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क्या होगा इन कविताओं से

उन्हें मैं करीब एक दशक से जानता हूं। आजतक मिला नहीं लेकिन यूपी के एक बड़े नामी और ईमानदार आईएएस अफसर हरदेव सिंह से जब उनकी तारीफ सुनी तो जेहन में यह बात कहीं महफूज रही कि इस शख्स से एक बार मिलना चाहिए। उनका नाम है प्रो. शैलेश जैदी। वह पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हिंदी के विभागाध्यक्ष भी रहे। हरदेव सिंह ने भी यही बताया था कि शैलेश साहब हिंदी के वाकई बड़े विद्वान हैं। मेरी मुलाकात उनसे अब तक नहीं हुई। अभी जब दिलीप मंडल ने इशरतजहां पर नीचे वाली कविता इस ब्लॉग हिंदी वाणी के लिए लिखी तो प्रतिक्रिया में उन्हीं प्रो. शैलेश जैदी ने एक कविता भेजी है। जिसे मैं इस ब्लॉग के पाठकों और मित्रों के लिए पेश कर रहा हूं - क्या होगा इन कविताओं से कितने हैं दिलीप मन्डल जैसे लोग ? और क्या होता है इन कविताओं से ? आंसू भी तो नहीं पोंछ पातीं ये एक माँ के। अप्रत्यक्ष चोटें व्यंग्य तो कहला सकती हैं, पर गर्म लोहे के लिए हथौडा नहीं बन सकतीं । इसलिए कि गर्म लोहा अब है भी कहाँ अब तो हम ठंडे लोहे की तरह जीते हैं और गर्म सांसें उगलते हैं। हरिजन गाथा की बात और थी वह किसी इशरत जहाँ पर लिखी गयी कविता नहीं थी, इश

माफी तो मांगनी चाहिए

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-दिलीप मंडल इशरत जहां केस के कवरेज के लिए नहीं तो अपनी भाषा के लिए, अपनी अनीति के लिए। मुकदमे का फैसला होने तक अभियुक्त लिखा जाता है अपराधी नहीं हम सब जानते हैं पत्रकारिता के स्कूलों यही तो पढ़ते हैं। लेकिन हममें उतना धैर्य कहां मुठभेड़ में मरने वालो को आंतकवादी कहने में देर कहां लगाते हैं हम? मुठभेड़ कई बार फर्जी होती है, पुलिस जानती है कोर्ट बताती है, हम भी जानते हैं, लेकिन हमारे पास उतना वक्त कहां हमें न्यूज ब्रेक करनी होती है सनसनीखेज हेडलाइन लगानी होती है वक्त कहां कि सच और झूठ का इंतजार करें। फर्जी और असली की मीमांसा करने की न हममें इच्छा होती है और न ही उतनी मोहलत और न जरूरत। इसलिए हम हर मुठभेड़ को असली मानते हैं फर्जी साबित होने तक। हम इशरत की मां से माफी नहीं मांग सकते मजिस्ट्रेट की जांच में ये साबित होने के बाद भी कि वो मुठभेड़ फर्जी थी। हम इससे कोई सबक नहीं सीखेंगे अगली मुठभेड़ को भी हम असली मुठभेड़ ही मानेंगे मरने वालों को आतंकवादी ही कहेंगे क्योंकि पुलिस ऐसा कहती है। मरने वालों के परिवार वालों की बात सुनने का धैर्य हममें कहां, पुलिस को नाराज करके क्राइम रिपोर्टिंग चलती है

आतंकवादी की मां

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ब्रेकिंग न्यूज...वह आतंकवादी की मां है, उसकी लड़की लश्कर-ए-तैबा से जुड़ी हुई थी। उसका भाई भी लश्कर से ही जुड़ा मालूम होता है। इन लोगों ने लश्कर का एक स्लीपर सेल बना रखा था। इनके इरादे खतरनाक थे। ये लोग भारत को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते थे। यह लोग आतंकवाद को कुचलने वाले मसीहा नरेंद्र मोदी की हत्या करने निकले थे लेकिन इससे पहले गुजरात पुलिस ने इनका काम तमाम कर दिया। कुछ इस तरह की खबरें काफी अर्से बाद हमें मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। अर्से बाद पता चलता है कि सरकारी एजेंसियों ने मीडिया का किस तरह इस्तेमाल किया था। आम लोग जब कहते हैं कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है तो हमारे जैसे लोग जो इस पेशे का हिस्सा हैं, उन्हें तिलमिलाहट होती है। लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए। अगर आज मीडिया की जवाबदेही (Accountability of Media ) पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो यह ठीक हैं और इसका सामना किया जाना चाहिए। मीडिया की जो नई पीढ़ी इस पेशे में एक शेप ले रही है और आने वाले वक्त में काफी बड़ी जमात आने वाली है, उन्हें शायद ऐसे सवालों का जवाब कुछ ज्यादा देना पड़ेगा। गुजरात में हुए फर्जी एनकाउंटर (Fake Encounter) की खबर

मां, मुझे भी एक कहानी सुनाओ

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क्या आप किसी ऐसे सरकारी अस्पताल को जानते हैं जहां दाखिल बीमार बच्चे को कोई कहानी सुनाने आता हो। आपका जवाब शायद नहीं में होगा। इसका मुझे यकीन है। क्योंकि कहानी सुनाने वाले सिर्फ महंगे या यूं कहें कि फाइव स्टार टाइप अस्पतालों (Five star hospitals) में जाते हैं। अपने देश यह चलन अभी हाल ही में शुरू हुआ है, विदेशों में पहले से है। बीमार बच्चों को अस्पताल में जाकर कहानी इसलिए सुनाई जाती है कि वे उस मानसिक स्थिति से उबर सकें जिसके वे शिकार हैं और उनके इर्द-गिर्द फैले अस्पताल के बोझिल वातावरण में वह थोड़ा सुकून महसूस कर सकें। बचपन में मां, दादी, नानी के जिम्मे यह काम होता था या फिर उनके जिम्मे जो बच्चों को पालती थीं जिन्हें धाय मां कहा गया है और मौजूदा वक्त में उन्हें आया कहा जाने लगा है। मौजूदा वक्त की आयाएं पता नहीं बच्चों को कहानी सुनाती हैं या नहीं लेकिन तमाम मांओं, दादियों और नानियों को यह जिम्मेदारी पूरी करते हम लोगों ने देखा है। लेकिन दौर न्यूक्लियर परिवारों (Nuclear families ) का है तो ऐसे में किसी के पास कहानी सुनाने की फुरसत नहीं है। आईटी युग (IT era) में जब कदम-कदम पर हर कोई प्रोफेश

भगवान आप किसके साथ हैं

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भगवान जी बहुत मुश्किल में हैं कि आखिर वह एक कॉरपोरेट घराने (corporate house) की आपसी लड़ाई में किसका साथ दें। मुकेश अंबानी को आशीर्वाद दें या फिर छोटे अनिल अंबानी को तथास्तु बोलें। भगवान इतनी मुश्किल में कभी नहीं पड़े। भगवान करें भी तो क्या करें... अनिल अंबानी इस समय देश के सबसे पूजनीय स्थलों पुरी, सिद्धि विनायक मंदिर और गुजरात के कुछ मंदिरों की शरण में हैं। वह इस समय लगभग हर पहुंचे हुए मंदिर की घंटी बजा रहे हैं। इस यात्रा में वह अकेले नहीं हैं, उनके साथ उनकी मां कोकिला बेन और बहन व बहनोई भी साथ हैं। बड़े भाई मुकेश अंबानी के साथ चल रही उनकी कॉरपोरेट वॉर (corporate war) में वह भगवान जी से समर्थन मांग रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हो रही है और अनिल चाहते हैं कि कोर्ट उनके हक में फैसला सुनाए। सगे भाई का अहित हो। इतिहास (history) में मैंने और आप सब ने पढ़ा है कि किस तरह मुगल पीरियड में गद्दी हथियाने के लिए भाई ने भाई का कत्ल करा दिया या बेटे ने बाप को जेल में डाल दिया। ठीक ऐसा ही कुछ अब देखने को मिल रहा है जिसमें सिर्फ दो भाइयों की ही लड़ाई नहीं बल्कि भारत सरकार भी लंबी-लंब

न वो गुरुजन न वो चेले...गलत

रोजाना आपका सामना टीवी से लेकर अखबार तक ऐसी खबरों से पड़ता होगा जो आपको विक्षोभ से भर देती होंगी। लेकिन इसी दौरान कुछ खबरें ऐसी भी आती हैं कि जिनसे आपको ऊर्जा मिलती है और आप कहते उठते हैं कि दुनिया में अच्छाई अभी बाकी है। ऐसी ही दो खबरों के हवाले से अपनी बात कहना चाहता हूं। दोनों ही खबरें बुधवार बहुत कम जगह में अंग्रेजी अखबार द हिंदुस्तान टाइम्स (26 अगस्त 2009) में जगह पा सकी हैं। एक खबर दक्षिण भारत के शहर मद्रास (चेन्नै) से है। नामक्कल जिले के एक गांव में तमिल भाषा (Tamil Language) के विद्वान (Scholar)और रिटायर्ड टीचर एस. वी. वेंकटरमण को उनके चेलों ने इसी 5 सितंबर (2009) को गुरु दक्षिणा में एक अनोखा तोहफा (Unique Gift) देने का निर्णय लिया है। यह तोहफा है एक दो मंजिला मकान। खबर में पूरी बात यह कही गई है कि वेंकटरमण रिटायर हो गए और उनको वह इलाका छोड़कर अपने गांव इसलिए वापस जाना पड़ा कि वे मकान का महंगा किराया अदा नहीं कर सकते थे। उनके पास अपना मकान नहीं था। रिटायरमेंट के बाद उनको जो फंड का पैसा मिला वह उन्होंने लड़कियों की शादी में खर्च किया। यह अफसोसनाक सूचना जब उनके पढ़ाए हुए पुराने स

जसवंत और रश्दी की किताब का फर्क

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मोहम्मद अली जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब का बीजेपी पर इतना असर होगा, यह खुद जसवंत सिंह को नहीं मालूम था। बीजेपी के इस फैसले से यह तो साफ हो ही गया है कि बीजेपी में किसी तरह का आंतरिक लोकतंत्र (internal democracy) नहीं है। वरना जिस तथ्य को जसवंत ने अपनी किताब में कलमबंद किया, उन बातों को बतौर बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी कई साल पहले कह चुके थे। फिर अब क्या हुआ। जाने-माने पत्रकार वीर संघवी ने आज हिंदुस्तान टाइम्स में इस विषय पर काफी विस्तार से लिखा है। यहां मैं अपनी बात न रखकर उनके हवाले से कुछ तथ्य रखना चाहता हूं। वीर संघवी ने लिखा है कि जसवंत सिंह ने जिन्ना से जुड़े चैप्टर आडवाणी के पास बहुत पहले देखने के लिए भेजे थे। आडवाणी ने उसे पढ़ा था और उस पर मुहर लगा दी थी। आडवाणी और पूरी बीजेपी को मालूम था कि जसवंत सिंह की किताब भारत-पाकिस्तान बंटवारे जैसे मुद्दे पर आ रही है। ऐसा नहीं है कि यह किताब अचानक आई और बीजेपी नेता हतप्रभ रह गए। शिमला में चल रही चिंतन बैठक से पहले जसवंत ने आडवाणी से पूछा भी था कि क्या वे शिमला बैठक (BJP Shimla Meet ) में शामिल हों या फिर किनारा कर जाएं। आडवाणी ने उन्