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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राहुल तोड़ दो इस सिस्टम को

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राहुल गांधी के बारे में आपकी क्या राय है...शायद यही कि वह मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं और एक ऐसे खानदान से हैं, जिसके अनुकूल सारी परिस्थितियां हैं। उनकी मॉम देश की सत्ता को नेपथ्य से चला रही हैं। उनके आसपास जो कोटरी है वह राहुल को स्थापित करने में जुटी हुई हैं। पर, जनाब अगर आपकी दिलचस्पी भारतीय राजनीति में जरा भी है तो अपनी राय बदलिए। यह कोई जबर्दस्ती नहीं है लेकिन हां, कल आप अपनी राय जरूर बदलेंगे। भारतीय राजनीति ( Indian Politics ) में होने जा रहे इस बदलाव का मैं चश्मदीद गवाह हूं। इन लम्हों के लिए मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं। जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तो स्व. राजेंद्र माथुर सीख देते थे कि अगर भारत में पत्रकारिता करनी है तो भारत-पाकिस्तान बंटवारे से लेकर इंदिरा गांधी शासनकाल तक के घटनाक्रम को गहराई और बारीकी से जानना और समझना जरूरी है।...और आज जबकि भारतीय राजनीति में नेहरू के बाद स्टेट्समैन ( Statesman ) का खिताब पाने वाले अटलबिहारी वाजपेयी सीन से हट चुके हैं, आडवाणी की विदाई नजदीक है, मनमोहन सिंह की अंतिम पारी चल रही है और ऐसे में देश की दो महत्वपूर्ण पार्टियों

मेरे जूते की आवाज सुनो

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इराक के पत्रकार मुंतजर अल-जैदी ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जब पिछले साल जूता फेंका था तो पूरी दुनिया में इस बात पर बहस हुई कि क्या किसी पत्रकार को इस तरह की हरकत करनी चाहिए। उसके बाद ऐसी ही एक घटना भारत में भी हुई। यह बहस बढ़ती चली गई। बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अभी हाल ही में जेल से छूटे हैं। जेल से छूटने के बाद यह पहला लेख उन्होंने लिखा, जिसे हिंदी में पहली बार किसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है कि इस लेख से और नई बहस की शुरुआत होगी... मैंने बुश पर जूता क्यों फेंका -मुंतजर अल-जैदी अनुवाद – यूसुफ किरमानी मैं कोई हीरो (Hero) नहीं हूं। मैंने निर्दोष इराकियों का कत्ले-आम और उनकी पीड़ा को सामने से देखा है। आज मैं आजाद हूं लेकिन मेरा देश अब भी युद्ध के आगोश में कैद है। जिस आदमी ने बुश पर जूता फेंका, उसके बारे में तमाम बातें की जा रही हैं और कही जा रही हैं, कोई उसे हीरो बता रहा है तो कोई उसके एक्शन के बारे में बात कर रहा है और इसे एक तरह के विरोध का प्रतीक मान लिया गया है। लेकिन मैं इन सारी बातों का बहुत आसान सा जवाब देना चाहता हूं और बताना चाहता हूं

आर्थिक मंदी में ईद मुबारक

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इस कविता के जरिए मैं आप सभी को तमाम किंतु-परंतु के साथ ईद, नवरात्र और विजय दशमी की मुबारकबाद देना चाहता हूं। आर्थिक मंदी के इस दौर में महंगाई और बेरोजगारी के अंधकार में पेशेवर पत्रकारिता के बाजारवाद में कुछ रंगे सियारों से संघर्ष के फेर में मुट्ठी भर आतंकवादियों की हरकतों के बीच में भगवा ब्रिगेड की विष वमन की पॉलिटिक्स में मोदी मार्का जिनोसाइड के खेल में पर, प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग से निजात में और हां, अमेरिकी कुटिल चालों के जाल में मासूम फिलिस्तीनी बच्चों की सिसकारी में और कुल मिलाकर मैडम सोनिया व मनमोहन की सदारत में आपको ईद मुबारक हो

मां की कहानी...कुछ कहना है उनका

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मां मुझे भी एक कहानी सुनाओ ...पर एनजीओ उदय फाउंडेशन ने कुछ ऐतराज उठाया है। हालांकि उन्होंने यह ऐतराज फोन पर किया है और लिखकर संक्षेप में जो भेजा है उसमें यह नहीं बताया कि दरअसल उन्हें ऐतराज किस बात पर है। पहले तो उनका पत्र पढ़ें जो उन्होंने लिखा है और नीचे उससे जुड़े लिंक भी देखें... Dear Sir It is really shocking that how come a senior journalist like you can write some thing without going through the correct facts. It doest matter that it was published any paper or not . What really matter is hurting a sentiments of grass roots workers like us. As u asked today to sent you any news item where govt hospital details are being mentioned. Warm Regards Rahul Verma Founder The Uday Foundation पहली बात यह बता दूं कि वह लेख उदय फाउंडेशन (Uday Foundation) के खिलाफ नहीं था। उसमें मैंने एक मुद्दा उठाया था कि आखिर क्यों तमाम एनजीओ (NGO) प्राइवेट अस्पतालों में ही अपनी सारी गतिविधियां चलाते हैं। उन्हें सरकारी अस्पताल क्यों नहीं दिखाई पड़ते, जहां आम आदमी सबसे ज्यादा पहुंचता है। कुल मिलाकर यही मुद्द

क्या होगा इन कविताओं से

उन्हें मैं करीब एक दशक से जानता हूं। आजतक मिला नहीं लेकिन यूपी के एक बड़े नामी और ईमानदार आईएएस अफसर हरदेव सिंह से जब उनकी तारीफ सुनी तो जेहन में यह बात कहीं महफूज रही कि इस शख्स से एक बार मिलना चाहिए। उनका नाम है प्रो. शैलेश जैदी। वह पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हिंदी के विभागाध्यक्ष भी रहे। हरदेव सिंह ने भी यही बताया था कि शैलेश साहब हिंदी के वाकई बड़े विद्वान हैं। मेरी मुलाकात उनसे अब तक नहीं हुई। अभी जब दिलीप मंडल ने इशरतजहां पर नीचे वाली कविता इस ब्लॉग हिंदी वाणी के लिए लिखी तो प्रतिक्रिया में उन्हीं प्रो. शैलेश जैदी ने एक कविता भेजी है। जिसे मैं इस ब्लॉग के पाठकों और मित्रों के लिए पेश कर रहा हूं - क्या होगा इन कविताओं से कितने हैं दिलीप मन्डल जैसे लोग ? और क्या होता है इन कविताओं से ? आंसू भी तो नहीं पोंछ पातीं ये एक माँ के। अप्रत्यक्ष चोटें व्यंग्य तो कहला सकती हैं, पर गर्म लोहे के लिए हथौडा नहीं बन सकतीं । इसलिए कि गर्म लोहा अब है भी कहाँ अब तो हम ठंडे लोहे की तरह जीते हैं और गर्म सांसें उगलते हैं। हरिजन गाथा की बात और थी वह किसी इशरत जहाँ पर लिखी गयी कविता नहीं थी, इश

माफी तो मांगनी चाहिए

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-दिलीप मंडल इशरत जहां केस के कवरेज के लिए नहीं तो अपनी भाषा के लिए, अपनी अनीति के लिए। मुकदमे का फैसला होने तक अभियुक्त लिखा जाता है अपराधी नहीं हम सब जानते हैं पत्रकारिता के स्कूलों यही तो पढ़ते हैं। लेकिन हममें उतना धैर्य कहां मुठभेड़ में मरने वालो को आंतकवादी कहने में देर कहां लगाते हैं हम? मुठभेड़ कई बार फर्जी होती है, पुलिस जानती है कोर्ट बताती है, हम भी जानते हैं, लेकिन हमारे पास उतना वक्त कहां हमें न्यूज ब्रेक करनी होती है सनसनीखेज हेडलाइन लगानी होती है वक्त कहां कि सच और झूठ का इंतजार करें। फर्जी और असली की मीमांसा करने की न हममें इच्छा होती है और न ही उतनी मोहलत और न जरूरत। इसलिए हम हर मुठभेड़ को असली मानते हैं फर्जी साबित होने तक। हम इशरत की मां से माफी नहीं मांग सकते मजिस्ट्रेट की जांच में ये साबित होने के बाद भी कि वो मुठभेड़ फर्जी थी। हम इससे कोई सबक नहीं सीखेंगे अगली मुठभेड़ को भी हम असली मुठभेड़ ही मानेंगे मरने वालों को आतंकवादी ही कहेंगे क्योंकि पुलिस ऐसा कहती है। मरने वालों के परिवार वालों की बात सुनने का धैर्य हममें कहां, पुलिस को नाराज करके क्राइम रिपोर्टिंग चलती है

आतंकवादी की मां

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ब्रेकिंग न्यूज...वह आतंकवादी की मां है, उसकी लड़की लश्कर-ए-तैबा से जुड़ी हुई थी। उसका भाई भी लश्कर से ही जुड़ा मालूम होता है। इन लोगों ने लश्कर का एक स्लीपर सेल बना रखा था। इनके इरादे खतरनाक थे। ये लोग भारत को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते थे। यह लोग आतंकवाद को कुचलने वाले मसीहा नरेंद्र मोदी की हत्या करने निकले थे लेकिन इससे पहले गुजरात पुलिस ने इनका काम तमाम कर दिया। कुछ इस तरह की खबरें काफी अर्से बाद हमें मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। अर्से बाद पता चलता है कि सरकारी एजेंसियों ने मीडिया का किस तरह इस्तेमाल किया था। आम लोग जब कहते हैं कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है तो हमारे जैसे लोग जो इस पेशे का हिस्सा हैं, उन्हें तिलमिलाहट होती है। लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए। अगर आज मीडिया की जवाबदेही (Accountability of Media ) पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो यह ठीक हैं और इसका सामना किया जाना चाहिए। मीडिया की जो नई पीढ़ी इस पेशे में एक शेप ले रही है और आने वाले वक्त में काफी बड़ी जमात आने वाली है, उन्हें शायद ऐसे सवालों का जवाब कुछ ज्यादा देना पड़ेगा। गुजरात में हुए फर्जी एनकाउंटर (Fake Encounter) की खबर

मां, मुझे भी एक कहानी सुनाओ

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क्या आप किसी ऐसे सरकारी अस्पताल को जानते हैं जहां दाखिल बीमार बच्चे को कोई कहानी सुनाने आता हो। आपका जवाब शायद नहीं में होगा। इसका मुझे यकीन है। क्योंकि कहानी सुनाने वाले सिर्फ महंगे या यूं कहें कि फाइव स्टार टाइप अस्पतालों (Five star hospitals) में जाते हैं। अपने देश यह चलन अभी हाल ही में शुरू हुआ है, विदेशों में पहले से है। बीमार बच्चों को अस्पताल में जाकर कहानी इसलिए सुनाई जाती है कि वे उस मानसिक स्थिति से उबर सकें जिसके वे शिकार हैं और उनके इर्द-गिर्द फैले अस्पताल के बोझिल वातावरण में वह थोड़ा सुकून महसूस कर सकें। बचपन में मां, दादी, नानी के जिम्मे यह काम होता था या फिर उनके जिम्मे जो बच्चों को पालती थीं जिन्हें धाय मां कहा गया है और मौजूदा वक्त में उन्हें आया कहा जाने लगा है। मौजूदा वक्त की आयाएं पता नहीं बच्चों को कहानी सुनाती हैं या नहीं लेकिन तमाम मांओं, दादियों और नानियों को यह जिम्मेदारी पूरी करते हम लोगों ने देखा है। लेकिन दौर न्यूक्लियर परिवारों (Nuclear families ) का है तो ऐसे में किसी के पास कहानी सुनाने की फुरसत नहीं है। आईटी युग (IT era) में जब कदम-कदम पर हर कोई प्रोफेश

भगवान आप किसके साथ हैं

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भगवान जी बहुत मुश्किल में हैं कि आखिर वह एक कॉरपोरेट घराने (corporate house) की आपसी लड़ाई में किसका साथ दें। मुकेश अंबानी को आशीर्वाद दें या फिर छोटे अनिल अंबानी को तथास्तु बोलें। भगवान इतनी मुश्किल में कभी नहीं पड़े। भगवान करें भी तो क्या करें... अनिल अंबानी इस समय देश के सबसे पूजनीय स्थलों पुरी, सिद्धि विनायक मंदिर और गुजरात के कुछ मंदिरों की शरण में हैं। वह इस समय लगभग हर पहुंचे हुए मंदिर की घंटी बजा रहे हैं। इस यात्रा में वह अकेले नहीं हैं, उनके साथ उनकी मां कोकिला बेन और बहन व बहनोई भी साथ हैं। बड़े भाई मुकेश अंबानी के साथ चल रही उनकी कॉरपोरेट वॉर (corporate war) में वह भगवान जी से समर्थन मांग रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हो रही है और अनिल चाहते हैं कि कोर्ट उनके हक में फैसला सुनाए। सगे भाई का अहित हो। इतिहास (history) में मैंने और आप सब ने पढ़ा है कि किस तरह मुगल पीरियड में गद्दी हथियाने के लिए भाई ने भाई का कत्ल करा दिया या बेटे ने बाप को जेल में डाल दिया। ठीक ऐसा ही कुछ अब देखने को मिल रहा है जिसमें सिर्फ दो भाइयों की ही लड़ाई नहीं बल्कि भारत सरकार भी लंबी-लंब