शंभू – रसूल संवाद-ए-राजस्थान


कल मुझे जब नींद आई बदलते ही करवट पर
देखा तब ख्वाब मैंने शंभू रोते हैं खड़े पर्वत पर
हिमालय की ऊंची चोटी पर तंग पड़ी फिर बारिश ऐसी
बोले शंभू, क्या बतलाऊं एक जाहिल ने रची है साजिश ऐसी
कि गुस्सा है मुझे, मेरे मन में आग उठती है
ऐसा जुल्म हुआ है कि कराहट की आह उठती है

गुजर उसी दम हुआ वहीं से रसूले खुदा का
देखा महादेव को तो किया सलाम दो जहां का
बोले शंभू, आवाज भारी किए, नमन हो ऐ रसूल
हक में आपके मेरा आदर हो कुबूल

परेशान देख हाल उनका, फिर मोहम्मद ने फरमाया
ऐ देवों के देव, क्यूं है तुम्हारी आवाज में गम समाया
बोले शंभू, ऐ रहबर-ए-हक, हक से बयां करो
पाक दहन से अपने सच को रवां करो
देखा तुमने, क्या किया धरती पर उस जालिम ने आज
कत्ल किया, जलाया, एक नातवां-ओ-बेकस को आज
दुख है मुझे की मेरा नाम लिये वो जालिम बैठा है
उम्मत का तुम्हारी निशां मिटा देगा, ऐसा वो कहता है

बोले रसूल, ऐ शंभू जमीन की तो रोज यही कहानी है
इंसान ने कत्ल ओ जुल्म करने की जो ठानी है
आज नाम तुम्हारा है तो कल फिर मेरा होगा
अंधेरा ही अंधेरा है, देखो कब सवेरा होगा

खैर, दुआ करो कि बची रहे थोड़ी जो इंसानियत बाकी है
सहारे के लिए इंसान के यही इक लाठी काफी है
फिर कहा रसूल ने, अच्छा सुनो, मुआयन-ए-जहां पर निकला हूं साथ चलोगे
हिजरत है मेरी, क्या तुम भी साथ चलोगे

महादेव ने बड़े एहतराम से ये बात की कुबूल
फिर साथ हो लिए कहीं बादलों में शंभू और रसूल
मैं देखता रहा, सोचा की शायद है मेरी आंखों की भूल
दरम्यां इनके क्यूं न उड़ी मजहब की गर्द-ओ-धूल

मुस्तेजाब फिर लगा कि मेरे मन में ही घृणा है शायद
झूठी हैं, झूठी हैं पृथ्वी के लोगों की रवायत
कोई भी अलग नहीं, कोई भी जुदा नहीं तुमसे

सब एक हैं, ये सारा जहां है हमसे

-मुस्तेजाब (राजस्थान के राजसमंद में एक मजदूर की निर्मम हत्या पर लिखी गई कविता)




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