुन्नी मुसलमानों की बरेलवी विचारधा

खुतबों से नहीं शाह फैसल जैसों से करें उम्मीद

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 12 मई 2010 को संपादकीय पेज पर पहले लेख के रूप में प्रकाशित हुआ है। वह लेख संपादित है और इस ब्लॉग पर वही लेख असंपादित रूप में आप लोगों के सामने है। नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेख उसके आनलाइन वेब पोर्टल पर भी उपलब्ध है। वहां पाठकों की प्रतिक्रिया भी आ रही है। - यूसुफ किरमानी बीते शुक्रवार यानी जुमे को अखबारों में पहले पेज पर दो खबरें थीं, एक तो कसाब को फांसी की सजा सुनाई जाने की और दूसरी सिविल सर्विस परीक्षा में आल इंडिया टॉपर शाह फैसल की। आप इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि एक तरफ तो मुसलमान का एक पाकिस्तानी चेहरा है तो दूसरी तरफ भारतीय चेहरा। हर जुमे की नमाज में मस्जिदों में खुतबा पढ़ा जाता है जिसमें तमाम मजहबी बातों के अलावा अगर मौलवी-मौलाना चाहते हैं तो मौजूदा हालात पर भी रोशनी डालते हैं। अक्सर अमेरिका की निंदा के स्वर इन खुतबों से सुनाई देते हैं। उम्मीद थी कि इस बार जुमे को किसी न किसी बड़ी मस्जिद से आम मुसलमान के इन दो चेहरों की तुलना शायद कोई मौलवी या मौलाना करें लेकिन मुस्लिम उलेमा इस मौके को खो बैठे। देश की आजादी के बाद यह चौथा ऐसा मौका है जब किसी म

अदालतें भी तो अपने गिरेबान में झांकें

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क्या वह दिन आने वाला है कि जब अदालतों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा और लोग इसके फैसलों को मनाने से इनकार कर देंगे। क्या भारत की अदालतें भी सांप्रदायिक ध्रवीकरण का शिकार हो रही हैं। इस जैसे ही कुछ और सवाल हैं जो आम आदमी के मन में इस समय कौंध रहे हैं। हाल ही में हुई कुछ घटनाओं के बाद इस तरह के सवाल उठ खड़े हुए हैं। अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में हुए नरसंहार के मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पेश नहीं हुए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले के लिए गठित विशेष जांच कमेटी (सिट) ने उन्हें एक नोटिस भेजकर कमेटी के सामने पूछताछ के लिए उपस्थित होने को कहा था। मोदी सरकार के अधिकारियों ने यह कहकर बचाव किया कि वह नोटिस कोई समन यानी कानूनी नोटिस नहीं था, इसलिए मोदी उसे मानने को बाध्य नहीं हैं। मोदी की बीजेपी पार्टी ने नई दिल्ली में बयान दिया कि जो कानून के मुताबिक होगा, मोदी उस पर चलेंगे। गुजरात में मोदी की रहनुमाई में एक समुदाय विशेष के साथ जो हुआ, उस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कुछ महीनों में ऐसी घटनाओं को पूरा एक दशक हो जाएगा लेकिन कानून तोड़ने वाले खादी पहने अब भी आजाद घूमते नजर आ रहे हैं

इस षड्यंत्र से मुसलमान हो जाएं होशियार

महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पास होने के बाद पूरे देश में तालियां पीटी जा रही हैं। वाजिब भी है, भारत जैसे देश में महिलाओं को यह हक गए-गुजरे देश बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी बाद में मिला है। लेकिन इस सारे शोर में यह बात दबकर रह गई है कि इस बिल के जरिए अल्पसंख्यकों और अन्य जातियों के गरीब तबके को हाशिए पर लाने का षड्यंत्र पर बहुत शानदार तरीके से रचा गया है। कांग्रेस-बीजेपी की मिलीभगत पूरी तरह खुलकर सामने आ गई है, रीढ़ विहीन वामपंथियों की औकात मुसलमानों को आरक्षण और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए पता चल चुकी है। मुसलमानों के लिए राजनीति में भागीदारी अब और भी मुश्किल हो जाएगी। अभी तमाम राजनीतिक दलों में उनकी न तो कोई आवाज है और न ही हैसियत। अगर यह मान भी लिया जाए कि तमाम मुस्लिम महिलाएं अचानक राजनीति में सक्रिय हो जाएंगी और उन्हें उनके घर वाले पूरी छूट दे देंगे तो यह एक खूबसूरत ख्वाब के अलावा और कुछ नहीं होगा। मुसलमानों को तमाम नए समीकरणों पर विचार करना होगा। यह काम कैसे होगा, इसकी शुरुआत कैसे होगी, यह सब बहुत पेचीदा सवाल हैं, जिनका जवाब समय के गर्भ में है। हो सकता है कि कल को कोई अचा

तू मुसलमान है तो क्यों है...

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तमाम वजहों से मुसलमान हर वक्त चर्चा में रहता है लेकिन इन दिनों कुछ ज्यादा चर्चा में है। कभी किसी ब्लॉग पर तो कभी किसी अखबार में। लगता है कि इस समय देश का सबसे जरूरी काम मुसलमानों पर चर्चा करना ही रह गया है। तो मैं भला पीछे क्यों रहूं। मैं अपने इस ब्लॉग पर इस चर्चा को जानबूझकर कर रहा हूं। पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों पर फिल्म अभिनेता शाहरुख खान की टिप्पणी के बाद उनकी फिल्म माई नेम इज खान का शिवसेना के गुंडों ने जिस तरह से विरोध की कोशिश की, उसे इस देश के लोगों ने अपने ही ढंग से जवाब देकर उनकी कोशिश को तार-तार कर दिया। हालांकि शिवसेना के लोग यह जाने बिना विरोध कर रहे थे कि हो सकता है कि यह शाहरुख की अपनी फिल्म को सफल बनाने के लिए की गई चालाकी हो, क्योंकि मुझसे निजी बातचीत में तमाम मुस्लिम लोगों ने कहा कि यह सब शाहरुख की चालाकी थी, जिसमें शिवसेना पस्त हो गई। लेकिन मैं शाहरुख पर कोई शक किए बिना इस बात को आगे बढ़ाना चाहता हूं। इस देश में कट्टरवाद के पोषक एक खास किस्म के तालिबानियों (मैं यहां किसी धर्म विशेष का नाम नहीं ले रहा हूं, आप समझदार हैं) ने जो माहौल बना दिया है, उसमें आम मुसलमान क्

परदे को अब और न खीचों मौलवी साहब

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मुस्लिम महिलाओं का फोटो मतदाता सूची में हो या न हो, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बहुत साफ शब्दों में तस्वीर साफ कर दी है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से तमाम भारतीय मुस्लिम संगठनों, मौलवियों, विद्वानों ने सहमति जताई है लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों ने शरीयत और कुरान को लेकर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। साल-दर-साल से और हर साल कोई न कोई ऐसा मुद्दा आता है जब शरीयत को लेकर बहस छिड़ जाती है और मुसलमानों की बहुसंख्यक आबादी खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाती है। अभी मदुरै के जिन सज्जन की याचिका पर पर्दानशीं महिलाओं की फोटो को लेकर सुप्रीम कोर्ट को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, उसकी नौबत जानबूझकर पैदा की गई। हालांकि इस तरह के मसलों पर अदालत को तो कायदे से याचिका ही नहीं स्वीकार करनी चाहिए। आम मुस्लिम जनमानस क्या सोचता है, इसको जानने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती। जुमे की नमाज में एकत्र नमाजियों की तादाद से गदगद मुस्लिम उलेमा या राजनीतिक दल इस जनमानस का मन नहीं पढ़ पाते। अगर अभी कोई मुस्लिम या गैरमुस्लिम संगठन सर्वे करा ले तो पता चल जाएगा कि मुसलमानों की एक बहुत बड़ी आबादी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत है। एक

क्या हो आज के मुसलमान की दिशा

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भारतीय मुसलमानों की दशा और दिशा क्या हो, इसे लेकर तमाम बहसें चलती रहती हैं। भारतीय मुसलमानों के नए-नए स्वयंभू नेता भी रोजाना पैदा होते हैं और खुद को चमकाने के बाद वे परिदृश्य से गायब हो जाते हैं। देश के जाने-माने पत्रकार एम.जे. अकबर ने रविवार को पटना में एक व्याख्यानमाला के तहत दिए गए लेक्चर में मुसलमानों को लेकर कुछ बातें रखी हैं। मैं समझता हूं कि अकबर साहब ने जितनी सटीक और व्यावहारिक बातें कहीं हैं, वे मौजूदा पीढ़ी के मुसलमानों को भी जाननी चाहिए। हालांकि अकबर साहब ने आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कुछ नहीं बोला लेकिन जो बोला है, वह व्यावहारिक है। आइए जानते हैं कि दरअसल उन्होंने कहा क्या है... प्रख्यात पत्रकार और लेखक एम. जे. अकबर ने कहा कि देश के मुसलामानों को सुरक्षा का भय दिखाने वालों को नहीं बल्कि उनके विकस की बात करने वालों के पक्ष में अपना मत देना चाहिए। पटना में बिहार इंडस्ट्रीज एसोसियशन हॉल में आयोजित शाह मुश्ताक अहमद स्मृति व्याख्यान माला आर्थिक विकास एवं वंचित वर्ग पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अकबर ने कहा कि देश के मुसलामानों को सुरक्षा का भय दिखाने वाले को नहीं बल्कि उनके विकास क