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...तो किसको वोट देंगे आप ?

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चुनाव का आखिरी दौर खत्म होने में कुछ घंटे बचे हैं। देश के एक बड़े हिस्से में वोट पड़ चुके हैं और दिल्ली, हरियाणा व यूपी के कुछ हिस्सों में 7 मई को वोट पड़ने वाले हैं। एक और दौर इसके बाद होगा और तब कहीं जाकर नतीजे आएंगे। आपने अपने शहर में जहां-तहां और समाचारपत्रों, टीवी और रेडियो पर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नारों और वायदों को जरूर सुना होगा। हो सकता है कि आपने इसमें दिलचस्पी न ली हो लेकिन एकाध बार नजर जरूर मारी होगी।...तो बताइए कि आप किसको वोट देने जा रहे हैं या फिर आपने किसको वोट दिया है।...मुझे क्या आपको भी पता है कि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देने वाला। वोट देना एक नितांत निजी फैसला होता है। जाहिर है कोई नहीं बताएगा। फिर मेरी इस बात की कवायद का मकसद क्या है। मुद्दे पर आता हूं। सभी राजनीतिक दलों के वायदों पर गौर कीजिए, इरादा तो आप उनका जानते ही हैं। केंद्र में चूंकि यूपीए की सरकार है और कांग्रेस उसे चला रही है तो सबसे पहले कांग्रेस की ही बात। ...काला धन हम ही वापस लाएंगेः मनमोहन सिंह ...विदेशी बैंकों में पड़ा काला धन यूपीए सरकार वापस नहीं ला सकी। हम लेकर आएंगेः बीजेपी के पीएम इन वेटि

प्रेस फ्रीडम को कूड़ेदान में फेंक दो

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आज प्रेस फ्रीडम डे है। अंग्रेजी में यही नाम दिया गया है। मित्र लोग संदेश भेज रहे हैं कि आज की-बोर्ड की आजादी की रक्षा करें। मतलब कलम की जगह अब चूंकि कंप्यूटर के की-बोर्ड ने ले ली है तो जाहिर है कि अब कलम की बजाय की-बोर्ड की आजादी की बात ही कही जाएगी। आप तमाम ब्लॉगर्स में से बहुत सारे लोग पत्रकार है और जो नहीं हैं वे ब्लॉगर होने के नाते पत्रकार हैं। क्या आप बता सकते हैं कि क्या वाकई प्रेस फ्रीडम नामक कोई चीज बाकी बची है। भयानक मंदी के दौर में तमाम समाचारपत्र और न्यूज चैनल जिस दौर से गुजर रहे हैं क्या उसे देखते हुए प्रेस फ्रीडम बाकी बची है। तमाम लोग जो इन संचार माध्यमों में काम कर रहे हैं वह बेहतर जानते हैं कि कि प्रेस फ्रीडम शब्द आज के दौर में कितना बेमानी हो गया है। आज कोई भी मिशनरी पत्रकारिता नहीं कर रहा है और न ही इसकी जरूरत है। हम लोग अब तथाकथित रूप से प्रोफेशनल हो गए हैं और प्रोफेशनल होने में हम मशीन बन जाते हैं तो क्या उसमें कहीं फ्रीडम की गुंजाइश बचती है। प्रेस की दुनिया में अब सारा काम इशारेबाजी में होता है। बड़े से लेकर छोटे तक को बस इशारे किए जाते हैं। मेरा मानना है कि प्रेस

बढ़ गया है जूते का सम्मान

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-चंदन शर्मा आखिर साबित हो ही गया कि जूते की ताकत कलम से ज्यादा हो चुकी है। चाहे वह इराक हो या इंडिया हर जगह जूतों की शान में इजाफा हुआ है। वैसे दोनों ही जगह इस शान को बढ़ाने वाले कलम के सिपाही ही रहे हैं। अब इसमें कोई नई बात नही है। हमेशा से ही यही कलम के सिपाही ही किसी भी चीज का भाव बढ़ाते व गिराते रहे है। इस बार जूतों की बारी आ गई। इंटरनेशनल जूता कंपनियों को इसका अहसास पहले ही हो चुका था। इसलिए सभी बड़ी कंपनियों ने पूरे देश में जूते के शोरूम की कतारें लगानी शुरु कर दी थी। कोई भी बाजार नहीं छोड़ा जहां पर जूतों की दुकान न हो। क्या पता कोई प्रतिभावान कलम का सिपाही किस गली या बाजार से निकल आए और जूतों की किस्मत चमका दे। ऐसे प्रतिभावान बिरले ही होते हैं और इनको ढ़ूंढना भी आसान काम नहीं है। विवेकानंद, महात्मा गांधी, नेहरू और जाने कितनों ने अपने-अपने ढंग से भारत की खोज करने की कोशिश की पर ऐसे प्रतिभावान की खोज नहीं कर पाए। यहां तक कि राहुल गांधी का युवा भारत की खोज का अभियान भी ऐसे महामानव को ढ़ूंढ पाने में असफल रहा। उन्हें शायद इस बात का इल्म भी नहीं हुआ होगा कि जिसे सारे देश की युवाशक्ति ढूंढ

पाकिस्तान में टीवी पत्रकारिता

एशियाई देशों में अगर टीवी पत्रकारिता कहीं सबसे ज्यादा पिछड़ी हुई है तो वह पाकिस्तान है। उनके न्यूज चैनल बड़ी सफाई से भारतीय न्यूज चैनलों के फुटेज का इस्तेमाल करते हैं। अगर भारत में घटिया से घटिया किसी टीवी चैनल की बात की जाए तो भी पाकिस्तान के टीवी चैनल बहुत पिछड़े हुए हैं। अभी किसी मित्र ने मुझे यूट्यूब की एक क्लिप भेजी, जिसे देखकर आप भी लोटपोट हुए बिना नहीं रह सकते। दरअसल, यह सब मैंने इसलिए लिखा कि पिछले दिनों पाकिस्तान के Jam News चैनल से नौकरी का आफर दिया गया कि हम आपको भारत में अपना ब्यूरो प्रमुख नियुक्त करना चाहते हैं। मैंने उनको गोलमोल जवाब दिया और उसके संपादक और मालिक लगातार ईमेल पर और फोन करके लंबी-चौड़ी डींगे मारते रहे। हालांकि मुझे उनके लिए काम नहीं करना था, क्योंकि उनकी मंशा मुझे कुछ-कुछ समझ आ रही थी। एक दिन अचानक उन लोगों का फिर फोन आया और वे उस बातचीत को लाइव करने लगे। उन्होंने कहा कि क्या JAM TV भारत में देखा जाता है, मैंने कहा – यहां तो कोई उसका नाम भी नहीं जानता। इस सवाल पर वे लोग बौखलाए। फिर कहा कि जरूर यह वहां बैन कर दिया गया होगा। मैंने कहा-पीटीवी (PTV) के बारे में

सलीम की दाढ़ी का एक पक्ष यह भी है...

मध्य प्रदेश के एक ईसाई स्कूल में पढ़ने वाले मुस्लिम छात्र की दाढ़ी पर मेनस्ट्रीम मीडिया में भी बहस शुरू हो चुकी है। हिंदी वाणी ब्लॉग पर इस मुद्दे को सबसे पहले अलीका द्वारा लिखे गए एक लेख के माध्यम से सबसे पहले उठाया गया था। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमें कोर्ट ने ईसाई स्कूल के फैसले से सहमति जताई है। पूरा संदर्भ समझने के लिए पहले नीचे का लेख पढ़ें और फिर प्रदीप कुमार के इस लेख पर आएं। प्रदीप कुमार नवभारत टाइम्स में कोआर्डिनेटर एडीटर थे और हाल ही में रिटायर हुए हैं लेकिन विभिन्न विषयों पर उनके लिखने का सिलसिला जारी है। उनका यह लेख सलीम की दाढ़ी के मुद्दे को नए ढंग से देख रहा है। अपने नजरिए को दरकिनार करते हुए पेश है प्रदीप कुमार का लेख, जिसे नवभारत टाइम्स से साभार सहित लिया गया है। - यूसुफ किरमानी आखिर दाढ़ी क्यों रखना चाहता है सलीम -प्रदीप कुमार भोपाल के निर्मला कान्वंट हायर सेकंडरी स्कूल के एक छात्र मोहम्मद सलीम की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी और उस पर बड़ी बेंच का प्रस्तावित फैसला संवैधानिक एवं सांप्रदायिक संबंधों के इतिहास में लंबे समय तक

मुल्ला जी की दाढ़ी पर सवाल

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-अलीका मध्य प्रदेश के एक मुस्लिम स्टूडेंट को उसकी दाढ़ी कटाने का आदेश देकर एक स्कूल ने फिर से इस बहस को जन्म दे दिया कि आखिर इस देश में किसी अल्पसंख्यक के मूलभूत अधिकार की व्याख्या क्या फिर से करनी चाहिएय़ क्योंकि इस मामले में जिस तरह हाई कोर्ट ने भी स्कूल का साथ दिया है, उससे इस तरह के सवाल तो खड़े ही किए जाएंगे। पहले जानिए कि पूरा मामला क्या है। मध्य प्रदेश में विदिशा जिले के निर्मला कॉन्वेंट हायर सेकेंडरी स्कूल स्कूल में 10 वीं कक्षा के छात्र मोहम्मद सलीम ने धार्मिक कारणों से दाढ़ी रखी और जब वह स्कूल में आया तो स्कूल की ईसाई प्रिंसिपल ने उसे नोटिस जारी करते हुए कहा कि या तो वह अपनी दाढ़ी कटाकर स्कूल में आए या फिर इस स्कूल से अपना नाम कटाकर कहीं और चला जाए। इस नोटिस का छात्र पर गहरा असर हुआ। उसने अदालत की शरण ली। हाई कोर्ट तक मामला पहुंचने के बाद हाई कोर्ट ने भी स्कूल का ही साथ दिया औऱ कहा कि अल्पसंख्यकों को अपने स्कूल के नियम खुद बनाने का अधिकार है। इसलिए इस बारे में कोर्ट उस स्कूल को कोई नोटिस जारी नहीं कर सकता। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया है और 30 मार्च को इस मामले की अगली

अम्मा तेरा मुंडा बिगड़ा जाए

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देश को कुनबा परस्तों की राजनीति से कब छुटकारा मिलेगा, यह तो नहीं मालूम लेकिन राजनीति में आई नई पौध से उनसे एक पीढ़ी पीछे मुझ जैसों को ही नहीं देश को भी उम्मीदें थीं लेकिन अब तो सभी लोगों का मोहभंग हो रहा है। कल तक हम लोग इस बात का रोना रोते थे कि भारत को नेहरू-गांधी (इंदिरा गांधी) परिवार के राज से कब मुक्ति मिलेगी। लेकिन इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी...राहुल गांधी के नाम लेकर दिन रात कोसने वालों ने जब देखा कि यही हाल बीजेपी में है और यही हाल समाजवादी पार्टी से लेकर शिव सेना, शरद पवार की राष्ट्रवादी पार्टी में है तो लोगों ने मुंह बंद कर लिए। एक तरह से लोगों ने धीरे-धीरे कुनबापरस्ती की राजनीति को स्वीकार करना शुरू कर दिया। लेकिन तमाम बड़े नेताओं के लाडलों ने राजनीति में अब तक कोई बहुत अच्छी मिसाल कायम करने की कोशिश नहीं की। गांधी खानदान के दो लाडलों -राहुल गांधी और वरूण गांधी को लेकर पीआर-गीरी करने वाले पत्रकारों ने तरह-तरह से प्रोजेक्ट करने की कोशिश की। राहुल को कभी यूथ ऑइकन बताया गया, कभी बताया गया कि वह ग्रामीण भारत के लिए कुछ करना चाहते हैं और इसी सिलसिले में पिछले दिनों उनक