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दोज़ख़ - इस्लाम के खिलाफ बगावत

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टीवी पत्रकार और लेखक सैयद जैगम इमाम के उपन्यास दोजख का विमोचन सोमवार शाम दिल्ली के मंडी हाउस स्थित त्रिवेणी कला संगम में किया गया। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब का विमोचन जाने - माने साहित्यकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने किया कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी के विख्यात आचोलक नामवर सिंह ने की। इस मौके पर बोलने वालों में आईबीएन सेवन के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष, मशहूर साहित्यकार अनामिका और शोधकर्ता शीबा असलम फहमी शामिल थीं। मंच का संचालन सीएसडीएस से जुड़े रविकांत ने किया। कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत अतिथियों को फूल भेंटकर की गई। कार्यक्रम में सबसे पहले अपनी बात रखते हुए आईबीएन 7के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष ने कहा कि उन्हें इस उपन्यास को पढ़कर अपना बचपन याद गया। उन्होंने अपने वक्तव्य में बनारस, मिर्जापुर और चंदौली की भाषा का इस्तेमाल किया और कहा कि जैगम का उपन्यास भाषा के स्तर पर लाजवाब है। उन्होंने उपन्यास के संदर्भ के जरिए मुस्लिम समाज को लेकर पैदा की जा रही भ्रांतियों पर भी कड़ा प्रहार किया। दोज़ख़ को इस्लाम से बगावत की किताब बताते हुए आशुतोष ने साफ कहा कि मुसलमान अब उस अंदाज में

इस कुरबानी को भी पहचानिए

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मेरा यह लेख शुक्रवार 27 नवंबर 2009 को नवभारत टाइम्स , नई दिल्ली में संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ। इस लेख को नवभारत टाइम्स से साभार सहित मैं आप लोगों के लिए इस ब्लॉग पर पेश कर रहा हूं। यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर भी है, जहां पाठकों की टिप्पणियां आ रही हैं। अगर उन टिप्पणियों को पढ़ना चाहते हैं तो वहां इस लिंक के जरिए पहुंच सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5272127.cms -यूसुफ किरमानी बकरीद अपने आप में बहुत अनूठा त्योहार है। हालांकि इस्लाम धर्म के बारे में ज्यादा न जानने वालों के लिए यह किसी हलाल जानवर को कुरबानी देने के नाम पर जाना जाता है लेकिन बकरीद सिर्फ कुरबानी का त्योहार नहीं है। यह एक पूरा दर्शन है जिसके माध्यम से इस्लाम ने हर इंसान को एक सीख देने की कोशिश की है। हालांकि कुरानशरीफ की हर आयत में इंसान के लिए पैगाम है लेकिन इस्लाम ने जिन त्योहारों को अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाया, वह भी कहीं न कहीं कुछ संदेश लिए नजर आते हैं। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम से उनकी सबसे प्यारी चीज कुरबान करने की बात कही थी, इब्राहीम ने काफी मनन-चिंतन के बाद अपने बेटे की कुरबान

न डगमगाए इंसाफ का तराजू

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भारतीय अदालतें अगर वक्त के साथ खुद को बदल रही हैं तो यह अच्छा संकेत है। इधर हाल के वर्षों में कुछ अदालतों ने ऐसे फैसले सुनाए जिन पर आम राय अच्छी नहीं बनी और इस जूडिशल एक्टिविज्म की तीखी आलोचना भी हुई। लेकिन इधर अदालतें कुछ फैसले ऐसे भी सुनाती हैं जिन पर किसी की नजर नहीं जाती लेकिन उसके नतीजे बहुत दूरगामी होते हैं या हो सकते हैं। हैरानी तो यह है कि ऐसे मामलों की मीडिया में भी बहुत ज्यादा चर्चा नहीं होती। पहले तो बात उस केस की करते हैं जिसमें अदालत की टिप्पणी का एक-एक शब्द मायने रखता है। दिल्ली में रहने वाली आशा गुलाटी अपने बेटे के साथ करोलबाग इलाके से गुजर रही थीं। उनके वाहन को एक बस ने टक्कर मार दी। आशा को अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई। आशा गुलाटी खुद नौकरी करती थीं और उनके पति भी जॉब में थे। गौरव बीसीए कर रहा था। आशा के परिवार ने मुआवजे के लिए कोर्ट में मुकदमा किया। अदालत में बस का इंश्योरेंस करने वाली कंपनी ने दलील दी कि आशा पर परिवार का कोई सदस्य आश्रित नहीं था, उनके पति जॉब करते हैं। गौरव का खर्च वह उठा रहे हैं, ऐसे में मुआवजे का हक आशा के परिवार को नहीं है। देखने में यह

क्या होगा इन कविताओं से

उन्हें मैं करीब एक दशक से जानता हूं। आजतक मिला नहीं लेकिन यूपी के एक बड़े नामी और ईमानदार आईएएस अफसर हरदेव सिंह से जब उनकी तारीफ सुनी तो जेहन में यह बात कहीं महफूज रही कि इस शख्स से एक बार मिलना चाहिए। उनका नाम है प्रो. शैलेश जैदी। वह पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हिंदी के विभागाध्यक्ष भी रहे। हरदेव सिंह ने भी यही बताया था कि शैलेश साहब हिंदी के वाकई बड़े विद्वान हैं। मेरी मुलाकात उनसे अब तक नहीं हुई। अभी जब दिलीप मंडल ने इशरतजहां पर नीचे वाली कविता इस ब्लॉग हिंदी वाणी के लिए लिखी तो प्रतिक्रिया में उन्हीं प्रो. शैलेश जैदी ने एक कविता भेजी है। जिसे मैं इस ब्लॉग के पाठकों और मित्रों के लिए पेश कर रहा हूं - क्या होगा इन कविताओं से कितने हैं दिलीप मन्डल जैसे लोग ? और क्या होता है इन कविताओं से ? आंसू भी तो नहीं पोंछ पातीं ये एक माँ के। अप्रत्यक्ष चोटें व्यंग्य तो कहला सकती हैं, पर गर्म लोहे के लिए हथौडा नहीं बन सकतीं । इसलिए कि गर्म लोहा अब है भी कहाँ अब तो हम ठंडे लोहे की तरह जीते हैं और गर्म सांसें उगलते हैं। हरिजन गाथा की बात और थी वह किसी इशरत जहाँ पर लिखी गयी कविता नहीं थी, इश

माफी तो मांगनी चाहिए

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-दिलीप मंडल इशरत जहां केस के कवरेज के लिए नहीं तो अपनी भाषा के लिए, अपनी अनीति के लिए। मुकदमे का फैसला होने तक अभियुक्त लिखा जाता है अपराधी नहीं हम सब जानते हैं पत्रकारिता के स्कूलों यही तो पढ़ते हैं। लेकिन हममें उतना धैर्य कहां मुठभेड़ में मरने वालो को आंतकवादी कहने में देर कहां लगाते हैं हम? मुठभेड़ कई बार फर्जी होती है, पुलिस जानती है कोर्ट बताती है, हम भी जानते हैं, लेकिन हमारे पास उतना वक्त कहां हमें न्यूज ब्रेक करनी होती है सनसनीखेज हेडलाइन लगानी होती है वक्त कहां कि सच और झूठ का इंतजार करें। फर्जी और असली की मीमांसा करने की न हममें इच्छा होती है और न ही उतनी मोहलत और न जरूरत। इसलिए हम हर मुठभेड़ को असली मानते हैं फर्जी साबित होने तक। हम इशरत की मां से माफी नहीं मांग सकते मजिस्ट्रेट की जांच में ये साबित होने के बाद भी कि वो मुठभेड़ फर्जी थी। हम इससे कोई सबक नहीं सीखेंगे अगली मुठभेड़ को भी हम असली मुठभेड़ ही मानेंगे मरने वालों को आतंकवादी ही कहेंगे क्योंकि पुलिस ऐसा कहती है। मरने वालों के परिवार वालों की बात सुनने का धैर्य हममें कहां, पुलिस को नाराज करके क्राइम रिपोर्टिंग चलती है

आतंकवादी की मां

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ब्रेकिंग न्यूज...वह आतंकवादी की मां है, उसकी लड़की लश्कर-ए-तैबा से जुड़ी हुई थी। उसका भाई भी लश्कर से ही जुड़ा मालूम होता है। इन लोगों ने लश्कर का एक स्लीपर सेल बना रखा था। इनके इरादे खतरनाक थे। ये लोग भारत को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते थे। यह लोग आतंकवाद को कुचलने वाले मसीहा नरेंद्र मोदी की हत्या करने निकले थे लेकिन इससे पहले गुजरात पुलिस ने इनका काम तमाम कर दिया। कुछ इस तरह की खबरें काफी अर्से बाद हमें मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। अर्से बाद पता चलता है कि सरकारी एजेंसियों ने मीडिया का किस तरह इस्तेमाल किया था। आम लोग जब कहते हैं कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है तो हमारे जैसे लोग जो इस पेशे का हिस्सा हैं, उन्हें तिलमिलाहट होती है। लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए। अगर आज मीडिया की जवाबदेही (Accountability of Media ) पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो यह ठीक हैं और इसका सामना किया जाना चाहिए। मीडिया की जो नई पीढ़ी इस पेशे में एक शेप ले रही है और आने वाले वक्त में काफी बड़ी जमात आने वाली है, उन्हें शायद ऐसे सवालों का जवाब कुछ ज्यादा देना पड़ेगा। गुजरात में हुए फर्जी एनकाउंटर (Fake Encounter) की खबर

सलीम की दाढ़ी का एक पक्ष यह भी है...

मध्य प्रदेश के एक ईसाई स्कूल में पढ़ने वाले मुस्लिम छात्र की दाढ़ी पर मेनस्ट्रीम मीडिया में भी बहस शुरू हो चुकी है। हिंदी वाणी ब्लॉग पर इस मुद्दे को सबसे पहले अलीका द्वारा लिखे गए एक लेख के माध्यम से सबसे पहले उठाया गया था। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमें कोर्ट ने ईसाई स्कूल के फैसले से सहमति जताई है। पूरा संदर्भ समझने के लिए पहले नीचे का लेख पढ़ें और फिर प्रदीप कुमार के इस लेख पर आएं। प्रदीप कुमार नवभारत टाइम्स में कोआर्डिनेटर एडीटर थे और हाल ही में रिटायर हुए हैं लेकिन विभिन्न विषयों पर उनके लिखने का सिलसिला जारी है। उनका यह लेख सलीम की दाढ़ी के मुद्दे को नए ढंग से देख रहा है। अपने नजरिए को दरकिनार करते हुए पेश है प्रदीप कुमार का लेख, जिसे नवभारत टाइम्स से साभार सहित लिया गया है। - यूसुफ किरमानी आखिर दाढ़ी क्यों रखना चाहता है सलीम -प्रदीप कुमार भोपाल के निर्मला कान्वंट हायर सेकंडरी स्कूल के एक छात्र मोहम्मद सलीम की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी और उस पर बड़ी बेंच का प्रस्तावित फैसला संवैधानिक एवं सांप्रदायिक संबंधों के इतिहास में लंबे समय तक

मुशर्रफ और भारतीय मुसलमान

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भारतीय मीडिया की यह विडंबना है कि अगर कोई मीडिया हाउस अच्छा काम करता है तो दूसरा उसे दिखाने या छापने के लिए तैयार नहीं होता। हिंदी मीडिया में तो यह स्थिति तो और भी बदतर है। अभी इंडिया टुडे का एक कॉनक्लेव हुआ, जिसमें पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व मिलिट्री डिक्टेटर परवेज मुशर्फ भी आए। उस कॉनक्लेव में जो कुछ हुआ, उसकी रिपोर्टिंग अधिकांश मीडिया हाउसों ने नहीं की। खैर वह तो अलग मुद्दा है लेकिन मुशर्रफ साहब ने जो कुछ कहा और जो उनको जवाब मिला, वह सभी को जानना चाहिए। पाकिस्तान में तो लोकतंत्र कहीं गुमशुदा बच्चे की तरह हो गया है, इसलिए वहां के नेता अक्सर भारत में आकर अपना गला साफ कर जाते हैं। मुशर्रफ ने अपने भाषण में भारत और पाकिस्तान की तुलना मिलिट्री रेकॉर्ड, आईएसआई और रॉ (रिसर्च एनॉलिसिस विंग, भारत) के मामले में कर डाली। दोनों ही देशों की मिलिट्री को कोसा। दोनों देशों में सुरसा की मुंह की तरफ फैल रहे आतंकवाद पर भी घड़ियाली आंसू बहाए। यहां तक सब ठीक था लेकिन जब उन्होंने भारतीय मुसलमानों की तुलना पाकिस्तान के मुसलमानों से की तो गजब ही हो गया। मेरा और मेरे जैसे तमाम लोगों को इसका अनुमा

बिछने लगी है मुस्लिम वोटों के लिए बिसात

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 25 फरवरी 2009 को संपादकीय पेज पर प्रथम लेख के रूप में प्रकाशित है। सामयिक होने के कारण इस ब्लॉग के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस पर आई टिप्पणियों को आप नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4184206.cms पार्टियां मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन खुद उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासत के खिलाड़ी अपने-अपने मोहरे लेकर तैयार हो गए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में वोटों के लिए बिसात बिछाई जा रही है। इसमें भी सबसे ज्यादा जोर मुस्लिम वोटों के लिए है। कहीं कोई पार्टी उलेमाओं का सम्मेलन बुला रही है तो कहीं से कोई उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली तक पहुंचाकर अपना मकसद हासिल कर रहा है। यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं। यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग त

मुंबई हमले के लिए अमेरिका जिम्मेदार ?

सुनने में यह जुमला थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन यह जुमला मेरा नहीं है बल्कि अमेरिका में सबसे लोकप्रिय और भारतीय मूल के अध्यात्मिक गुरू दीपक चोपड़ा का है। दीपक चोपड़ा ने कल सीएनएन न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में यह बात कही है। उस इंटरव्यू का विडियो मैं इस ब्लॉग के पाठकों के लिए पेश कर रहा हूं। निवेदन यही है कि पूरा इंटरव्यू कृपया ध्यान से सुनें। अंग्रेजी में इस इंटरव्यू का मुख्य सार यह है कि जब से अमेरिका ने इराक सहित तमाम मुस्लिम देशों के खिलाफ आतंकवाद के नाम पर हमला बोला है तबसे इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं। अमेरिका आतंकवाद को दो तरह से फलने फूलने दे रहा है – एक तो वह अप्रत्यक्ष रूप से तमाम आतंकवादी संगठनों की फंडिंग करता है। यह पैसा अमेरिकी डॉलर से पेट्रो डॉलर बनता है और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, इराक, फिलिस्तीन समेत कई देशों में पहुंचता है। दूसरे वह आतंकवाद फैलने से रोकने की आड़ में तमाम मुस्लिम देशों को जिस तरह युद्ध में धकेल दे रहा है, उससे भी आतंकवादियों की फसल तैयार हो रही है। दीपक चोपड़ा का कहना है कि पूरी दुनिया में मुसलमान कुल आबादी का 25 फीसदी हैं, जिस तरह अमेरिका के ने

India's Leaders Need to Look Closer to Home

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The Assault on Mumbai By TARIQ ALI The terrorist assault on Mumbai’s five-star hotels was well planned, but did not require a great deal of logistic intelligence: all the targets were soft. The aim was to create mayhem by shining the spotlight on India and its problems and in that the terrorists were successful. The identity of the black-hooded group remains a mystery. Blogging To The Bank 3.0. Click Here! The Deccan Mujahedeen, which claimed the outrage in an e-mail press release, is certainly a new name probably chosen for this single act. But speculation is rife. A senior Indian naval officer has claimed that the attackers (who arrived in a ship, the M V Alpha) were linked to Somali pirates, implying that this was a revenge attack for the Indian Navy’s successful if bloody action against pirates in the Arabian Gulf that led to heavy casualties some weeks ago. The Indian Prime Minister, Manmohan Singh, has insisted that the terrorists were based outside

मुसलमान को उसके हाल पर छोड़ दीजिए

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दिल्ली के जामिया नगर इलाके में बटला हाउस एनकाउंटर (batla house encounter) को लेकर राजनीतिक दल सक्रिय हो गए हैं। एनकाउंटर के कुछ दिनों तक तो राजनीतिक दल खामोश रहे और इस दौरान बटला हाउस और आजमगढ़ के तमाम मुसलमान आतंकवादी (muslim terrorist) और पाकिस्तानी करार दे दिए गए। अभी जब दिल्ली समेत कुछ राज्यों में चुनाव की घोषणा हुई और जिसे लोकसभा से पहले मिनी आम चुनाव कहा जा रहा है, राजनीतिक दलों ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए इस मुद्दे को उठा दिया। कांग्रेस और बीजेपी को छोड़कर सभी ने एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग कर डाली। सबसे मुखर समाजवादी पार्टी नजर आई। इसके नेता अमर सिंह ने पहले तो एनकाउंटर में मारे गए या शहीद हुए (आप जो भी कहना चाहें) दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के परिवार को दस लाख रुपये का चेक देने में अपनी फजीहत कराई। मैं समझता हूं कि समाजवादी पार्टी औऱ अमर सिंह की ओर से यह विवाद जानबूझकर पैदा किया गया, जिससे यूपी के मुसलमानों को संदेश दिया जा सके। इसके बाद अमर सिंह तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी को लेकर बटला हाउस इलाके में पहुंचे और रात को एक रैली कर घटना की न्या