2019 में कौन जीतेगा - धर्म या किसान...


 नवभारत टाइम्स (एनबीटी) में आज 26 दिसंबर 2018 को प्रकाशित मेरा लेख...

आजकल 2019 का अजेंडा तय किया जा रहा है। हर चुनाव से पहले यह होता है। लेकिन इस बार एक बात नई है। इस बार अजेंडा ‘धर्म बनाम किसान’ हो गया है जबकि इससे पहले भारत में चुनाव गरीबी हटाओ, भ्रष्टाचार, आरक्षण, दलितों-अल्पसंख्यकों की कथित तुष्टिकरण नीति, पाकिस्तान और सीआईए से खतरे के नाम पर लड़ा जाता रहा है। किसानों की बात भी हर चुनाव में की जाती है लेकिन उनका जिक्र सारी पार्टियां सरसरी तौर पर करती रही हैं। इस बार परिदृश्य बदला हुआ है। केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष की कथित एकजुटता की तेज चर्चा के बावजूद अगले आम चुनाव का एक जमीनी अजेंडा भी अभी से बनने लगा है।

समय की कमी
2014 में केंद्र में नई सरकार बनने के बाद देश भर के किसान संगठन दो साल तक हालात का आकलन करते रहे। लेकिन 2016 से वे बार-बार दिल्ली और मुंबई का दरवाजा खटखटा रहे हैं कि हमारी बात सुनो। 2016 में सबसे पहले तमिलनाडु के किसान जंतर मंतर पर आए। उसके बाद मध्य प्रदेश के किसान संगठन दिल्ली आए। किसानों की शक्ल से भी अपरिचित मुंबई ने पिछले डेढ़ वर्षों में थोड़े ही अंतर से किसानों के दो बड़े जुलूस देखे और बांहें फैलाकर उनका स्वागत किया। अक्टूबर 2018 में पश्चिमी यूपी के संपन्न किसान भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले दिल्ली पहुंचे। फिर 29-30 नवंबर को तमाम वामपंथी संगठन छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों को लेकर दिल्ली आए। इनकी आमद से किसानों का मुद्दा सत्ता के केंद्र में आ गया।



तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालने के 24 घंटे के अंदर अपने-अपने यहां किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। ऐन लोकसभा चुनाव से पहले के इस घटनाक्रम से किसानों का मुद्दा सभी राजनीतिक दलों के लिए खास हो गया है। बीजेपी ने अपनी नीतियों पर फिर से विचार शुरू कर दिया है। किसानों के मुद्दे को लेकर पार्टी में तमाम धर्मसंकट हैं। बीजेपी के रणनीतिकारों ने केंद्र सरकार को किसानों के लिए सरकारी खजाना खोलने जैसी बात कही है। लेकिन सरकार के पास इतना कम वक्त बचा है कि अगर वह योजनाओं की झड़ी लगा दे तो भी उनके क्रियान्वयन के लिए समय कब मिलेगा? किसान योजनाओं की घोषणा नहीं, उन पर अमल चाहता है।

बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस और वामपंथी दलों ने किसानों के मुद्दों की सबसे ज्यादा मार्केंटिंग की है। हालांकि केंद्र की सत्ता में सबसे ज्यादा दिनों तक रहने के बावजूद कांग्रेस किसानों को मजबूत आधार नहीं दे सकी। मेट्रो, मारुति कार और कंप्यूटर तो कांग्रेस ले आई लेकिन किसानों के लिए ऐसी योजना नहीं ला सकी, जिसके लिए उसे याद रखा जा सके। मनरेगा के नतीजे अच्छे रहे थे लेकिन उसे यादगार योजना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यूपीए सरकार की एकमुश्त कर्जमाफी के बावजूद पंजाब-महाराष्ट्र में किसान कर्ज की वजह से खुदकुशी करते रहे। अभी कांग्रेस शासित तीन राज्यों में कर्ज माफी का कितना वास्तविक फायदा किसानों तक पहुंचेगा, इसका पता कुछ समय बाद चलेगा। लेकिन कांग्रेस के इस ऐक्शन से किसानों का मुद्दा मुखर जरूर हुआ है।

बीजेपी ने किसानों के मुद्दे पर कांग्रेस की गलतियों से कुछ भी नहीं सीखा। वह नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया, मनमोहन और राहुल गांधी को निशाना बनाती रही। इसके बजाय उसने खेती-किसानी को लेकर कांग्रेस की गलतियां सुधारने पर फोकस किया होता तो आज तस्वीर कुछ और होती। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में बीजेपी ने किसानों से कर्जमाफी का वादा किया था। प्रचंड बहुमत पाकर योगी आदित्यनाथ ने कुर्सी संभाली तो उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया। उन्होंने 11 लाख 93 हजार 224 छोटे और मंझोले किसानों का 7371 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया। लेकिन कर्जमाफी की यह सुनहरी तस्वीर सिर्फ कागजों पर है। हकीकत में इसकी पात्रता को इतना तकनीकी बना दिया गया कि कहीं किसानों के दस रुपये कर्ज के रूप में माफ हुए, कहीं सौ रुपये तो कहीं पांच सौ रुपये। यूपी के विभिन्न विभागों में किसानों की नौ लाख अर्जियां कर्जमाफी को लेकर लंबित हैं।

बीजेपी को लगता है कि अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए जगह-जगह जो धर्म संसद आयोजित की जा रही है, चुनाव में उसका बेड़ा इसी से पार हो जाएगा। किसान उसकी प्राथमिकता नहीं है। उसे लगता है कि धर्म एक ऐसा मुद्दा है जिस पर किसान भी अपनी खेती-वेती भूलकर पिघल जाएंगे। बीजेपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक की राजनीतिक इकाई है। उसके अलावा संघ के ढेरों आनुषंगिक संगठन हैं, जिनके अजेंडे पर इस वक्त मंदिर के लिए धर्म संसद का आयोजन मुख्य विषय है। इसकी कमान विश्व हिंदू परिषद के पास है। 2016 से ही किसानों के मुद्दे के समानांतर मंदिर का मुद्दा सरगर्म है। अगर कोई घटनाक्रम का बारीकी से अध्ययन करे तो पाएगा कि जब-जब किसानों के बड़े प्रदर्शन हुए, तब-तब धर्म संसद आयोजित करके मंदिर के लिए हुंकार भरी गई।

दो ही विकल्प
दिल्ली के रामलीला मैदान में नवंबर में हुई धर्म संसद में आए कुछ युवकों से एक टीवी चैनल के पत्रकार ने पूछा कि उनके लिए रोटी-रोजी और किसान बड़ा मुद्दा है या अयोध्या में मंदिर। उन युवकों ने पूरे होशोहवास में जवाब दिया था कि मंदिर उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है- ‘रोटी-रोजी आती रहेगी, पहले हमें मंदिर चाहिए।’ धर्म संसद का सिलसिला केंद्र में सत्ता मिलने के बाद ही शुरू हो गया था। आज देश के हर बड़े शहर में धर्म संसद का आयोजन हो रहा है। जाहिर है, चुनाव तक मंदिर निर्माण बड़ा मुद्दा बना रहेगा। अगले लोकसभा चुनाव में देश के सामने दो ही विकल्प होंगे कि उसे धर्म प्यारा है या किसान। ठहरकर सोचें तो धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है जबकि किसान एक बड़े सरोकार से जुड़ता है। 2019 में तय करना होगा कि आप किस ओर खड़े हैं?


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