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कौन हैं क़ासिम सुलेमानी...एक किसान के बेटे का सैन्य सफ़र

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क़ासिम सुलेमानी अमेरिका और इस्राइल के मोस्ट वॉन्टेड की सूची में शामिल थे। ईरान इस जांबाज की शहादत को कभी भुला नहीं सकेगा। ईरान की मुख्य आर्मी ईरानी रिवोल्यू़नरी गार्ड्स (आईआरजीसी) का चीफ़ होने के बावजूद वह ईरान के सबसे प्रभावशाली शख़्स थे। ईरान में हाल ही में कराए गए एक सर्वे में वह वहाँ के राष्ट्रपति से भी आगे थे। उन्हें ईरान के अगले राष्ट्रपति के रूप में लाने का फैसला भी हो गया था। ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह खामनेई  की रणनीतिक बैठकों में लिए गए फ़ैसले के  ज़्यादातर आदेश उन्हीं के ज़रिए जारी होते थे। सुलेमानी पूर्वी ईरान के किरमान राज्य के कायमात-ए-मालिक गाँव में पैदा हुए थे। उन्हें 13 साल की उम्र में अपने किसान पिता के एग्रीकल्चर लोन को तत्कालीन शाह रजा पहलवी की सरकार को चुकाने के लिए मज़दूरी करनी पड़ी थी। 1979 में जब अमेरिका समर्थित शाह की हुकूमत का पतन हुआ और इस्लामिक क्रांति हुई तो वह इस क्रांति के जनक आयतुल्लाह खुमैनी के आंदोलन में शामिल हो गए। इसके बाद उन्होंने किरमान के युवकों को जमाकर एक लड़ाकू यूनिट बनाई और यह यूनिट खुमैनी के लिए काम करने लगी। फिर जब आई

मेरे जूते की आवाज सुनो

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इराक के पत्रकार मुंतजर अल-जैदी ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जब पिछले साल जूता फेंका था तो पूरी दुनिया में इस बात पर बहस हुई कि क्या किसी पत्रकार को इस तरह की हरकत करनी चाहिए। उसके बाद ऐसी ही एक घटना भारत में भी हुई। यह बहस बढ़ती चली गई। बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अभी हाल ही में जेल से छूटे हैं। जेल से छूटने के बाद यह पहला लेख उन्होंने लिखा, जिसे हिंदी में पहली बार किसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है कि इस लेख से और नई बहस की शुरुआत होगी... मैंने बुश पर जूता क्यों फेंका -मुंतजर अल-जैदी अनुवाद – यूसुफ किरमानी मैं कोई हीरो (Hero) नहीं हूं। मैंने निर्दोष इराकियों का कत्ले-आम और उनकी पीड़ा को सामने से देखा है। आज मैं आजाद हूं लेकिन मेरा देश अब भी युद्ध के आगोश में कैद है। जिस आदमी ने बुश पर जूता फेंका, उसके बारे में तमाम बातें की जा रही हैं और कही जा रही हैं, कोई उसे हीरो बता रहा है तो कोई उसके एक्शन के बारे में बात कर रहा है और इसे एक तरह के विरोध का प्रतीक मान लिया गया है। लेकिन मैं इन सारी बातों का बहुत आसान सा जवाब देना चाहता हूं और बताना चाहता हूं

2009 मैं तुम्हारा स्वागत क्यों करूं?

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एक रस्म हो गई है जब बीते हुए साल को लोग विदा करते हैं और नए साल का स्वागत करते हैं। इसके नाम पर पूरी दुनिया में कई अरब रूपये बहा दिए जाते हैं। आज जो हालात हैं, पूरी दुनिया में बेचैनी है। कुछ देश अपनी दादागीरी दिखा रहे हैं। यह सारा आडंबर और बाजारवाद भी उन्हीं की देन है। इसलिए मैं तो नए साल का स्वागत क्यों करूं? अगर पहले से कुछ मालूम हो कि इस साल कोई बेगुनाह नहीं मारा जाएगा, कोई देश रौंदा नहीं जाएगा, किसी देश पर आतंकवादी हमले नहीं होंगे, कहीं नौकरियों का संकट नहीं होगा, कहीं लोग भूख से नहीं मरेंगे, तब तो नववर्ष का स्वागत करने का कुछ मतलब भी है। हालांकि मैं जानता हूं कि यह परंपरा से हटकर है और लोग बुरा भी मानेंगे लेकिन मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता? इसलिए माफी समेत... अलविदा 2008, इस साल तुमने बहुत कष्ट दिए। तुम अब जबकि इतिहास का हिस्सा बनने जा रहे हो, बताओ तो सही, तुम इतने निष्ठुर हर इंसान के लिए क्यों साबित हुए। तुम्हें कम से कम मैं तो खुश होकर विदा नहीं करना चाहता। जाओ और दूर हो जाओ मेरी नजरों से। तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि तुम्हें उल्लासपूर्वक विदा करूं और तुम्हारे ही साथी २००९ का स्व

इन साजिशों को समझने का वक्त

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नीचे वाले मेरे लेख पर आप सभी लोगों की टिप्पणियों के लिए पहले तो धन्यवाद स्वीकार करें। देश में जो माहौल बन रहा है, उनके मद्देनजर आप सभी की टिप्पणियां सटीक हैं। मेरे इस लेख का मकसद कतई या नहीं है कि अगर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारत युद्ध छेड़ता है तो उसका विरोध किया जाए। महज विरोध के लिए विरोध करना सही नहीं है। सत्ता प्रमुख जो भी फैसला लेंगे, देश की जनता भला उससे अलग हटकर क्यों चलेगी। कुल मुद्दा यह है कि युद्ध से पहले जिस तरह की रणनीति किसी देश को अपनानी चाहिए, क्या मनमोहन सिंह की सरकार अपना रही है। मेरा अपना नजरिया यह है कि मौजूदा सरकार की रणनीति बिल्कुल सही है। पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर भारत पूरी तरह बेनकाब कर चुका है। करगिल युद्ध के समय भारत से यही गलती हुई थी कि वह पाकिस्तान के खिलाफ माहौल नहीं बना सका था। उस समय पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ सत्ता हथियाने की साजिश रच रहे थे और उन्होंने सत्ता हथियाने के लिए पहले करगिल की चोटियों पर घुसपैठिए भेजकर कब्जा कराया और फिर युद्ध छेड़ दिया। फिर अचानक पाकिस्तान की हुकूमत पर कब्जा कर लिया। उन दिनों को याद करें तो इस साजिश में

मेरा जूता है जापानी

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यह सच है कि मुझे कविता या गजल लिखनी नहीं आती। हालांकि कॉलेज के दिनों में तथाकथित रूप से इस तरह का कुछ न कुछ लिखता रहा हूं। अभी जब एक इराकी पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंका तो बरबस ही यह तथाकथित कविता लिख मारी। इस कविता की पहली लाइन स्व. दुष्यंत कुमार की एक सुप्रसिद्ध गजल की एक लाइन – एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो – की नकल है। क्योंकि मेरा मानना है कि बुश जैसा इंसान (?) जिस तरह के सुरक्षा कवच में रहता है वहां तो कोई भी किसी तरह की तबियत लेकर पत्थर नहीं उछाल सकता। पत्थर समेत पकड़ा जाएगा। ऐसी जगहों पर तो बस जूते ही उछाले जा सकते हैं, क्योंकि उन्हें पैरों से निकालने में जरा भी देर नहीं लगती। मुझे पता नहीं कि वह किसी अमेरिकी कंपनी का जूता था या फिर बगदाद के किसी मोची ने उसका निर्माण किया था लेकिन आज की तारीख में वह जूता इराकी लोगों के संघर्ष और स्वाभिमान को बताने के लिए काफी है। इतिहास में पत्रकार मुंतजर जैदी के जूते की कहानी दर्ज हो चुकी है। अब जरा कुछ क्षण मेरी कविता को भी झेल लें – (शायर लोग रहम करें, कृपया इसमें रदीफ काफिया न तलाशें) - कब तक चलेगी झूठ की दुकान - यूसुफ कि

बुश पर जूते पड़े या फेंके गए ? जो भी हो – यहां देखें विडियो

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दुनिया के तमाम देशों में लोग अमेरिका खासकर वहां के मौजूदा राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से इतनी ज्यादा नफरत करते हैं कि उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते। मैंने भी आपकी तरह वह खबर अखबारों में पढ़ी लेकिन बुश पर इराक में जूते फेंकने का विडियो जब YouTube पर जारी हुआ तो मैंने सोचा कि मेरे पाठक भी उस विडियो को देखें और उन तमाम पहलुओं पर सोचें, जिसकी वजह से अमेरिका आज इतना बदनाम हो गया है। इराक में बुश के साथ जो कुछ भी हुआ, वह बताता है कि लोग इस आदमी के लिए क्या सोचते हैं। जिसकी नीतियों के कारण अमेरिका आर्थिक मंदी के भंवर में फंस गया है और विश्व के कई देश भी उस मंदी का शिकार बन रहे हैं। जिस व्यक्ति ने बुश पर जूते फेंके वह पत्रकार है और उनका नाम मुंतजर अल जैदी है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि उन्होंने अच्छा किया या बुरा किया लेकिन जैदी का बयान यह बताने के लिए काफी है कि अगर किसी देश की संप्रभुता (sovereignty) पर कोई अन्य देश चोट पहुंचाने की कोशिश करता है तो ऐसी ही घटनाएं होती हैं। जैदी ने अपना गुस्सा जताने और अपनी बात कहने के लिए किसी हथियार का सहारा नहीं लिया है। खाड़ी देशों के तेल पर कब्जा करने के