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जामिया...आइए कुतर्क करें

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जामिया यूनिवर्सिटी पर वाले नीचे के लेख पर यहां-वहां की गई टिप्पणियां आप लोगों ने देख ली होंगी। टिप्पणी करने वालों ने आपस में भी बहस कर डाली। खैर, कुछ लोगों ने सामने न आने की कसम खा रखी है और वे अब ईमेल के जरिए अपनी बात लिखकर भेज रहे हैं। इनमें कुतर्क करने वालों की तादाद ज्यादा है और संजीदा बात करने वालों की बात कम है। कुतर्क करने वालों का कहना है कि इस यूनिवर्सिटी को आतंकवाद फैलाने के लिए ही बनाया गया है। इसके पक्ष में सिर्फ और सिर्फ उनके पास बटला हाऊस एनकाउंटर जैसी घटना बताने के लिए है। इन लोगों का कहना है कि पुलिस कभी भी आतंकवादी के नाम पर झूठा एनकाउंटर नहीं करती। इसलिए दिल्ली पुलिस अपनी जगह सही है। बहरहाल, इन बातों को आप अपनी कसौटी पर रखकर देखें। मुझे इस मामले में सिर्फ इतना कहना है कि जामिया यूनिवर्सिटी सभी की है और इसका मूल स्वरूप धर्म निरपेक्ष रहा है और अब भी है। मौजूदा वीसी मुशिरूल हसन के यहां आने के बाद इस यूनिवर्सिटी ने अपनी अच्छी ही इमेज बनाई है। अगर कांग्रेस या बीजेपी या इनसे जुड़े लोगों को इस वीसी की बात पसंद नहीं है तो उसमें उस वीसी का क्या कसूर? कम से कम वह तो इन राजनीति

दर्द-ए-जामिया

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नोट – आज मैं आप लोगों से मुखातिब नहीं हूं। जामिया यूनिवर्सिटी की जो छवि देश-विदेश में बनाई जा रही है, उससे संबंधित और सरोकार रखने वाले सभी आहत हैं। वरिष्ठ पत्रकार सौरभ भारद्वाज जामिया के पूर्व छात्र हैं और इन दिनों नवभारत टाइम्स को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मेरे ब्लॉग पर नीचे वाला लेख पढ़ने के बाद उन्होंने यह प्रतिक्रिया भेजी जो मैं इस ब्लॉग पर लेख के रूप में पेश कर रहा हूं। हाजिर हैं बकलम खुद सौरभ भारद्वाज - - सौरभ भारद्वाज जामिया इन दिनों सुर्खियों में है और जामिया से जुड़ी मेरी यादें एकदम तरोताजा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जहां की तहजीब में शुमार है, जहां तालीम हासिल करना किसी मुस्लिम के लिए ही नहीं बल्कि किसी हिंदू के लिए भी गर्व की बात है, ऐसे जामिया को बेशक एक-दो साल ही सही लेकिन मैंने बेहद नजदीक से देखा है। उसकी धडक़न को महसूस किया है। गालिब के बुत के अगल-बगल बिताए गए घंटों और अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि पिछले लगभग 5-6 हफ्तों में इस यूनिवर्सिटी की जो राष्ट्र विरोधी इमेज गढ़ दी गई है, यह यूनिवर्सिटी वैसी नहीं है। सात-आठ साल ही बीते हैं जब मैं जामिया के हिंदी विभाग मे

मुशीरुल हसन की आवाज सुनो

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दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में 30 अक्टूबर को दीक्षांत समारोह था। प्रो. अनंतमूर्ति मुख्य अतिथि थे और दीक्षांत भाषण भी उन्ही का था। लेकिन जिस भाषण पर सबसे ज्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है वह है वहां के वीसी मुशीरुल हसन का। मुशीरुल हसन के भाषण में जामिया का दर्द बाहर निकल आया है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि जामिया के छात्रों के लिए नौकरियां खत्म की जा रही हैं। उन्हें बाहर यह कहकर नौकरी देने से मना कर दिया जाता है कि जामिया यूनिवर्सिटी में तो आतंकवाद की ट्रेनिंग दी जाती है, इसलिए वहां के पढ़े छात्रों के लिए कोई नौकरी नहीं है। यहां पर प्राइवेट कंपनियों की कैब लाने से ड्राइवर यह कहकर मना कर देते हैं कि वहां तो आतंकवादी रहते हैं, इसलिए वे वहां नहीं जाएंगे। सचमुच, यह बहुत भयावह हालात हैं। किसी देश की मशहूर यूनिवर्सिटी का वीसी अगर यह बात पूरे होशहवास में कह रहा है तो इस पर विचार किया जाना चाहिए। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब इसी जामिया नगर इलाके के बटला हाउस में एक विवादित एनकाउंटर हुआ, जिसमें दो युवक और एक पुलिस वाला मारे गए। इसके बाद वहां राजनीतिक पार्टियां अपने ढ

हिंदुत्व...संस्कृति...कमेंट या बहसबाजी

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संदर्भः मोहल्ला और हिंदीवाणी ब्लॉगों पर टिप्पणी के बहाने बहसबाजी (मित्रों, आप हमारे ब्लॉग पर आते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं, मैं आपके ब्लॉग पर जाता हूं, प्रतिक्रिया देता हूं। यहां हम लोग विचारों की लड़ाई नहीं लड़ रहे। न तो मैं आपके ऊपर अपने विचार थोप सकता हूं और न ही आप मेरे ऊपर अपने विचार थोप सकते हैं। हम लोग एक दूसरे प्रभावित जरूर हो सकते हैं।) मेरे नीचे वाले लेख पर कॉमनमैन ने बड़ी तीखी प्रतिक्रिया दी है। हालांकि बेचारे अपने असली नाम से ब्लॉग की दुनिया में आने से शरमाते हैं। वह कहते हैं कि हिंदुओं को गलियाने का ठेका मेरे या मोहल्ला के अविनाश जैसे लोगों ने ले रखा है। शायद आप सभी ने एक-एक लाइन मेरे ब्लॉग पर पढ़ी होगी, कहीं भी किसी भी लाइन में ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई है। फिर भी साहब का गिला है कि ठेके हम लोगों के पास है। आप पंथ निरपेक्षता के नाम पर किसी को भी गाली दें लेकिन आप जैसे लोगों को पकड़ने या कहने वाला कोई नहीं है। अलबत्ता अगर कोई सेक्युलरिज्म की बात करता है तो आप जैसों को बुरा लगता है। अब तो बाबा साहब आंबेडकर को फिर से जन्म लेकर भारतीय संविधान का पुनर्लेखन करना पड़ेगा कि भाई हम

भारतीय संस्कृति के ठेकेदार

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कल मैं अविनाश के मोहल्ले (http://mohalla.blogspot.com)में गया था। वहां पर एक बढ़िया पोस्ट के साथ अविनाश हाजिर थे। उनके लेख का सार यह था कि किस तरह उनके मुस्लिम सहकर्मियों ने दीवाली की छुट्टी के दौरान काम करके अपने हिंदू सहकर्मियों को दीवाली मनाने का मौका दिया। यानी त्योहार पर हर कोई छुट्टी लेकर अपने घर चला जाता है तो ऐसे में अगर उस संस्थान में मुस्लिम कर्मचारी हैं तो वे अपना फर्ज निभाते हैं। यह पूरे भारत में होता है और अविनाश ने बहुत बारीकी से उसे पेश किया है। लेकिन मुझे जो दुखद लगा वह यह कि कुछ लोगों ने अविनाश के इतने अच्छे लेख पर पर भी अपनी जली-कटी प्रतिक्रिया दी। उनमें से एक महानुभाव तो कुछ ऐसा आभास दे रहे हैं कि हिंदू महासभा जैसे साम्प्रदायिक संगठन से बढ़कर उनकी जिम्मेदारी है और भारतीय मुसलमानों को पानी पी-पीकर गाली देना उनकी ड्यूटी है। यह सज्जन कई बार मेरे ब्लॉग पर भी आ चुके हैं और तमाम उलूल-जुलूल प्रतिक्रिया दे चुके हैं। इन जैसे तमाम लोगों का कहना है कि मुसलमानों ने कभी भारतीय संस्कृति को नहीं अपनाया और न यहां के होकर रहे। मैं नहीं जानता कि यह सजज्न कौन हैं और कहां रहते हैं। लेकि

हम सभी को रोशनी की जरूरत है...

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आप सभी बलॉगर्स को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई। उनका भी शुक्रिया जिन्होंने मेरे लेखों को पढ़ने के बाद यहां पर या ई-मेल के जरिए प्रतिक्रिया के बहाने दीपावली की शुभकामना दी। उम्मीद है हम लोगों का यह कारवां इसी तरह आगे बढ़ता रहेगा। (आमीन)

Ek ziddi dhun: सड़ांध मार रहे हैं तालाब

मेरे ही साथी भाई, धीरेश सैनी ने अपने ब्लॉग पर एक गांधीवादी अनुपम मिश्र के सेक्युलरिज्म का भंडाफोड़ किया है। उस पर काफी तीखी प्रतिक्रियाएं भी उन्हें मिली हैं। क्यों न आप लोग भी उस लेख को पढ़ें। ब्लॉग का लिंक मैं यहां दे रहा हूं। Ek ziddi dhun: सड़ांध मार रहे हैं तालाब