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भारत में इस्लाम को भी समसामयिक बनाने के प्रयास जारी हैं, लेकिन चर्चा सिर्फ फतवों पर हो रही है उदाहरण नं. 1 - टाइम्स ऑफ इंडिया में 21 जून को एक खबर थी कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की भागीदारी बढ़ी है। उदाहरण नं. 2- नवभारत टाइम्स में 19 जून को खबर छपी कि यूपी मदरसा बोर्ड ने अपने पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए अब अंग्रेजी, हिंदी और कंप्यूटर की पढ़ाई अनिवार्य कर दी है। इन दोनों उदाहरणों में मौजूद खबरें अखबारों में वह जगह नहीं बना सकीं जितनी जगह आम तौर पर फतवे पा लेते हैं। इनके बरक्स पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद (Darul Uloom Deoband) के विवादित फतवों की खबरें तमाम अखबारों में गैरजरूरी जगह पाती रहीं। इन फतवों पर अपनी बाइट देने के लिए टीवी चैनलों पर कुछ स्वयंभू मौलाना-मौलवी और विशेषज्ञ भी रातोंरात पैदा हो गए। अप्रैल और मई महीने में फतवों का ऐसा दौर चला कि लगा जैसे उलेमाओं के पास फतवा देने के अलावा और कोई काम ही नहीं है, हालांकि इस बार मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग इन फतवों पर चल रही बहस को देखकर कसमसा रहा था। बाइट और बतंगड़ हाल ही में सुन्नी मुसलमानों की बरेलवी विचारधा