हमारे बाद अंधेरा नहीं, उजाला होगा...

- ज़ुलेखा जबीन

आजका दौर भारतीय नारीवाद के गुज़रे स्वर्णिम इतिहास पे चिंतन-मनन किए जाने का है... यक़ीनन ये वक़्त ठहर कर ये सवाल पूछने का भी है कि भारत के नारीवादी आंदोलन का वर्ग चरित्र हक़ीक़त में क्या और कैसा रहा है....!

हालांकि इन बेहद ज़रूरी सवालों को कई तरह के "प्रतिप्रश्नों" के ज़रिए "उड़ा" दिए जाने की भरसक कोशिशें की जाएंगी लेकिन फ़िर भी असहज कर दिए जाने वाले सवाल उठाना जम्हूरियत की असली ख़ूबसूरती तो है ही, लोकतंत्र में जी रहे तमाम आम नागरिकों के नागरिक होने का इम्तिहान भी है।...
पिछले कुछ दिनों से जामिया यूनिवर्सिटी की स्कालर और ग़ैर संवैधानिक #CAA, #NRC #NPR  पर एक नौजवान नागरिक #सफ़ूरा जरगर की गिरफ़्तारी, उस पर राजद्रोह से लेकर हत्या करने, हथियार रखने, दंगे भड़काने जैसी गतिविधियों सहित 18 धाराएं लगाई गई हैं।  इसके साथ ही जेल में की गई मेडिकल जांच में उसके प्रेग्नेंट होने की ख़बर सामने आने के बाद भारत के बहुसंख्यक समाज के लुंपन एलिमेंट्स की तरफ़ से सोशल मीडिया में जो शाब्दिक बवाल मचाया गया वो तो अपेक्षित था। जो अनापेक्षित रहा वो इनकी औरतों का इस युद्ध में न सिर्फ़ कूद पड़ना बल्कि शाब्दिक, प्रवोकिंग, ग़ैर संवैधानिक, अशालीन और घोर मुस्लिम विरोधी नफ़रती बाण वर्षा में अपने ख़ुद के औरत होने को भूल जाना..!
यह सब भीतर तक दहशत ज़दा करने वाला रहा.... सफ़ूरा के चरित्र का पोस्टमार्टम करनेवाली औरतें-: अच्छी खा़सी लिखी पढ़ी, पुती पुताई, कटे-लंबे और रंगे बालों वाली, सभ्य,गोरीचिट्टी अंदरूनी, बाहरी ख़ानों वाली, नौकरी पेशा, सामाजिक,राजनीतिक असर रखनेवाली, बूढ़ी, जवान और घरेलू सभी तरह की रही हैं... भारत के गहरे तक इंजेक्टेड, हिंदुत्ववादियों के ज़रिए, अपनी औरतें और इनके भीतर तक पिरोया गया ये ज़हर डराने वाला है।  जिसके  फ़िलहाल अभी थमने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। हालांकि चार दिन बाद ही सही दिल्ली महिला आयोग का इस तरफ़


ध्यान आ गया है।

सवाल ये है के भारत में क्या कभी महिलाओं को इंसान समझे जाने का कोई आंदोलन खड़ा भी किया गया था? अगर जवाब "हां" में है तो क्या वे तमाम आंदोलनकारी औरतें बांझ थीं जिन्होंने नया जीवन सृजित ही नहीं किया? अगर जवाब है कि "ऐसा कैसे हो सकता है...! इतने बड़े पैमाने पर "बांझपन" हो ही नहीं सकता...! बेशक ऐसा ही हुआ होगा, तो फ़िर ज़हन में ये सवाल भी कौंधने लगता है तो क्या भारत के गुज़रे 72 बरसों में कोई ऐसी सुनामी, कोई ऐसा ज़लज़ला आया कि औरतें बच्चियाँ सबके सब ग़ारत हो गईं, मर गईं और पिछला सब कुछ ख़त्म मटियामेट....!!!
अगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ/किया गया तो फ़िर आज सोशल मीडिया में सफ़ूरा जरगर नामक एक कश्मीरी नौजवान लड़की पर शाब्दिक निशाना साधती ये औरताना फ़ौज आई कहां से..है.?? क्या ये सभी आयातित औरतें  हैं?? नहीं... ये मुमकिन ही नहीं है कि नफ़रतों की पैरोकार इतनी बड़ी औरताना सेना बाहर से मंगवाई जाए... और ये भी नामुमकिन है के इनके तनखैय्या आईटी सेल के सभी मर्द एक एक  फ़र्ज़ी औरतों के नाम की आईडी बना ऐसी घिनौनी, स्तरहीन, वल्गर, ज़बानों से आपसी बातचीत करें...क्योंकि यहां तो, प्रोफ़ेसर, राइटर, तथाकथित सामाजिक क्षेत्र की औरतें (बाक़ायदा अपने नाम और असली फ़ोटो के साथ मोर्चा संभालती नज़र आई हैं) तो आख़िर ये औरतें हैं कौन..? क्या कहीं से टपक पड़ी अचानक से...?
नहीं साथियों, ये न आसमान से टपकी हैं और न किसी दूसरे ग्रह से आयातित हैं....! ये यहीं हमारे आप के साथ ही पैदा हुईं हैं। हमारे आपकी तरह ही इनकी परवरिश की गई हैं... हमारे आपके बीच की ही रहनेवाली हैं ये सब...पिछले डेढ़ दशकों में ये या इन जैसी, इन्हें प्रशिक्षित करने वाली मिशनरियों के तज़करे लगातार आते रहे हैं। इनके साहसिक शारीरिक, हस्तकौशल, युद्ध कौशल, हथियार प्रदर्शन की खबरें/विडियोज़ गाहे-बगाहे लीक किए जाते रहे हैं। सांस्कृतिक, पौराणिक, धार्मिक आयोजनों में इनकी कौशल, कला प्रदर्शनियों का प्रसारण हमारे सामने लाया जाता रहा हैं। हम देखते और गौरवान्वितभी रहे लेकिन ध्यान नहीं धरा। अगर कभी दिया भी तो बतौर एक्स्ट्रा करिकुलम ऐक्टिविटीज़ के नाम पर गौरवान्वित भी होते रहे हैं- कि हमारी बच्चियाँ, संकट के वक़्त देश बचाने की कला में पारंगत होती जा रहीं हैं। ये या इस जैसा बहुत कुछ हर रोज़ होता रहा, हम (आम अवाम) देखते रहे.....! संवैधानिक ज़िम्मेदार एजेंसियों ने भी इस तरफ़ कान नहीं धरे, आंखें मूंद लीं,...हम भी बेचारे, अपने काम के मारे, इग्नोर मार आगे बढ़ते गए...!
देश की राजनैतिक पार्टियों की तो क्या बात करें, चेतनशील कहे जाने वाले सामाजिक संगठन भी पिछले 20 बरसों में इस तरह के किसी भी ज़हरीली कोशिशों में बच्चों- बच्चियों के नफ़रती (ग़ैर संवैधानिक)  इस्तेमाल पर किसी विधानसभा या संसद के ज़रिए देश के सामने ध्यानाकर्षण प्रस्ताव/चर्चा, किसी सड़क, किसी गोष्ठी, किसी अदालत में भी कहीं किसी तरह की संजीदगी से, बतौर कैंपेन कोई आंदोलनात्मक अभियान नहीं चलाया। जिसमें  देश की अवाम ख़ासकर नौजवान पीढ़ी को लेकर कोई पहल होती दिखाई पड़ती या सामाजिक, मज़हबी एकता पर कोई गंभीर पहल होती दिखलाई पड़ती (देश के अल्पसंख्यक, SCSt समुदायों को साथ लेकर कोई आयोजन, कोई मेला कहीं से होने/ मनाने की ख़बर/पहल दिखाई/सुनाई नहीं पड़ी)। ख़ासकर महिला आंदोलनों ने देश के भीतर सांस्कृतिक एकजुटता वाले ताने बाने के बिखराव को सहेजने की मंशा से कोई गंभीर कैंपेन चलाया हो दिखाई नहीं पड़ता... छोटे मोटे NGOs ने सर्व सुविधा युक्त यात्राएं निकाल, विचार गोष्ठियों जैसी उथली गतिविधियां संचालित कीं जो बड़े 5 स्टार मीडिया इवेंट, और फ़ंडिंग एजेंसियों को सालाना रिपोर्ट पेश करने, अगले वार्षिक न्यू इवेंट्स के लिए अपने संगठन के लिए फ़ंडिंग फ़िक्स करने तक ही सीमित रहे।
महिला मुद्दों पर राजनैतिक (विचारधारात्मक) काम करने वाले संगठन/आंदोलनों की हवाई यात्राएं, कुछ गिने चुने सीमित उनके पुराने ढ़र्रो पे आधारित राज्य, राष्ट्रीय सम्मेलनों तक ही सीमित रहे। देश में लगातार बिगाड़े जा रहे सामाजिक, सांस्कृतिक ताना-बाना पर, भारतीयता, हिंदोस्तानियत का इतिहास उसकी अहमियत, आज की ज़रूरत पर किसी भी तरह की ठोस कार्ययोजना जैसा ज़मीनी स्तर पर देखने में नहीं आया। हां अपने अपने ख़ेमों के भीतर कुछ कोशिशें हुईं मगर उथली तरह से।  आम अवाम को अप्रोच करने की देश स्तरीय प्रशिक्षण का ढ़ांचा न राजनैतिक पार्टियों की प्राथमिकता में रहा और न महिला आंदोलनों/संगठनों में. पिछले 10-20 बरसों से हिंन्दोस्तान को "हिन्दूराष्ट्र" बनाने की जितनी तेज़ी से कोशिशें की गई हैं उसके  बरअक्स हिन्दोस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब के ढ़ांचे को खंडहर में तब्दील होने से बचाने के लिए राजनैतिक पार्टियों, जन संगठनों, महिला आंदोलनों ने कोई ठोस आंदोलनात्मक क़दम उठाने में कोई बड़ी अहम भूमिका अदा नहींं की है...!
अलिखित मनुवादी विधान का संविधान के पैरेलल लगातार लागू होता जाना इसका सबसे खुला और बड़ा सुबूत है। क्या ये महज़ मज़ाक़  कहा जा सकता है के देश के SC, ST तबकों ने अपनी आबादी के मानवीय, नागरिक हक़ों के लिए कई बार एकजुट आह्वान किया और कुछ हद तक उसे हासिल करने में कामियाब भी रहे। लेकिन उच्चवर्णीय नेत्तृत्व वाले सामाजिक संगठन, महिला आंदोलन और राजनीतिक पार्टियों ने  लोकतांत्रिक हिन्दोस्तान की एकता और संप्रभुता को क़ायम रखने के लिए आम अवाम को जागरूक करने के लिए किसी भी तरह का देशव्यापी चरणबद्ध आंदोलन छेड़ने की ज़रूरत नहीं महसूस की...!
देश के अलग अलग ( जातिगत, धार्मिक) पहचान वाले नागरिक समुदायों ने अपनी समझ और बिसात मुआफ़िक़ अपने हक़, सम्मान और ज़िंदा रहने के संविधान प्रदत्त हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए बेचैन करवटें बदलने की कोशिशें भी कीं, लेकिन बुद्धिजीवी कहाने वाली भारत की बहुसंख्यक आबादी के गिने, चुने छपास, मानसिकता वालों ने, इनके शुरू किए गए विरोध के स्वरों में "इंही के मंचों" पे जा कर भाषण देने तक ही ख़ुद को सीमित रखा। कभी समुदाय विशेष के विरोध के स्वर में अपनी बहुसंख्यक आबादी की पहचान का पंडाल लगा, उन विरोधों को सशक्त बनाने अपनी आवाज़ खड़ी करने की दिखावे को ही सही झूठी कोशिश भी नहीं की। वर्ना शाहीन बाग़ से शुरू हुआ "संविधान और लोकतंत्र बचाओ" आंदोलन फ़ासिस्ट ताक़तों के ज़रिए यूं न बिखेर दिया जाता। अगर बहुसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग सचमुच में हिंदोस्तानियत बचाने के लिए ईमानदार होता उसके "अपनी पहचान वाले बाग़" भी स्थापित होते और आज हिंदोस्तान का भीतरी नज़ारा कुछ और होता...!!!!
अफ़सोस ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत भी महसूस न की सुविधा पसंद इस वर्ग ने. -नतीजतन मुल्क की बहुसंख्यक आबादी जो हिन्दु धर्मावलंबी है अतिवादी समूहों को अपनी रहनुमाई (न चाहते हुए भी) सौंप दी। यही वजह रही की ये आबादी कभी मुल्क को अपने धर्म के ऊपर नहीं रख सकी। पिछले 50 बरसों का चुनावी इतिहास देखा जाए तो साफ़ दिखता है के राजनैतिक पार्टी की सशक्त ट्रेड यूनियनों का हिस्सा रहकर अपने श्रमिक हक़ हासिल करने वाले उसके मेंबर्स भी चुनाव में अपने वोट ज़ात, गोत्र, धर्म के आधार पर ग़ैर राजनैतिक, अपरिपक्वता का परिचय देते हुए श्रम विरोधी पार्टियों को ही वोट देकर उन्हें जिताते रहे हैं।  यही वजह है के गुज़रे 73 बरसों में समानता की विचारधारा रखने वाली पार्टियों ने भी अपने सदस्यों/ कार्यकर्ताओं को न राजनैतिक कौशल से लैस करने में रुचि दिखाई है और न ही उन्हें ज़िम्मेदार नागरिक बनना सिखाया है। सर्व सुविधा युक्त राष्ट्रीय पार्टियों (मर्दवादी) की प्राथमिकता में ही जब देश, उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक तासीर, उसकी विविधताओं और मूल जड़ोंके लिए लगाव जुड़ाव नहीं है तो उनके अधीनस्थ महिला संगठनों/आंदोलनों की स्वतंत्र कार्यप्रणाली हो भी कैसे सकती है?
फ़िलहाल, भारतीय नारिवादी, महिला संगठन, उनके विचार अप्रासंगिक से कहीं कोने में दुबके पड़े हैं। क्योंकि ये सारे तरह के संगठन- भारतीय ज़मीन, उसकी संस्कृति के बहुत ऊपर आसमान में लटके हुए से थे-आज वे सभी धड़ाम से गिर पड़े हैं.... आसान ज़बान में कहें तो सब के सब फ़ेल हो गए हैं...
इस हक़ीक़त को आत्मसात कर लेने में कोई बुराई नहीं है, कि भारतीय नारीवादी संगठनों की सियासी और व्यक्तिगत धारणाएँ और विचारधाराएं "हिन्दोस्तान" की नहीं, बल्कि उस अलिखित मनुवादी (संविधान के रहते) क़ानून (हिन्दु बनाम ब्राहमणी राष्ट्र के ख़ाब को) को नहला-धुलाकर, अच्छे कपड़ों, भीनी ख़ुशबू में लपेट कर ज़िन्दा रखने वाली ही साबित हुई है।
हिन्दोस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब को दोबारा ज़िन्दा करने, क़ायम रखने का आंदोलन जो 15 दिसंबर 2019 की दरमियानी रात को शाहीन बाग़ ने शुरू किया और देखते ही देखते हज़ारों की तादाद में बाग़ और करोड़ों की तादाद में मुल्क की आम ख़वातीन ने लाठी, डंडे खाकर, पुलिस के हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मोहब्बत से जो शमा रौशन की है इंशाअल्लाह वो रौशनी अब मद्धम नहीं पड़ने दी जाएगी। बेफ़िक्र रहें आप तमाम सफ़ूरा जरगर, इशरतजहाँ, मीरान हैदर,  और मुल्क भर के जांनशीन सिपहसालारों आप सबके लिए ही शायर ने लिखा है---
हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़े आख़िरी शब, 
हमारे बाद अंधेरा नहीं उजाला होगा"....!!
ज़िन्दाबाद साथियों...



(लेखिका महिला आंदोलनों और तमाम सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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