पुलवामा पर तमाम प्रयोगशालाओं की साजिशें नाकाम रहीं

पुलवामा ने हमें बहुत कुछ दिया। जहां देश के लोगों ने सीआरपीएफ के 40 जवानों की शहादत पर एकजुट होकर अपने गम-ओ-गुस्से का इजहार किया, वहां तमाम लोगों ने नफरत के सौदागरों के खिलाफ खुलकर मोर्चा संभाला।

पुलवामा की घटना के पीछे जब गुमराह कश्मीरी युवक का नाम आया तो कुछ शहरों में ऐसे असामाजिक तत्व सड़कों पर निकल आए जिन्होंने कश्मीरी छात्रों को, समुदाय विशेष के घरों, दुकानों को निशाना बनाने की कोशिश की लेकिन सभी जगह पुलिस ने हालात संभाले। लेकिन इस दौरान सोशल मीडिया के जरिए भारत की एक ऐसी तस्वीर सामने आई, जिसकी कल्पना न तो किसी राजनीतिक दल के आईटी सेल ने की थी न किसी नेता ने की थी।

उन्हें लगा था कि नफरत की प्रयोगशाला में किए गए षड्यंत्रकारी प्रयोग इस बार भी काम कर जाएंगे। देश की जानी-मानी हस्तियों ने, लेखकों ने, इतिहासकारों ने, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने, पत्रकारों ने, कुछ फिल्म स्टारों ने और सबसे बढ़कर बहुत ही आम किस्म के लोगों ने अपील जारी कर दी कि अगर किसी जगह किसी कश्मीरी या समुदाय विशेष के लोगों को नफरत फैलाकर निशाना बनाया जा रहा है तो उनके दरवाजे ऐसे लोगों को शरण देने के लिए खुले हैं।

देश में जब 1947, 1984, 2002 जैसे भयानक दंगे और नरसंहार हुए तब टारगेट किए गए समुदाय के किसी परिवार को पनाह देने पर वह खबर बन जाया करती थी, कहानियां बन जाया करती थीं। लेकिन 2019 में सोशल मीडिया का दौर है और उसने अपनी ताकत की पहचान फिर से करा दी है। नफरतों का कारोबार करने वालों को इतनी बड़ी चुनौती 1947, 1984 और 2002 के नरसंहारों में नहीं मिली थी।

1984 में जब सिख विरोधी दंगे हुए तो जिस शहर में मैं पढ़ाई के साथ-साथ छोटी-मोटी पत्रकारिता कर रहा था, वहां अहसास हुआ कि दंगाई किस हद तक जा सकते हैं और ऐसे में अगर कोई सिर्फ किसी एक पीड़ित परिवार की मदद कर दे तो सामाजिक ताना-बाना बिखरने से बच जाता है। उस परिवार की सोच हमेशा के लिए बदल जाती है और वह अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी इसी सामाजिक ताने-बाने को बचाने का संदेश देता चला जाता है।

मेरी फेसबुक लिस्ट बहुत लंबी नहीं है। लेकिन जितनी है, उतनी पर मुझे पहली बार गर्व का एहसास हुआ। इतने बड़े पैमाने पर लोगों ने अपील जारी की थी कि एक-एक का नाम लेकर बताने पर इस लेख के कई पेज भर जाएंगे। और ऐसी अपीलें सिर्फ दिल्ली एनसीआर से ही नहीं रक्सौल और औरंगाबाद तक से आ रही थीं। हालांकि एक राजनीतिक दल की आईटी सेल के दिहाड़ीदार ने टिप्पणी की कि फेसबुक पर अपील जारी करना आसान है और लोगों तक मदद पहुंचाना अलग बात है। मैंने उनको बताया कि जिन लोगों ने मदद पहुंचाई है, वह लोग यहां तो गा-गाकर बताने से रहे कि उन्होंने किसको मदद पहुंचाई है।

पुलवामा की घटना से राजनीतिक दलों ने इमोशनल अत्याचार की जो फसल काटने का प्लान तैयार किया था, उसे भी सोशल मीडिया ने नेस्तोनाबूद कर दिया। हुआ यह कि जब हमारे 40 जवानों के शव उनके गांव और शहरों में पहुंचने लगे तो नागपुरी प्रयोगशाला से निकले एक राजनीतिक दल के तमाम नेता उन शवों के साथ दांत चिंयारते और हंसते हुए जनता के बीच से निकले, कहीं किसी ने शव को अपने पीछे रखते हुए सेल्फी ले ली। लोगों को यह सब पसंद नहीं आया और ऐसे नेताओं को सोशल मीडिया पर लोगों ने सरेआम जलील किया। ऐसा गुस्सा मुझे पहली बार दिखा।

ऐसी घटनाएं पहली बार नहीं हुई हैं, इससे पहले भी लोग ऐतराज जताते रहे हैं, लेकिन उसका दायरा वहीं तक सीमित होता था। अब उसका दायरा बढ़ रहा है और उस गुस्से को अब व्यापक समर्थन मिलने लगा है। नेताओं से मोहभंग की शुरुआत ऐसी ही घटनाओं से होती है। पर नेता इसके बावजूद अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे।

यह नेताओं के आत्ममंथन का समय है। पुलवामा जैसी घटना को अगर वह अपने चुनाव जीतने का जरिया बनाएंगे तो जनता उन्हें किसी तरह और क्यों माफ करेगी। अगर आप वाकई गमजदा हैं तो उसके सार्वजनिक प्रदर्शन की क्या जरूरत है। आप शहीद के शव के साथ उस वाहन पर क्यों सवार होना चाहते हैं, जहां उस जवान के पिता, भाई, चाचा, बेटे को खड़ा होना है। क्योंकि आप उस स्थिति को भुनाना चाहते हैं। आप जानते हैं कि शातिर मीडिया सिर्फ आपको ही पहचानता है, वह शहीद के परिवार को नहीं पहचानता तो फोकस आप पर ही रहेगा। लेकिन असंख्य आंखे जो उन तस्वीरों को, विडियो को देख रही हैं वे आपको माफ नहीं करने वाले हैं।

अगर आप वाकई शहादत पर गमजदा हैं तो जाकर अपने मुहल्ले में शांति पाठ कराइए, मंदिर में प्रार्थना करिए कि पुलवामा फिर कहीं और न दोहराया जाए, अपनी पार्टी पर दबाव बनाइए कि वह इन शहीदों को जल्द से जल्द वन रैंक वन पेंशन के दायरे में लाए। उनकी शहादत सेना के किसी जवान की शहादत से कम तो नहीं। आप अगर वाकई गमजदा हैं तो उन हालात को देश में पैदा कीजिए, जहां ऐसी आतंकी घटना करने को कोई सोच भी न सके। अपनी पार्टी से कहिए नफरत का नहीं मोहब्बत के वातारण का निर्माण करे। अंध देशभक्ति नफरत को जन्म देती है और दिल से की गई देशभक्ति देश को और मजबूत करती है।

पुलवामा की घटना के विरोध में जिस तरह इस बार देशभर में मुसलमानों ने अपने गुस्से का विरोध जताया, उसे भी दर्ज करना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि मुसलमानों को सेना या पैरामिलिट्री फोर्स के जवानों की शहादत पर गुस्सा नहीं आता था। लेकिन वह अपने सीमित दायरे में ही उस पर बात करके, गुस्सा जताकर चुप रह जाते थे। उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि अपने गुस्से के साथ सामने आना जरूरी है, शातिर टीवी मीडिया चाहे उसकी कवरेज करे न करे। शायद आपको किसी टीवी चैनल ने यह तथ्य न बताया हो कि पुलवामा में 40 जवानों की शहादत जुमेरात (गुरुवार) को हुई और अगले दिन जुमा था। देशभर में शायद ही कोई ऐसी मस्जिद बची होगी, जहां जमात के साथ हुई नमाज में मौलाना ने जवानों की शहादत पर अपने खुतबे में खिराज-ए-अकीदत न पेश की हो। मेरा वाट्सऐप, मेरा ईमेल ऐसी असंख्य फोटो से बजबजा रहा था।

आजमगढ़ के मुबारकपुर नामक कस्बे से एक साहब ने मुझे शनिवार को शिकायत भेजी की उनके इलाके की मीडिया ने हमारी मस्जिद के खुतबे को और हमारे प्रदर्शन को तवज्जो नहीं दी। एक लाइन न छापी और न कुछ दिखाया। मैंने उन्हें समझाया कि शायद जगह न रही हो, शायद बड़े शहरों के मुकाबले कस्बों पर ध्यान न गया हो। लेकिन वह शातिर मीडिया पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का इलजाम लगाते रहे। लेकिन मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि देश का आम मुसलमान भी अब दूसरों की तरह अपनी मार्केटिंग की कला सीख रहा है। हालांकि उसने दर कर दी है, लेकिन यह शुरुआत भी रंग लाएगी। मुझे नागपुर का एक फोटो देखने को मिला, नमाज के बाद बमुश्किल 50 दाउंदी बोहरा समुदाय के लोग शहीद जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। दाऊदी बोहरा लोग आमतौर पर खुद में सिमटे रहने वाला समुदाय है। लेकिन वह लोग भी इस तरह पहली बार खुलकर सामने आए।

बहरहाल, सोशल मीडिया के जमाने में जब मार्केंटिंग के फंडे बदल रहे हैं तो एक पूरी कौम का जागना शुभ संकेत माना जाएगा।....इसके छिपे संकेत खद्दरधारी नेताओं को पढ़ने होंगे। नफरतों का कारोबार अब यह देश आगे नहीं बढ़ने देगा।







 








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