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पाकिस्तान पर हमले से कौन रोकता है ?

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मुंबई पर हुए सबसे बड़े हमले के बारे में ब्लॉग की दुनिया और मीडिया में बहुत कुछ इन 55 घंटों में लिखा गया। कुछ लोगों ने अखबारों में वह विज्ञापन भी देखा होगा जो मुंबई की इस घटना को भुनाने के लिए बीजेपी ने छपवाया है जिससे कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में उसका लाभ लिया जा सके। सांप्रदायिकता फैलाने वाले उस विज्ञापन की एनडीटीवी शुक्रवार को ही काफी लानत-मलामत कर चुका है। यहां हम उसकी चर्चा अब और नहीं करेंगे। मुंबई की घटना को लेकर लोगों का आक्रोश स्वाभाविक है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। देश के एक-एक आदमी की दुआएं सुरक्षा एजेंसियों के साथ थीं लेकिन सबसे दुखद यह रहा कि इसके बावजूद तमाम लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठे। कोई राजनीतिक दल या उसका नेता अगर मानसिक संतुलन ऐसे मुद्दों पर खोता है तो उसका इतना नोटिस नहीं लिया जाता लेकिन अगर पढ़ा-लिखा आम आदमी ब्लॉग्स पर उल्टी – सीधी टिप्पणी करेगा तो उसकी मानसिक स्थिति के बारे में सोचना तो पड़ेगा ही। मुंबई की घटना को लेकर इस ब्लॉग पर और अन्य ब्लॉगों पर की गई टिप्पणियां बताती हैं कि फिजा में कितना जहर घोला जा चुका है। इसी ब्लॉग पर नीचे वाली पोस्ट मे

शुक्रिया मुंबई...और आप सभी के जज्बातों का

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मुंबई ने फिर साबित किया है कि वह जीवट का शहर है। उसे गिरकर संभलना आता है। उस पर जब-जब हमले हुए हैं, वह घायल हुई लेकिन फिर अपने पैरों पर खड़ी हो गई। 1993 में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के बाद मुंबई ने यह कर दिखाया और अब जब बुधवार देर रात को उस पर सबसे बड़ा हमला हुआ तब वह एक बार फिर पूरे हौसले के साथ खड़ी है। मुट्ठी भर आतंकवादी जिस नीयत से आए थे, उन्हें उसमें रत्तीभर कामयाबी नहीं मिली। उनका इरादा था कि बुधवार के इस हमले के बाद प्रतिक्रिया होगी और मुंबई में बड़े पैमाने पर खून खराबा शुरू हो जाएगा लेकिन उनके ख्वाब अधूरे रहे। मुंबई के लोग एकजुट नजर आए और उन्होंने पुलिस को अपना आपरेशन चलाने में पूरी मदद की। हालांकि मुंबई पुलिस ने इस कार्रवाई में अपने 14 अफसर खो दिए हैं लेकिन मुंबई को जिस तरह उन लोगों ने जान पर खेलकर बचाया है, वह काबिलेतारीफ है। इस घटना को महज एक आतंकवादी घटना बताकर भुला देना ठीक नहीं होगा। अब जरूरत आ पड़ी है कि सभी समुदायों के लोग इस पर गंभीरता से विचार करें और ऐसी साजिश रचने वालों को बेनकाब करें। ऐसे लोग किसी एक खास धर्म या जाति में नहीं हैं। इनकी जड़ें चारों तरफ फैली हुई हैं। मु

स्सा..ले..नमक हराम...देशद्रोही...आतंकवादी

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दिन बुधवार, रात 10.35...क्रिकेट मैच खत्म हो चुका है...भारत फिर किसी देश को हरा चुका है...टीवी पर फ्लैश – मुंबई पर आतंकवादी हमला... ...लीजिए भारत फिर हार गया...अपने ही लोग हैं...अपनों को ही निशाना बना रहे हैं। एक जगह नहीं...कई – कई जगह गोलियां बरस रही हैं...ग्रेनेड फेंके जा रहे हैं...टीवी पर सब कुछ लाइव है...न्यूज चैनल वालों के लिए एक रिएलिटी शो से भी बड़ा आयोजन...ऐसा मौका फिर कब मिलेगा...पब्लिक से मदद मांगी जा रही है...आप हमें फोन पर हालात की जानकारी दीजिए...आप ही विडियो बना लें या फोटो खींच लें...हम आपके नाम से दिखाएंगे...पब्लिक में लाइव होने का क्रेज पैदा करने की कोशिश...सिटिजन जर्नलिस्ट के नाम पर ही सही...पब्लिक जितनी क्रेजी होती जाएगी...शो उतना ही कामयाब होगा और टीआरपी आसमान पर। अरे...अरे... ...विषय पर रहिए...भटक क्यों रहे हैं? चंदन को चिंता है...इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है। इराक बनाने की साजिश। सुरेश को...पूरी इकनॉमी खतरे में नजर आ रही है। राकेश को यह सब मुसलमानों की साजिश लग रही है...स्साले पाकिस्तान से मिले हुए हैं...नमकहरामी कर रहे हैं...। अरविंद आहत है...नहीं बे.

हमारा धर्म है झूठ बोलना

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कोई नेता जब सत्ता हासिल करने के लिए पहला कदम बढ़ाता है तो उसकी शुरुआत झूठ से होती है। हर बार चुनाव में यही सब होता है और देश चुपचाप यह सब होते हुए देखता है। चुनाव आयोग एक सीमा तक अपनी जिम्मेदारी निभाकर चुप हो जाता है। यहां पर हम बात उन प्रत्याशियों की कर रहे हैं जो दलितों की मसीहा पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से टिकट हासिल कर चुनाव मैदान में उतरे हैं। बात देश की राजधानी दिल्ली की ही हो रही है। दिल्ली के महरौली विधानसभा क्षेत्र से कोई वेद प्रकाश हैं जिनके पास 201 करोड़ की संपत्ति है। यह बात उन्होंने चुनाव आयोग में जमा कराए गए हलफनामे में कही है। दूसरे नंबर पर बीएसपी के ही छतरपुर (दिल्ली) विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी कंवर सिंह तंवर हैं जिनके पास 157 करोड़ की संपत्ति है। इसके अलावा दिल्ली में कम से कम उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके पास एक करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है। चुनाव आयोग के पास जमा यह सब दस्तावेजों में दर्ज है। यह सभी 153 प्रत्याशी बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी के ही हैं। सिर्फ पांच प्रत्याशी ऐसे हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति शून्य (जीरो) दिखाई है। लेकिन इनमें से जिन वेद प्रकाश का जिक्र

नेता का बेटा नेता बने, इसमें समस्या है

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- स्वतंत्र जैन ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस में तूफान आया हुआ है। आरोप है कि पार्टी में टिकट बेचे गए हैं। आरोप पार्टी की ही एक महासचिव ने लगाया है। इस पूरे विवाद पर गौर करें तो इसमे दो छोर साफ नजर आते हैं। एक तरफ आधुनिकता है तो दूसरी तरफ परंपरावादी। एक तरफ भारतीय पॉलटिक्स के ओल्ड गार्ड हैं तो दूसरी तरफ युवा नेता। जमे जमाए और खुर्राट नेता जहां यह कह रहे हैं कि 'जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और वकील का बेटा वकील बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता, तो राहुल गांधी जैसे युवा नेता कह रहे हैं पॉलटिक्स में एंट्री कैसे हो इसका भी एक तरीका होना चाहिए। नेता का बेटा नेता बने इसमें किसी को क्या बुराई हो सकती है, आखिर जार्ज बुश सीनियर के पुत्र जार्ज बुश जूनियर भी तो आठ साल तक लोकतंत्र के मक्का माने जाने वाले अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे। पर इस स्टेटमेंट में जो बात झलकती उससे वंशवाद की बू आती है, कि नेतागीरी पर पहला हक नेता के बेटे का है। यह वही वंशवाद की बीमारी है जिसका आरोप कभी कांग्रेस पर लगा करता था और जो अब महामारी बनकर लगभग हर पार्टी को अपनी चपेट में ले चुकी है। नेता का बेटा नेतागी

जिंदा होता हुआ एक मशीनी शहर

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मशीनी शहर फरीदाबाद वैसे तो किसी परिचय का मोहताज नहीं है लेकिन जो लोग पहली बार इसके बारे में पढ़ेंगे उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह हरियाणा राज्य का तेजी से विकसित होता हुआ शहर है। यह दिल्ली से सटा हुआ है और यहां सिर्फ कल-कारखाने हैं। यह शहर दरअसल खुद में मिनी इंडिया है, जहां देश के कोने-कोने से आए लोग पुरसूकुन जिंदगी गुजारते हैं। नफरत की जो आंधियां बाकी शहरों में चलती हैं, वह यहां से कोसों दूर है। मेरी तमाम यादें इस शहर से जुड़ी हुई हैं। लंबे अर्से से इस शहर की साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा कहीं सुनाई देती थी। हाल ही में जब मुझे कथाकार हरेराम समीप उर्फ नीमा का फोन आया कि अदबी संगम को फिर से जिंदा किया जा रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अदबी संगम वह संस्था रही है जिसके जरिए मैंने साहित्य को नजदीक से जाना। आज से लगभग 15-20 साल पहले फरीदाबाद में साहित्यिक गतिविधियां चरम पर थीं। शायरों में खामोश सरहदी, अंजुम जैदी, हीरानंद सोज, डॉ. जावेद वशिष्ठ, ओम प्रकाश लागर, ओमकृष्ण राहत, के. के. बहल उर्फ केवल फरीदाबादी, उर्दू कहानी लेखकों में बड़ा नाम सतीश बत्रा, पंजाबी में तारा सिंह कोमल, स

जिंदगी की दास्तां कैसे लिखें

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इधर कई दिनों से लिखने की बजाय मैं पढ़ रहा था। खासकर गजलें और कविताएं। यहीं आपके तमाम ब्लॉगों पर। मैं मानता हूं कि तमाम बड़े-बड़े लेख वह काम नहीं कर पाते जो किसी शायर या कवि की चार लाइनें कर देती हैं। समसामयिक विषयों पर कलम चलाने वाले कृपया मेरी इस बात से नाराज न हों। क्योंकि इससे उनकी लेखनी का महत्व कम नहीं हो जाता। लेकिन यकीन मानिए की गजल या कविता से आप सीधे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। आपको लगता है कि यह शायर की यह बात आपकी गजल को कहीं छू गई। गजल और कविता के ब्लॉगों की सर्फिंग के दौरान एक बात जो मैंने खासतौर से महसूस की कि शायरों की एक बड़ी जमात मौजूदा दौर के हालात पर बेबाकी से अपनी कलम चला रही लेकिन उसकी तुलना में हिंदी में यह काम जरा कम ही हो रहा है। मैं यहां हास्य के नाम पर मंच पर फूहड़ कविताई करने वालों की बात नहीं कर रहा जो दिहाड़ी के हिसाब से किसी भी विषय पर कुछ भी लिख मारते हैं। उम्मीद है कि इससे अगली पोस्ट में मैं दो ऐसे शायरों से आपका परिचय कराऊं जो बेहद खामोशी से अपने रचना संसार में लगे हुए हैं। हाल ही में इनकी दो पुस्तकों का विमोचन भी हुआ, जिसके बहाने मुझे इनके बारे में और ज