सुन ऐ हुक्मरां, हमारे कपड़ों को न देख, हमारे जेहाद-ए-अकबर को देख

किनारे पर खड़े लोगों, बस इतना ध्यान में रखना
समंदर ज़िद पे आयेगा, तो सबके घर डुबो देगा।
-हुसैन हैदरी, शायर, फ़िल्म गीतकार

kinaare par khade logon, bas itna dhyaan mein rakhna
samandar zidd pe aayega, to sabke ghar dubo dega
-Hussain Haidry, Poet, Film Lyrist

वह लोग जो अभी भी स्टूडेंट्स के शांतिपूर्ण आंदोलन को दूर से नाप तौल रहे हैं, क्या उन्होंने थोड़ी देर इस पर विचार किया कि आंदोलन जेएनयू में भी हुआ और वहाँ के बच्चे भी सड़कों पर आये लेकिन सिर्फ़ जामिया मिल्लिया इस्लामिया और एएमयू में ही पुलिस क्यों हॉस्टल में घुसी और क्यों एक ही पैटर्न के तहत स्टूडेंट्स को पीटा गया?





जामिया और एएमयू के अंदर पुलिस के घुसने का समय शाम का था। एएमयू में तो स्टूडेंट्स न तो सड़कों पर आये और न ही कोई पत्थरबाज़ी की। दिल्ली और यूपी पुलिस में पढ़े लिखे युवक भरती होते हैं और वे जानते हैं कि यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ने वाले बच्चे संजीदा होते हैं। बाहर नारेबाज़ी चल रही थी लेकिन ये बच्चे लाइब्रेरी में पढ़ रहे थे। इसके बावजूद दिल्ली पुलिस और अलीगढ़ पुलिस अंदर घुसी और उन्हें ऐसे पीटा जैसे वह बदमाशों को पीटने का कथित दावा करती है। 

यह बहुत साफ़ है कि केंद्र सरकार के इशारे पर दोनों ही यूनिवर्सिटियों के बच्चों को सबक़ सिखाने के लिए उन पर हमला किया गया।...जेएनयू में पुलिस ऐसा कुछ कभी नहीं कर पाई थी...

....यह सब इसलिए हुआ कि जामिया और एएमयू के बच्चे अपने ख़ास लिबास के लिए जाने जाते हैं। उसने सुबह एक रैली में यह बात कही थी कि हिंसा करने वालों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है। इसके फ़ौरन बाद आला अफ़सरों की बैठक हुई और शाम को दोनों यूनिवर्सिटीज में पुलिस ने चढ़ाई कर दी।

...बहरहाल, जिन्हें वह शख़्स और उसकी पुलिस कपड़ों से पहचाने जाने की बात कर रहा है, उस कपड़े को लोगों ने अब कफ़न मान लिया है। वह शख़्स और उसकी पुलिस ने क़ुरान शरीफ़ के बारे में सुना है लेकिन पढ़ा नहीं है। उसमें जेहाद ए अकबर का ज़िक्र आया है। उसका अर्थ है - किसी अच्छे सामाजिक मक़सद के लिए अहिंसात्मक संघर्ष....।

हमारे बच्चे जो अब कर रहे हैं वह जेहाद ए अकबर है और उसका बाक़ायदा उन्हे ज्ञान है कि वो क्या कर रहे हैं। सरकार को समझना होगा कि बच्चों ने अपने कपड़ों को कफ़न समझ लिया है और वे अहिंसक तरीक़े से जेहाद ए अकबर के लिए उतर पड़े हैं। अगर एक बहुत बड़ी आबादी का मामूली हिस्सा अगर जेहाद ए अकबर की ठान लेता है तो शेष अस्सी फ़ीसदी आबादी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहती है। इस तरह यह स्थिति वर्ग संघर्ष में कई बार बदल जाती है। आप सात लाख फ़ौज लगाकर कश्मीर तो नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन बीस फ़ीसदी या 35 करोड़ अहिंसक संघर्ष करने वालों को लाठी और बंदूक़ से नियंत्रित नहीं कर सकते। उसका नमूना देश के 45 सरकारी शिक्षण संस्थानों से आ रही आवाज़ों से आप देख ही रहे हैं। अभी प्राइवेट यूनिवर्सिटी और प्राइवेट कॉलेज के बच्चे तो इस जेहाद ए अकबर के लिए तैयार नहीं हुए हैं। 

यह हिटलर और गोएबल्स जैसा ही गेम है...दोनों की जोड़ी इतिहास में बेहद ख़तरनाक जोड़ी मानी गई है। दोनों अपने शासन की नाकामी छिपाने के लिए नाज़ी जर्मनी को गैस चैंबर तो बना देते हैं लेकिन उनका अंत भी उसी गैस चैंबर में होता है। हिटलर और गोएबल्स से भी पहले फिरौन और यज़ीद जैसे शासकों के नाम आए हैं उनका अंत भी इसी तरह हुआ। फिरौन को तो खुद को खुदा होने का भ्रम था। लेकिन क़ाबा में जब तमाम खुदाओं के बुतों को गिराया गया तो उन खुदाओं के भक्तों का भ्रम दूर हुआ कि दरअसल जिसे वे खुदा मानते या समझते थे वह अजेय नहीं था। मरहूम हबीब जालिब साहब ने ये अशार यूँ ही नहीं लिखे थे - 

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था 
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था।

कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ 
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था।

इस आंदोलन या जेहाद ए अकबर के स्वत: स्फूर्त फूटने ने विपक्ष समेत सारे राजनीतिक दलों को बौना साबित कर दिया है। कमज़ोर  विपक्ष हालात का आकलन करने में नाकाम रहा है। असम में जब इस फासिस्ट सरकार ने एनआरसी लागू किया था तो उसी समय राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा किए जाने की ज़रूरत थी। लेकिन विपक्ष बस तमाशबीन रहा। ज़रा सोचिए जिस राज्य में 19 लाख लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर कर डिटेंशन सेंटरों में डाल दिए गए हों और जिस राज्य के लोगों ने कई महीने पहले इस कानून को रिजेक्ट कर दिया हो, इसके बावजूद विपक्ष चुप्पी साधे रहा। असम के लोग अकेले हालात का सामना करते रहे। जबकि असम में एनआरसी आने के समय ही केंद्र की फासिस्ट सरकार बार बार यह ऐलान कर रही थी कि पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे। क्या उसी समय से विपक्ष को एक्टिव मोड में नहीं आना चाहिए था? लेकिन जिस तरह उस शख़्स को विशेष कपड़ा पहनकर आंदोलन करने का इंतज़ार था, ठीक उसी तरह विपक्ष को भी वही इंतज़ार था कि लोग पहले खुद विरोध में खड़े हों तो वह भी अखाड़े में कूदेगा। ख़ैर, देर आयद दुरुस्त आयद, विपक्ष को इस अकबर ए जेहाद का नेतृत्व संभाल लेना चाहिए। आंदोलनकारी युवकों और जनता को भी चाहिए कि वह विपक्ष को ही इस आंदोलन का नेतृत्व सौंप कर विपक्ष के साथ खड़ी हो जाए।









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