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अभी बैराग लेकर क्या करेंगे......पौराणिक पृष्ठभूमि पर हिन्दी ग़ज़ल

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 पौराणिक पृष्ठभूमि पर ग़ज़ल  पौराणिक पृष्ठभूमि पर कविता, ग़ज़ल, नज़्म लिखना आसान नहीं होता। और उर्दू पृष्ठभूमि का कोई रचनाकार अगर हिन्दू पौराणिक कहानियों को अपनी ग़ज़ल के साँचे में ढालता है तो ऐसी कविता या ग़ज़ल और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हिन्दी कविता जगत तमाम खेमेबंदियों में उलझा हुआ है। उसे यह देखने, समेटने की फ़ुरसत ही नहीं है कि कवियों, ग़ज़लकारों की जो नई पीढ़ी आ रही है, उसके लेखन को कैसे तरतीब दी जाए या बढ़ाया जाए। हिन्दी की नामी गिरामी पत्रिकाएँ भी सही भूमिका नहीं निभा पा रही हैं।  फहमीना अली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की शोध छात्रा हैं। उनकी ग़ज़ल और कविताओं का आधार अक्सर हिन्दू पौराणिक कहानियाँ होती हैं। यह ग़ज़ल - अभी बैराग लेकर क्या करेंगे - फहमीना अली की ताज़ा रचना है। हिन्दीवाणी पर इसका प्रकाशन इस मक़सद से किया जा रहा है कि हिन्दी वालों को मुस्लिम पौराणिक कहानियों पर कविता, ग़ज़ल लिखने की प्रेरणा मिलेगी। उर्दू स्कॉलर होने के बावजूद फहमीना अली ने हिन्दू पौराणिक कथाओं को अपने साहित्य का हिस्सा बनाने की जो कोशिश की है, उसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस ग़जल में रदीफ-काफ

वे वहां गए ही क्यों थे

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जितनी मुंह उतनी बातें वे वहां सोए ही क्यों थे क्या वे सामूहिक आत्महत्या करने गए थे वे वहां गए ही क्यों थे क्या वे वहां रेलगाड़ियां ही रोकने गए थे आखिर उन मजदूरो का इरादा क्या था इसमें सरकार का क्या आखिर वे उसी शहर में रुक क्यों नहीं गए शहर दर शहर 24 मार्च से ही लौट रहे हैं वे लोग सबसे पहले दिल्ली-यूपी सीमा पर दिखी थी भीड़ तब भी हुआ था कुछ बसों का इंतजाम अब भी हुआ है कुछ बसों का इंतजाम लेकिन वे तो 8 मई तक भी चले ही जा रहे हैं क्यों नहीं खत्म हो रही उनकी अनवरत यात्रा जहां वो हैं वहां वो आम ट्रेन भी नहीं है जहां वो नहीं है वहां विशेष ट्रेन खड़ी है शोक संदेश आ गया है, व्यवस्था को कह दिया है वीडियो कॉन्फ्रेंस हो गई है, जांच को बोल दिया है तानाशाह के चमचे कान में फुसफुसाते हैं रेल लाइन पर पड़ी रोटियां न दिखाएं प्लीज वे वहां सोए ही क्यों वाला नैरेटिव बेहतर है वे वहां गए ही क्यों तो उससे बेहतर हेडिंग है प्राइम टाइम जोरदार है, विपक्ष से सवाल लगातार है घ

कविता : तुम अभी याद नहीं आओगे

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तुम अभी याद नहीं आओगे जब मुश्किल तुम पर आई है जब तुम्हारे जाने की बारी आई है तुम अभी याद नहीं आओगे तुम तब याद आओगे जब हम मुश्किल में आ जाएंगे जब जीने के लाले पड़ जाएंगे जब सेठ को याद आएगा घर बनवाना जब पानी लीक करेगा नल पुराना जब दीवारों पर सीलन आ जाएगी जब फर्नीचर बनवाने की बारी आएगी जब धूल मिट्टी बस जाएगी घर के कोने-कोने कपड़े और बर्तन पर गंदगी हो जाएगी जमा होने तुम तब याद आआगे तुम तब याद आओगे जब गाड़ी दौड़ते-दौड़ते ठहर जाएगी जब मोटे टायरों पर कील धंस जाएगी जब पैर थक जाएंगे चलते चलते जब आंखें थक जाएंगी रिक्शा तकते जब कोई बाइक से होम डिलिवरी नहीं करेगा जब दुकान से भार खुद उठाना पड़ेगा जब हरी सब्जी के लिए दिल तरस जाएगा जब घर का गार्डन जंगली घास से भर जाएगा तुम तब याद आओगे अभी तो हमने  अपनी आंखें, अपनी आत्मा क्वारंटाइन कर ली है अभी तो मास्क ने हमारी बोली बंद कर दी है अभी कैसे याद कर लें तुम्हें अभी तो अमीरों की जान एक बीमारी ने जकड़ ली है अभी तुम्हारे आंसू, तुम्हारा दर्द तुम्हारा झोला, तुम्हारी दूरियां

शाहीनबाग़ पर प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा से बातचीत

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आलोक धन्वा की कविता - फर्क

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शाहीनबाग का गणतंत्र...

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गणतंत्र क्या है... इसे बेहतर ढंग से दिल्ली के शाहीन बाग ने आज समझाया... मजमा...कोई गणतंत्र नहीं है जो कभी राजपथ पर तो कभी लाल किले की प्राचीर के सामने लगाया जाता है... मजमा...तमाम सुरक्षा घेरे में, तमाम सुरक्षाकर्मियों को सादे कपड़ों में बैठाकर नहीं लगाया जा सकता... मजमा...जो शाहीन बाग में स्वतः स्फूर्त है...नेचुरल है... मजमा...जो एक तानाशाह खास कपड़े वालों में देखता है... मजमा ...जो कोई इवेंट मैनेजमेंट कंपनी नहीं लगा सकती... मजमा...जो तानाशाह का न्यू यॉर्क में पैसे देकर कराया हाउडी इवेंट नहीं है... मजमा...जो किसी सरकारी फिल्मी गीतकार का बयान नहीं है जो उसे किसी तानाशाह में फकीरी के रूप में दिखता है... मजमा...जो किसी सरकारी फिल्मी हीरो का जुमला नहीं है जो तानाशाह के आम खाने के ढंग के रूप में देखता है... मजमा...जो उस लंपट तड़ीपार सरगना का ख्वाब है जिसे वह अपने भक्तों में तलाशता है... -यूसुफ़ किरमानी #AntiUrbanNaziDay #HappyRepublicDay #SaveConstitutionSaveIndia #ShaheenbaghRepublic #ShaheenBagh #RejectCAA #RejectNPR #RejectNR

मुस्तजाब की कविता ः सब कुछ धुंधला नजर आ रहा है

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मुस्तजाब की कविताएं हिंदीवाणी पर आप लोग पहले भी पढ़ चुके हैं...पेश है उनकी नवीनतम कविता सब धुंधला नजर आ रहा है .............................. ............ सब धुंधला नजर आ रहा है सच, झूठ, तारीख, तथ्य किसे मानें, रह गया है क्या सत्य सलाखें बन गए हैं मस्तिष्क हमारे अंदर ही घुट घुट कर सड़ रहे हैं लोग बेचारे एक कतार में हम सब अटक गए हैं समझ रहे हैं राह है सही, मगर भटक गए हैं जो कहता है अंध बहुमत उसे मान लेते हैं चाहे झूठ हो, संग चलने की ठान लेते हैं क्या हुआ जो लोग मर रहे हैं आजादी के पीर सलाखों में सड़ रहे हैं कहने पर रोक है, अंधा हो गया कोर्ट है डरपोक सब ठंडी हवा में बैठे हैं कातिल संसद में टिका बैठे हैं सच्चे तो खैर आजादी ही गवां बैठे हैं मगर हमें क्या हम तो धुंधलेपन के मुरीद हैं धरम तक ही रह गई साली सारी भीड़ है और इसी धुंधलेपन का फायदा मसनदखोर उठा रहा है हम अंधे हो रहे हैं वो हमारा देश जला रहा है - मुस्तजाब मुस्तजाब की कुछ कविताओं के लिंक - http://www.hindivani.in/2017/12/blog-post.html http://www.hindivani.in/2019/02/blog-post_16.html

एक कविता शहीदों के नाम...

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मैं उस देश का वासी हूँ...

जी हाँ, मैं उस देश का वासी हूँ... जिस देश में इंसाफ़ सुप्रीम कोर्ट के कॉरिडोर में रौंदा जा रहा हो... जिस देश का चीफ़ जस्टिस तिरंगे पर बार बार फ़ैसला पलटता हो... जिस देश में मीडिया सत्ता की कदमबोसी कर रहा हो... जिस देश का मीडिया मसले जाने से पहले सरेंडर कर रहा हो... जिस देश में मुख्यमंत्री को अपने ही मुक़दमे वापस लेने की छूट हो... जिस देश में मुख्यमंत्री को जासूसी और नरसंहार  की छूट हो... जिस देश में सेना के जनरलों को राजनीतिक बयानों की छूट हो... जिस देश में सेना के जनरलों को राजनीति में आने की छूट हो... जिस देश में जंतरमंतर पर प्रदर्शन की आज़ादी छीन ली गई हो... जिस देश में किसी विकलांग का जनविरोध देशद्रोह होता हो ... जिस देश में भात न मिलने पर कोई बच्ची दम तोड़ देती हो... जिस देश में ग़रीब को बच्चे की लाश ख़ुद ढोना पड़ती हो... जिस देश में दलित और आदिवासी शहरी नक्सली कहलाते हों... जिस देश में किसान क़र्ज़ न चुकाने पर आत्महत्या करते हों... जिस देश में बैंकों और जनता का पैसा लेकर भागने की छूट हो... जिस देश में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने

शंभू – रसूल संवाद-ए-राजस्थान

कल मुझे जब नींद आई बदलते ही करवट पर देखा तब ख्वाब मैंने शंभू रोते हैं खड़े पर्वत पर हिमालय की ऊंची चोटी पर तंग पड़ी फिर बारिश ऐसी बोले शंभू, क्या बतलाऊं एक जाहिल ने रची है साजिश ऐसी कि गुस्सा है मुझे, मेरे मन में आग उठती है ऐसा जुल्म हुआ है कि कराहट की आह उठती है गुजर उसी दम हुआ वहीं से रसूले खुदा का देखा महादेव को तो किया सलाम दो जहां का बोले शंभू, आवाज भारी किए, नमन हो ऐ रसूल हक में आपके मेरा आदर हो कुबूल परेशान देख हाल उनका, फिर मोहम्मद ने फरमाया ऐ देवों के देव, क्यूं है तुम्हारी आवाज में गम समाया बोले शंभू, ऐ रहबर-ए-हक, हक से बयां करो पाक दहन से अपने सच को रवां करो देखा तुमने, क्या किया धरती पर उस जालिम ने आज कत्ल किया, जलाया, एक नातवां-ओ-बेकस को आज दुख है मुझे की मेरा नाम लिये वो जालिम बैठा है उम्मत का तुम्हारी निशां मिटा देगा, ऐसा वो कहता है बोले रसूल, ऐ शंभू जमीन की तो रोज यही कहानी है इंसान ने कत्ल ओ जुल्म करने की जो ठानी है आज नाम तुम्हारा है तो कल फिर मेरा होगा अंधेरा ही अंधेरा है, देखो कब सवेरा होगा खैर, दुआ करो कि बची

महिलाओं पर अत्याचार को बतातीं 4 कविताएं

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ये हैं परितोष कुमार  'पीयूष' जो बिहार में जिला मुंगेर के जमालपुर निवासी है। हिंदीवाणी पर पहली बार पेश उनकी कविताएं नारीवाद से ओतप्रोत हैं। ...लेकिन उनका नारीवाद किसी रोमांस या महिला के नख-शिख का वर्णन नहीं है।...बल्कि समाज में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार पर उनकी पैनी नजर है। गांव के पंचायत से लेकर शहरों में महिला अपराध की कहानियां या समाचार उनकी कविता की संवेदना का हिस्सा बन जाते हैं।...उनकी चार कविताओं में ...आखिर मैं पीएचडी नहीं कर पायी...मुझे बेहद पसंद है। बीएससी (फिजिक्स) तक पढ़े परितोष की रचनाएं तमाम साहित्य पत्र-पत्रिकाओं में, काव्य संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह फिलहाल अध्ययन व स्वतंत्र लेखन में जुटे हुए हैं। ठगी जाती हो तुम ! पहले वे परखते हैं तुम्हारे भोलेपन को तौलते हैं तुम्हारी अल्हड़ता नांपते हैं तुम्हारे भीतर संवेदनाओं की गहराई फिर रचते हैं प्रेम का ढोंग फेंकते है पासा साजिश का दिखाते हैं तुम्हें आसमानी सुनहरे सपने जबतक तुम जान पाती हो उनका सच उनकी साजिश वहशी नीयत के बारे में वे तुम्हारी इजाजत से टटोलते हुए तुम्हारे वक्षों की

नागपुर फिसल रहा है...

जरा सा #रेलकिराया क्या बढ़ा दिया...पों-पों करके चिल्लाने लगे... जरा सी #दालमहंगी हो गई तो नाबदान के कीड़े बिलबिलाने लगे... जीवन में थोड़ा फेलेक्सी होना सीखिए...देश बदल रहा है अब छाती पर कोल्हू चलाएंगे...क्योंकि #नागपुर फिसल रहा है ...वोट जो तुमने दिया है, उस #इश्क के इम्तेहां तो अभी बाकी है... ....तीन साल और रगड़ेंगे, भर दे पैमाना तू ही तो मेरा साकी है टूटी सड़कों पर #स्मार्टसिटी खड़े कर दिए... रेगिस्तान में भी #हवामहल खड़े कर दिए... #जातिवाद के मुकाबले को #गऊमाता लाए... मुफ्त सिम के लिए #डिजिटलइंडिया लाए... पूंजीवादी #राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ी मैंने लिखी वो ग़ज़ल जो #गुलज़ार ने भी पढ़ी तेरे पास अगर बलूचिस्तान और #पाकिस्तान है झांक गिरेबां में अपने, मेरे पास पूरा #हिंदुस्तान है नोट - गंभीर हिंदी साहित्य पढ़ने वाले कृपया इसमें कविता न तलाशेंः यूसुफ किरमानी